बुधवार, 30 सितंबर 2009

भोले भंडारी तो सदा साथ रहे पर चिपलूनकरजी का इन्तजार ही करता रहा. .

प्रभू की असीम कृपा, बड़ों के आशीर्वाद और आप सब के स्नेहाशीष से अपने बड़े पुत्र के विवाह के सारे मंगल कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न करवा हम 26 सित. को उज्जैन से वापस आ गये थे। 27 को ही जब मैं पूरा विवरण लिख पोस्ट करने लगा तो सारी बातें किसी अनजानी, अनचाही डाउनलोडिंग के कारण धुल-पुछ गयीं। सो देर हो गयी।
पिछले पूरे महीने से मेरा रक्तचाप सामान्य होने में टालमटोल करता रहा। साथ उज्जैन जाने वालों में पांच, पचहत्तर पार के आदरणीय बुजुर्गों के स्वास्थय, सभी के खान-पान-आराम, सीधी गाड़ी ना होने की वजह से गाड़ियों को बदलना, उनके समय का टकराव, सामान का चढाना-उतारना यह सब सोच-सोच कर दिमाग का दही बना हुआ था। पर इन पांच दिनों में मुझे स्पष्ट एहसास हुआ कि भगवान भोले शंकर सदा मेरे साथ रहे थे। उनकी शक्ति, मेरे छोटे भाई प्रशांत, जो मेरे से 14-15 साल छोटा है, मुझे और अपनी भाभी को तनावग्रस्त देख ऐसे समझाता संभालता रहा जैसे वह मेरा बुजुर्ग हो। उसकी पत्नि, पूनम ने सारे काम जैसे अपने जिम्मे ले रखे थे, यहां और वहां उज्जैन में भी हर छोटे बड़े की छोटी-बड़ी जरूरतों को हर जगह हर वक्त उपस्थित हो इस लड़की ने बिना थके, परेशान हुए पूरा कर किसी को भी शिकायत का मौका नहीं दिया। पूनम के छोटे भाई सुधीर, जिसकी टेलेपैथी का कनेक्शन मुझसे सबसे ज्यादा जुड़ा हुआ है, मेरे कजिन दिवाकरजी, जिन्होंने अपनी सौम्यता से लोगों के दिल में जगह बना ली, उनके अनुज प्रभाकर ने सारे माहौल को खुशगवार बनाये रखा। इनके अलावा नीरज, निहार, अरुण, मेरे अभिन्न मित्र त्यागराजनजी तथा भट्टाचार्यजी और इस गर्मी में कुल्लू से आये जीवनजी तथा कृष्णजी मे समाहित हो किसी भी क्षण को मुश्किल में नहीं बदलने दिया।
साथ के बुजुर्ग जो इस लम्बी यात्रा पर जाने से कतरा रहे थे, लौटने के बाद यही कहते रहे कि ना जाते तो सदा पछतावा ही रहता। भोले भंडारी की कृपा से किसी को राई-रत्ती भी तकलीफ नही हुई। नवरात्रों के बावजूद गाडियों में किसी अवांछित तत्व या बेकाबू भीड़-भाड़ का सामना नहीं करना पड़ा। और तो और अपनी लेट-लतीफी के कारण मशहूर भारतीय रेल हर बार अपने समय से 10-15 मिनट पहले ही हमें मिलती रही, जिससे सामान उतारने-चढाने में कोई दिक्कत पेश नहीं आई।
उज्जैन में भी भगवान महाकाल ने अपने दर्शनों को आतुर अपने भक्तों को खुद से आलिंगनबद्ध होने का भरपूर मौका दिया, अपनी आरती में सम्मलित होने का सौभाग्य प्रदान किया , जिससे सारे लोग गदगद हो प्रभू का गुणगान करते रहे।
इस कारण नहीं कि उज्जैन में श्री अशोकजी से हमारे संबंध बन गये हैं तो मैं ऐसा लिख रहा हूं। सच में इतने विनम्र, सरल ह्रदय, भगवान में अटूट विश्वास रखने वाले परिवार मैंने बहुत कम देखे हैं। अस्सी साल पार करने के बावजूद परिवार के मुखिया दादाजी का सारी स्थियों पर पूरा नियंत्रण था। मेरे बार-बार कहने पर ही उन्होंने आराम करने घर जाना मंजूर किया। पुत्रवधू के चाचा, शिव कुमार जी अपनी अस्वस्थ पत्नि और बच्चे को छोड़ कर पूरा आयोजन सफल बनाने में जुटे रहे। अपनी माताजी की बिमारी के बावजूद सुश्री आरती की छोटी बहन पल्लवी और भाई भानू की कार्यक्षमता को देख कर एहसास हुआ कि बड़े भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। भानू के मित्रों ने भी दिन-रात एक कर रखा था। भगवान इन सारे प्यारे बच्चों को लम्बी उम्र के साथ-साथ जीवन की हर खुशी प्रदान करे, यही मेरी कामना है। बस एक कमी महसूस होती रही, कि उज्जैन जाकर भी चिपलूनकर जी से मिलना नहीं हो पाया। गलती मेरी ही थी, मैने उन्हें तारीख याद नहीं दिलवाई। यह कसक मन में सदा रहेगी।
प्रसंग वश एक बात और बतलाना चाहूंगा। हमारी रिजर्वेशन 90 दिन पहले करवा ली गयी थी। इस कारण कुछ लोगों का चलते समय अचानक कोई जरूरी काम आ जाने की वजह से जाना नहीं हो पाया था। इससे जाते और आते वक्त 6 सीटें खाली थीं हमारे पास। तो सबने खोज-खोज कर अशक्त एवं जरूरतमंदों को उस जगह का लाभ दे दिया। हम सबने महसूस किया कि उनके ह्रदय से दी गयी आशीषों ने भी हमारे सामने किसी अड़चन को फटकने नहीं दिया। एक वृद्ध दंपत्ति, जिनकी तबीयत भी ठीक नहीं थी, टिकट दलाल के धोखे में आ, अपना पैसा और जगह दोनों गंवा चुके थे, ने जाते-जाते हमें अपने आशीर्वाद से सराबोर कर रख दिया।
कहते हैं ना कि सच्चे मन से यदि अपने-आप को प्रभू की शरण में सौंप दिया जाए तो वह तारनहार सुनता जरूर है और कुछ भी अलभ्य नहीं रह जाता। तो कुछ ऐसा ही अनुभव रहा मेरा।
रुकता हूं।
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३०.०९.०९
अफरा तफरी में दो दिन और निकल गये। अच्छा ही हुआ। कल आशीर्वाद समारोह में अपने हरदिल अजीज श्री पाबलाजी ने अपनी बिटिया के साथ आ कर मुझे जो खुशी प्रदान की मैं उसका विवरण नहीं कर सकता। अद्भुत क्षण थे वह।

रविवार, 20 सितंबर 2009

मेरे बड़े बेटे के मंगल परिणय पर आप सादर आमंत्रित हैं.

मैं आप सब को, सृष्टि के रचयिता की असीम अनुकंपा से उपलब्ध, अपने बड़े बेटे के विवाह के शुभ अवसर पर सादर आमंत्रित करता हूं। मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि आप नवदंपति को अपना स्नेहाशिष दे मुझे अनुग्रहित करें।
विवाह का अयोजन महाकाल की नगरी "उज्जैन" में 22 सितम्बर को तथा आशीर्वाद समारोह रायपुर में 29 सितम्बर को "निरंजन धर्मशाला" में सम्पन्न होगा।
आप सब की प्रतीक्षा रहेगी।

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

क्या हम सब सुविधा भोगी नहीं हो गए हैं?

अरब से ज्यादा आबादी वाले देश को नचा रहे हैं पाँच-साढ़े पाँच सौ लोग। तमाशा हो रहा है संसद में। तमाशे में शामिल कुछ लोग अपना उल्लू सध जाने के बाद ऊँघ रहे हैं कुछ बतिया रहे हैं कुछ, कुछ बोलना जरूरी है इसलिए बोल रहे हैं और कुछ सिर्फ़ अपनी उपस्थिति टी वी पर दर्शाने के लिए बार-बार खड़े हो कर व्यवधान डाल रहे हैं।आधे से ज्यादा को तो शायद पता भी नहीं होगा की मुद्दा क्या है। कारों के काफिलों और उनमे से उतरते सजे सजायेअपने भाग्य विधातायों को देख लगता ही नहीं कि देश में गरीबी या मंहगाई जैसी भी कोई समस्या है। अभी मुहीम चल रही है, खर्च कम कराने की। इस पर कईयों की त्योरियां चढ़ गयी हैं। हैं !!!! , हम क्या "मैंगो मैंन" हैं की हमारे खर्च में कटौती की जा रही है। कुछ ऐसे हैं जो मीडिया के सामने दो-तीन दिन सायकिल पर ख़ुद को बैठा दिखला सुर्खियाँ बटोरने की कोशिश करेंगे। हवाई जहाज में क्लास बदलने का फैशन भी अब आम हो गया है। हम सब को भी यह सब देख अब शायद अजीब सा नहीं लगता। आज हमें भी अंधेरे की इतनी आदत हो गयी है कि हम रोशनी के लिए लड़ना ही नहीं चाहते। केवल नेतायों और व्यवस्था को दोष देने से कोई लाभ नहीं है क्योंकि हम सब इस भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा हैं। आज जिस बदलाव की जरूरत है उसे वे लोग नहीं ला सकते जो ख़ुद दोहरा जीवन जीते हैं। बाजार की ताकतों ने एक नकली संसार रच दिया है जिसकी माया ने सब को ठग रखा है। हम सब सुविधा भोगी हो गए हैं।

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

रमन सिंह, एक मुख्य मंत्री ऐसा भी

हमारे प्रणव दा की खर्चों में कटौती की अपील पर जहां कुछ 'तकदीर के धनियों' के माथे पर बल पड़ गये हैं, अपनी शानो-शौकत में किफायत बरतने के निर्देश पर। वहीं कुछ 'राज महल' में मत्था टेकते वक्त अपनी किफायतों का वर्णन कर सर्वोच्च सत्ता की कृपा दृष्टि का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में जुटे हैं। गोया यह भी एक मौका हो गया भविष्य संवारने का।
यहां इनके कच्चे चिट्ठे खोलने की बजाय मैं एक ऐसे मुख्य मंत्री की ओर सबका ध्यान ले जाना चाहता हूं जो सत्ता में आने के बावजूद किफायत के पक्ष में रहा है। ना ज्यादा ताम-झाम, ना दिखावा, नाहीं उपलब्ध होने के बावजूद सरकारी साधनों का उपयोग। ये हैं छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री, श्री रमन सिंह।
मैं ना किसी पार्टी के पक्ष में हूं ना विपक्ष में, पर जो दिखता है वह बतला रहा हूं। यह भला आदमी प्रणव दा की अपील के पहले से ही जहां तक हो सकता है अपने क्षेत्र का पैसा बचाने की सोचता रहता है। एक पिछड़े और गरीब प्रांत की उन्नति यदि कोई चाहता है तो उसकी टांग खिंचाई के बदले उसे प्रोत्साहन मिलना ही चाहिये। भले ही यह विपक्ष का नेता है, पर जो चीज जनता के हित में है उसे तो उजागर होना ही चाहिये। जिनके लिये आज प्रणव जी को निर्देश देने पड़ रहे हैं उन भले लोगों के भी आंख, कान, दिमाग है। उन्हें देश और देश की जनता क्यों नहीं दिखाई पड़ती। प्रधान मंत्री की बात ना भी करें, क्योंकि उनकी मजबूरी हो सकती है, पद की गरिमा के कारण। वैसे भी आज सोनिआ जी का एकानामी क्लास से सफर एयर इंडिआ को काफी मंहगा पड़ा सुरक्षा व्यवस्था के मद्देनजर, तो रमन सिंह जी के अलावा एक और शख्शियत है जो किफायत में विश्वास रखती है। वह हैं हमारी रेल मंत्री ममता बनर्जी।
अंत में मैं आप सबसे एक बात पूछना चाहता हूं। अभी दो-चार दिन पहले दो मंत्री श्रेष्ठों ने कहा था कि वह होटलों का खर्च अपनी जेब से दे रहे हैं। इस बात पर कितने लोगों ने विश्वास किया होगा ?

रविवार, 13 सितंबर 2009

श्रीकृष्णजी ने अर्जुन को दो बार गीता का उपदेश दिया था

छोटी अवधी के बड़े युद्ध का खात्मा हो चुका था। धीरे-धीरे चारों ओर जन-जीवन सामान्य होने की ओर अग्रसर था। युधिष्ठिर सिंहासनारूढ हो चुके थे। सारे मित्र राजाओं की उचित सम्मान के साथ विदाई हो चुकी थी। श्री कृष्ण भी कुछ समय पश्चात द्वारका लौटने की मंशा जाहिर कर चुके थे। हांलाकि पांड़व खास कर अर्जुन अभी उन्हें जाने देना नहीं चाहते थे। फिर भी जाना तो था ही।
इसी तरह एक बार उद्यान में घूमते-घूमते दोनों सखाओं, श्रीकृष्ण और अर्जुन में, विभिन्न विषयों पर वार्तालाप हो रहा था। ऐसे ही बातों-बातों में युद्धभूमि और फिर गीता के उपदेशों की बात होने लगी। तभी अचानक अर्जुन ने कहा, केशव, आपने युद्धभूमि में गीता का उपदेश देकर मेरे साथ-साथ सारी दुनिया का उपकार किया था। आपका वह विराट स्वरूप आज भी मेरे मन-मस्तिष्क में छाया हुआ है। पर मेरी एक प्रार्थना है कि आप यहां से जाने के पहले मुझे फिर एक बार उस अमृत का पान करवा जायें। क्योंकि उस समय के माहौल, युद्ध के कारण मानसिक तनाव, विचलित मन और आपके विराट स्वरूप के दर्शन से दिग्भ्रमित बुद्धी के कारण मैं तब गीता की सारगर्भिता को पूर्ण रूप से आत्मसात नहीं कर पाया था। इसलिये कृपया एक बार फिर मुझे अपनी मोक्षदायिनी वाणी से कृतार्थ करने की कृपा करें।
श्रीकृष्ण अपने सबसे प्रिय सखा की बात कैसे टालते। वे अर्जुन को ले राजमहल के सभागार में आये और फिर एक बार गीता के उपदेशों की अमृत धारा बहाई।
विद्वानों के अनुसार दोनों बार दिये गये उपदेशों के आध्यात्मिक महत्व में कोई फर्क नहीं है। सिर्फ परिस्थितियों और समय को छोड़ कर। पहली बार सुनने वाले अर्जुन मोहग्रस्त थे तो दूसरी बार विस्मृतिग्रस्त। पहली बार गीता युद्धभूमि में तनाव ग्रस्त माहौल में सुनाई गयी थी, दूसरी शांत माहौल में थोड़े विस्तार के साथ। पहली गीता में कुल अठारह अध्याय और सात सौ श्लोक हैं, जबकि बाद वाली गीता में छत्तीस अध्याय और करीब एक हजार श्लोक हैं। क्योंकि पहली बार समयाभाव था, पर दूसरी बार ऐसी कोई बात नहीं थी। पहली बार महर्षि वेदव्यासजी ने पूरे उपदेश श्रीकृष्णजी से कहलवाए थे जबकी दूसरी बार परोक्ष रूप से अनेक ऋषी गण, जैसे जनमेजय, नारद, कश्यप, वैशंपायन आदि विद्वान उपदेश देते हैं। जबकि सब का सार एक ही है।
दूसरी बार कही गयी गीता को "अनुगीता" के नाम से जाना जाता है, यानि बाद की गीता।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

जब-जब जो-जो होना है, तब-तब सो-सो होना ही है, तो घबडाहट क्यूं?

फिजिक्स की क्लास में एक बच्चे ने सर से कहा कि बरसात में मुझे जब बिजली चमकती है और बादल गरजते हैं तो बहुत ड़र लगता है, मैं क्या करूं? टीचर ने समझाया, देखो बेटा, जब बिजली चमकती है और बादल गरजते हैं तो जो कुछ होना होता है वह हो चुका होता है। हमें कुछ देर बाद ही आवज और चमक दिखाई पड़ती है। इसलिये डरने की कोई बात ही नहीं है। यदि पहले कुछ होता है तो हमें पता चलने से पहले ही हो चुका होता है। उसमें फिर ड़रने के लिये कोई बचता ही नहीं है। इस डर को बाहर निकालो और अपने अध्ययन में दिल लगाओ। जब जो होना है उसे कोई नहीं रोक पायेगा। सब निश्चित है।

उस बच्चे की तरह हम सब अंत से डरते, अनहोनी की आशंका में इस खुदा की नेमत जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा एवंई गवां देते हैं। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारे, चर्च में जा कर अपनी रक्षा, अनहोनी से बचाव या संकट में उससे सहायता की गुहार लगाते रहते हैं। कितने जने हैं जो वहां जा कर कुछ मांगने की अपेक्षा उसे इस सुंदर जीवन को देने का धन्यवाद करते हैं?

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क्या आप जानते हैं कि श्री कृष्णजी ने अर्जुन को दो बार गीता का उपदेश दिया था?
आगामी कल।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

मुर्गे को मुर्गी की फीगर की चिंता

डान की बेटी शादी की दुसरी सुबह गुस्से से तमतमाई हुई अपने कमरे से बाहर निकली। उसकी मां ने उसे ऐसी हालत में देख उसे नार्मल करने को कहा, बेटी सब ठीक हो जायेगा। बेटी बोली वह तो ठीक है, पर अंदर पड़ी लाश का क्या करूं ?
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एक मुर्गी ने बेकरी वाले के यहां जा दो अंडे मांगे। बेकरी वाले ने हैरान हो पूछा, अरे तुम्हें अंडों की क्या जरूरत है? मुर्गी ने शर्माते हुए कहा, मेरा मुर्गा कहता है कि दो रुपयों के लिये तुम अपनी फ़ीगर मत खराब करो।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

पानी की समस्या इतिहास बनने की कगार पर

चलो देर से ही सही नींद तो खुली। वैसे इसे देर भी नहीं कह सकते क्योंकी जब-जब, जो-जो, होना है। तब-तब सो-सो होता है। आखिर में सागर के अथाह जल की ओर ध्यान गया ही सरकार का। वैज्ञानिकों ने एक महत्वपूर्ण उपलब्धी हासिल कर ही ली। रोज दिल दहलाती, जी जलाती, आग उगलती खबरों के बीच ठंड़ी हवा का झोंका बन कर आयी यह खबर कि समुद्री पानी को पीने योग्य बना लिया गया है।

ऐसा नहीं है कि इससे पहले सागर से पीने का पानी बनाने की बात नहीं सोची गयी पर उस पर खर्च इतना आता था कि उसका वहन सब के बस का नहीं था। और तब ना ही इतना प्रदुषण था ना ही बोतलबंद पानी का इतना चलन। अब जब पानी दूध से भी मंहगा होता जा रहा है, तो कोई उपाय तो खोजना ही था। फिलहाल लक्षद्वीप के कावारती द्वीप के रहने वालों को सबसे पहले इसका स्वाद चखने को मिल गया है। और यह संभव हो पाया है "राष्ट्रीय समुद्र प्रौद्योगिकी संस्थान" के अथक प्रयासों के कारण। आशा है साल के खत्म होते-होते तीन संयत्र काम करना शुरु कर देंगे। एक लाख लीटर रोज की क्षमता वाले एक संयत्र ने तो 2005 से ही काम करना शुरु कर दिया है।

शुरु-शुरु में समुद्र तटीय इलाकों में इस पानी को पहुंचाने की योजना है। समुद्री पानी को पेयजल में बदलने के लिये निम्न ताप वाली "तापीय विलवणीकरण प्रणाली (L.T.T.D.) का उपयोग किया जाता है। यह प्रणाली सस्ती तथा पर्यावरण के अनुकूल है। इस योजना के सफल होने पर सरकार बड़े पैमाने पर बड़े संयत्रों को स्थापित करने की योजना बना रही है। अभी एक करोड़ लीटर रोज की क्षमता वाले संयत्र की रुपरेखा पर काम चल रहा है। सारे काम सुचारू रूप से चलते रहे तो दुनिया में कम से कम पानी की समस्या का तो स्थायी हल निकल आयेगा।

16 जून की अपनी एक पोस्ट में मुझे लगा था कि सागर की इतनी जल राशि के रहते पानी के लिये उतनी चिंता की आवश्यकता नहीं है जितनी की खोज की । सही भी है विज्ञान के इस युग में जब टायलेट का पानी साफ कर उपयोग में लाया जा सकता है तो फिर समुद्री पानी को क्यों नहीं । रही बात खर्चे की तो आज जो कीमत हम बोतलों में बंद पानी की दे रहे हैं, जिसके पूर्ण शुद्ध होने पर भी शक विद्यमान है, उससे तो सस्ता ही पड़ेगा सागर के पानी को साफ करना। आखिर अरबों लोगों, जीव-जंतुओं की प्यास का सवाल है।

रविवार, 6 सितंबर 2009

सीकरी, फर्श से अर्श और अर्श से फर्श तक

सूर्य की तेज गर्मी और तपते रेगिस्तान में एक व्यक्ति नंगे पैर एक दरागाह की तरफ बढा जा रहा था। दुनिया से बेखबर सिर्फ अपनी मंजिल को पाने के लिये बेताब। उसे तो अपने पैरों में पड़े छालों से रिसते खून से उत्पन्न वेदना का भी एहसास नहीं हो रहा था। यह व्यक्ति था सम्राट अकबर। दरागाह थी शेख सलीम चिश्ती साहब की और जगह थी सीकरी नामक एक गांव की।
दुनिया जानती है कि अपनी संतान ना होने के कारण सम्राट अकबर ने सलीम चिश्ती की दरागाह पर जा मन्नत मांगी थी और शेख साहब के आशीर्वाद से उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई थी। इससे अकबर की खुशी की सीमा ना रही। उसने अपने पुत्र का नाम भी शेख साहब के नाम पर सलीम रखा और उस गांव सीकरी को अपनी राजधानी बनाने का फ़ैसला कर लिया।
यूं सीकरी के भाग्य ने पलटा खाया। एक छोटी सी पहाड़ी पर स्थित यह छोटा सा गांव देखते-देखते पूरे देश की राजधानी बन गया। अपनी गुजरात विजय को अविस्मरणीय बनाने के लिये अकबर ने इसका नाम फतेहपुर सीकरी रख दिया। इसे ऊंची-ऊंची दिवारों से घेर कर अनेकों सुंदर भवनों, मस्जिदों बाग-बगीचों का निर्माण कर सजा दिया गया। दिवारों में भी आवागमन के लिये सात दरवाजे बनाये गये जिनका नाम, दिल्ली दरवाजा, आगरा दरवाजा, ग्वालियर दरवाजा, अजमेरी दरवाजा, मथुरा दरवाजा, बीरबल दरवाजा और चंद्रफूल दरवाजा रखा गया। यहां के भवन ज्यादातर लाल पत्थरों से बनाये गये हैं। यहीं शेख साहब तथा उनके परिवार वालों की कब्रें भी हैं जिन्होंने समय के साथ-साथ तीर्थ स्थल की जगह ले ली है। यहां हर साल भव्य तरीके से उर्स मनाया जाता है जहां दुनिया भर से लाखों लोग अपनी मन्नत पूरी करवाने आते हैं।
पर काल के गाल में सबको समाना पड़ता है। उसकी मजबूत दाढों से आज तक कोई नहीं बच पाया है। वही सीकरी जिसकी तूती सारे देश में गूंजती थी, राजधानी दिल्ली चले जाने के बाद, अपना महत्व धीरे-धीरे खोती चली गयी। आज हालत यह है कि सारे भवनों, स्मारकों, बावड़ियों का अस्तित्व खतरे में है। हर जगह विराने का साम्राज्य है। पर्यटक आते जरूर हैं पर बुलंद दरवाजे जैसी कुछ जगहों को देख लौट जाते हैं। रह जाता है पूरा शहर अपने गौरवमयी इतिहास को जन-जन तक पहुंचाने को आतुर।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

हिंदी लिखने के लिये hindikalam.com आजमा कर देखें।

बहुत बार देखा है कि किसी-किसी पोस्ट पर अनेक वर्तनी की गल्तियां होती हैं। जो लिखने वाले वाले से नहीं लिखवाए जाने वाले माध्यम की सिमितताओं  का नतीजा होती हैं। आज पाबला जी की पोस्ट पर अच्छी जानकारी थी। पर hindikalam.com का जिक्र मैंने कहीं नहीं पाया। मैं इसी माध्यम का उपयोग करता हूं, और मुझे लगता है कि इस पर लिखने से हिंदी के एक-दो शब्दों को छोड़ सारे कलिष्ट शब्द भी लिखे जा सकते हैं। । साथ ही यह है भी बहुत आसान। एक बार तो आजमाया ही जा सकता है।
हाँ, कापी-पेस्ट की जहमत तो उठानी पड़ेगी।

शुक्रवार, 4 सितंबर 2009

जमजम का पानी, रेगिस्तान में कुदरत का करिश्मा

प्रकृति के अनगिनत चमत्कारों में से एक है सऊदी अरब के शहर मक्का का एक कुआं। यह पवित्र धर्मस्थल काबा के पास स्थित है। जैसे हर हिंदु की अभिलाषा रहती है कि उसके घर में सदा गंगाजल रहे वैसे ही हर मुसलमान की यह हार्दिक इच्छा रहती है कि इस कुएं का पानी उसके घर में हो।
इस कुएं का नाम है जमजम। घोर आश्चर्य की बात है कि मीलों फैले रेगिस्तान में जहां सिर्फ रेत ही रेत है वहीं यह कुआं लाखों लोगों की पानी की जरुरतों को पूरा करता है। मक्का और मदीना के लोग तो इसका पानी लेते ही हैं, हज के समय हर वर्ष वहां लाखों की तादाद में जाने वाले यात्रियों की जल की आवश्यकता को भी यही कुआं पूरा करता है। इसके अलावा लौटते वक्त भी सभी हाजियों की यह हार्दिक इच्छा रहती है कि वे अपने साथ इस कुएं का ज्यादा से ज्यादा पानी ले जा सकें। जिससे इसको अपने सगे-संबंधियों और मित्रों में बांटा जा सके। इसके वितरण से पुण्य का लाभ मिलता है। ऐसी धारणा है।
इस 14x18x6 फिट के आकार वाले कुएं के पानी की खासियत है कि वह कभी खराब नहीं होता। और यह कुदरत का चमत्कार ही है कि इसमें से चाहे कितना भी पानी निकल जाये पर यह ना तो सूखता है नाही खाली होता है। मरुस्थल में यह कुआं इंसानों के लिये एक वरदान ही तो है।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

संगीतकार नौशाद को अपनी शादी दर्जी बन कर करनी पडी थी

कल्पना कीजिए की जिसने अपने संगीत से सारे भारत में धूम मचा रखी थी , उसे ही अपनी शादी दर्जी बन कर करनी पड़ रही थी।

आज के समय में गीत-संगीत, नाच-गाना प्रतिभा की पहचान के रूप में देखे जाते हैं। किसी का भी बच्चा जरा ठुमक कर क्या चल लिया या किसी फिल्मी गाने की नकल कर भर ली तो उसके मां-बाप उसे किसी मंच पर पहुंचाने के लिये आतुर हो उठते हैं। फिर चाहे बच्चे को सरगम का 'सा' या नाच का 'ना' का पता भी ना हो। पर कुछ ही सालों पहले की बात है जब इन कलाओं को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। मां-बाप इन विधाओं के सख्त खिलाफ हुआ करते थे। इसी सब के चलते संगीतकार नौशाद को कैसी-कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, सुनिये उन्हीं की जुबानी :-


"मां ने मेरी शादी पक्की कर लखनऊ बुलवा लिया। तैयारियों के बीच एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और कहा, बेटा ससुराल में किसी को पता नहीं चलना चाहिये कि तुम गाने बजाने का काम करते हो। मैं आश्चर्य में पड़ गया और पूछा, ऐसा क्यों अम्मी? तो अम्मी ने कहा कि मैंने सब को कह रखा है कि मेरा बेटा बंबई में दर्जी का काम करता है। अगर मैं बता देती कि तू गाने बजाने का काम करता है तो तेरी शादी ही तय नहीं होनी थी। तेरी ससुराल वाले सूफी किस्म के लोग हैं। मैं मां की बात मानने को मजबूर था। पर मन में एक प्रश्न घुमड़ रहा था कि क्या संगीत का काम इतना घटिया है कि एक दर्जी उस पर भारी पड़ रहा है। फिर उसके बाद जो हुआ उसका आप अंदाज लगा मेरी हालत समझ सकते हैं। 

उन्हीं दिनों फिल्म "रतन" रिलीज हुई थी और उसके मेरे द्वारा निर्देशित गाने सारे हिंदुस्तान में धूम मचा रहे थे। तो जब मेरी बारात चली तो बैंड वालों ने उसी फिल्म के गाने बजाने शुरु कर दिये। लड़की वालों के यहां भी शहनाई पर "रतन" के गानों की बहार थी और मैं दर्जी बना निकाह की रस्में पूरी कर रहा था।"
बाद में जब नौशाद साहब की श्रीमतीजी बंबई आयीं तो उन्हें पता चला कि उनके शौहर मशहूर संगीतकार हैं।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

बाप रे !!! इतना झगडालू चिडिया परिवार

इनकी करतूतों से सभी भर पाए हैं और इनके जाने का इंतजार कर रहे हैं। जिससे फिर साफ-सफाई कर इस नर्सिंग होम को बंद किया जा सके। पर इस सबसे एक बात तो साफ हो गयी कि चिड़ियों में भी इंसानों जैसी आदतें होती हैं। कोई शांत स्वभाव का होता है, कोई सफाई पसंद और कोई गुस्सैल, चिड़चिड़ा और झगड़ालू............!

#हिन्दी_ब्लॉगिंग
मेरे कार्यालय में बीम और मीटर बाक्स के कारण बनी एक संकरी सी जगह में चिड़ियों के घोंसले के लिये बेहतरीन जगह बन गयी है। इसी कारण पिछले तीन साल से वहां कयी परिवार पलते आ रहे हैं। बना बनाया नीड़ है, नर्सिंग होम की तरह जोड़े आते हैं, शिशु पलते हैं और फिर उड़न छू।

पहली बार जो जोड़ा आया उसने जगह देखी-भाली और तिनका-तिनका जोड़ अपना ठौर बना लिया। सफाई कर्मचारी बनते हुए घर को साफ कर देते पर यह "Encroachment" दो दिनों की छुट्टियों के बीच हुआ था, जिसे हटाने की किसी की इच्छा नहीं हुई। उस पहले जोड़े ने आम चिड़ियों की तरह अपना परिवार बढाया और चले गये। उनके रहने के दौरान एक बार उनका नवजात नीचे गिर गया था जिसे बहुत संभाल कर वापस उसके मां-बाप के पास रख दिया गया था। वैसे रोज कुछ तिनके बिखरते थे पर उनसे किसी को कोई तकलीफ नहीं थी साफ-सफाई हो जाती थी। दूसरी बार तो पता ही नहीं चला कि कार्यालय में मनुष्यों के अलावा भी किसी का अस्तित्व है। लगता था वह परिवार बेहद सफाई पसंद है, न कोई गंदगी, ना शोर-शराबा। सिर्फ बच्चे की चीं-चीं तथा उसके अभिभावकों की हल्की सी चहल-पहल। कब आये कब चले गये पता ही नहीं चला। तीसरा जोड़ा नार्मल था। मां-बाप दिन भर अपने बच्चे की मांगपूर्ती करते रहते। तिनके वगैरह जरूर बिखरते थे पर इन छोटी-छोटी बातों पर हमारा ध्यान नहीं जाता था। पर एक आश्चर्य की बात थी कि और किसी तरह की गंदगी उन्होंने नहीं फैलाई। शायद उन्हें एहसास था कि वैसा होने से उसका प्रतिफल बुरा हो सकता है।

पर अब पिछले दिनों जो परिवार आया है, जिसके कारण ये पोस्ट अस्तित्व में आई, वह तो अति विचित्र है। सबेरे कार्यालय खुलते ही ऐसे चिल्लाते हैं जैसे हम उनके घर में अनाधिकार प्रवेश कर रहे हों। आवाज भी इतनी तीखी कि कानों में चुभती हुई सी प्रतीत होती है। बार-बार काम करते लोगों के सर पर चक्कर लगा-लगा कर चीखते रहते हैं दोनो मियां बीवी। इतना ही नहीं कयी बार उड़ते-उड़ते निवृत हो स्टाफ के सिरों और कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर जाते हैं। उनके घोंसले के ठीक नीचे फोटो-कापियर और टाइप मशीनें पड़ी हैं। जिन्हें रोज गंदगी से दो-चार होना पड़ता है। अब जैसा जोड़ा है वैसा ही उनका नौनीहाल या नौनीहालिनी जो भी है। साहबजादे/दी रोज ही घूमने निकले होते हैं। दो दिन पहले टाइप मशीन में फंसे बैठे थे, किसी तरह हटा कर उपर रखा। कल पता नहीं कैसे फोटो-कापियर में घुस गये, वह तो अच्छा हुआ कि चलाने वाले ने गंदगी साफ करते उनकी झलक पा ली, नहीं तो वहीं 'बोलो हरि' हो गयी होती। बड़ी मुश्किल से आधे घंटे में उन्हें बाहर निकाला जा सका।

इनकी करतूतों से सभी भर पाए हैं और इनके जाने का इंतजार कर रहे हैं। जिससे फिर साफ-सफाई कर इस नर्सिंग होम को बंद किया जा सके। पर इस सबसे एक बात तो साफ हो गयी कि चिड़ियों में भी इंसानों जैसी आदतें होती हैं। कोई शांत स्वभाव का होता है, कोई सफाई पसंद और कोई गुस्सैल, चिड़चिड़ा और झगड़ालू।
आपका क्या एक्सपीरीयेंस है ? (-:

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