सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

क्या आपने ऐसे विज्ञापन देखे हैं?

कभी-कभी कुछ ऐसा देखने को मिल जाता है टी.वी. पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों में कि समझ नहीं आता कि हम बावले हैं या सामने वाला। दो-तीन नमूने पेश हैं -

1, एक जाने-माने शैंपू का विज्ञापन :- एक मां अपनी बच्ची को क्रिकेट सिखाने के लिये कोच के पास लेकर जाती है। बजाय इसके कि कोच साहब उसके खेल के बारे में पूछ-ताछ करें, उन्हें बालिका के बालों की चिंता होती है। कहते हैं इसके बाल खराब हो जायेंगे। मां जवाब देती है, आप तो इसके खेल पर ध्यान दें बालों की फिक्र मैं कर लूंगी।

2, एक कपड़े धोने के साबुन का विज्ञापन :- क्रिकेट खेलते बच्चों की बाल से एक महोदय की खिड़की का शीशा टूट जाता है। गुस्से में महोदय दंड़ देने लगते हैं तो बाल लेने आया लड़का गलती की माफी मांगने के बदले ढिठता से कहता है कि दूसरी बाल भी इधर ही आयेगी। जिनका शीशा टूटा था इस पर खुश हो उसकी उजली कमीज का कालर ठीक कर उसे शाबाशी दे विदा करते हैं और लड़का अकड़ता हुआ चल देता है।

3, एक कंस्ट्रक्श्न कंपनी का विज्ञापन :- एक बच्चा एक बच्ची को एक डैम के पास लाता है और बच्ची से कहता है इसे मैने बनाया। बच्ची आश्चर्य से पूछती है, इतना बड़ा !!
बच्चा डैम से पानी छोड़ने के समय को जानते हुए बच्ची को धोखे में रख कहता है कि यह मेरी बात सुनता है। उसी समय डैम से पानी आना शुरु हो जाता है। बच्ची अवाक रह जाती है और पीछे से आवाज आती है कि ऐसी बड़ी-बड़ी बातें हम आसानी से कर जाते हैं (या इन्हीं शब्दों के मिलते-जुलते अर्थ का वाक्य)
इसका अर्थ यह भी निकलता है कि हम ऐसे ही लोगों को बेवकूफ बनाते रहते हैं।

ऐसे विज्ञापनों को देख समझ नहीं आता कि हसें या रोयें।

14 टिप्‍पणियां:

Shastri JC Philip ने कहा…

अर्थहीन विज्ञापन, फूहड विज्ञापन, नैतिक मूल्यों को धता बताते विज्ञापन, अब तो अति हो गई है. यदि इनके विरुद्ध न बोला जाये तो कल को सामाजिक मूल्यों की धज्जियां उडा देंगे ये.

सस्नेह -- शास्त्री

-- हर वैचारिक क्राति की नीव है लेखन, विचारों का आदानप्रदान, एवं सोचने के लिये प्रोत्साहन. हिन्दीजगत में एक सकारात्मक वैचारिक क्राति की जरूरत है.

महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

एक वैधानिक चेतावनी : कृपया विज्ञापनों, टीवी चैनलों की ख़बरों और फिल्मों में अर्थ की तलाश न करें. अर्थ की तलाश केवल उन्हें ही करने दें. आप तो उनमें केवल काम की तलाश करें. अन्यथा आपको मोक्ष से वंचित कर दिया जाएगा.

बेनामी ने कहा…

अजी इससे ज्यादा परेशान तो हम आजकल बैंक और इंश्योरेंस कंपनियों के ऐड्स से हें, कोई कहता है मेरे देश में पैसा सिर्फ़ पैसा नही है, कोई एक एंटिक सिक्के को बेचकर उसके पैसे से बच्चियों को लोल्लिपोप खिलाता है, कहीं एक छोटी बच्ची सोने का दांत उगा रही है अपने चाचा की मोटर साइकिल के लिए। उफ़!
ये कहना चाहते हें ' हम समझें आपको बेहतर', हमें लगता है 'ये लूटें आपको बेहतर'!

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

भगवान बचायें इनसे तो.

रामराम.

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

बेबकूफ़ बनाते या समझते है विज्ञापन बनाने वाले

बेनामी ने कहा…

क्यों अपना दिमाग ख़राब करते हैं. ना हंसने की जरूरत है ना रोने की. जब विज्ञापन आता है टी.वी बंद कर दें या मत देखें. इन बेवकूफों को क्या समझाने जायेंगे? .

संगीता पुरी ने कहा…

आज इन्‍हीं विज्ञापनों के कारण टी वी के पास बैठने की भी इच्‍छा नहीं होती.....अच्‍छा है...हमलोगों के पास एक आप्‍शन और है....खबरों से रूबरू रहने और अपने विचारों को अभिव्‍यक्‍त करने का।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

आज कल के विज्ञापनों से भगवान ही बचाए।

विष्णु बैरागी ने कहा…

हमेशा याद रखिए - 'विज्ञापन कभी सव नहीं बोलते' और यह सनातन वाक्‍य याद रखते हुए विज्ञापनों का आनन्‍द लीजिए।
(क्‍योंकि आप इनसे बच नहीं सकते।)

Vinay ने कहा…

दमाग़ पर ज़ोर डालने की ज़रूरत नहीं, अब हर विज्ञापन मसाला है!

निशाचर ने कहा…

भैया.. टी वी में रिमोट की सुविधा का और कोई उपयोग भी है क्या. जैसे ही ब्रेक आये चैनल बदल कर मुक्ति पाओ इन नामुरादों से

रंजू भाटिया ने कहा…

वो दिखाते हैं यह विज्ञापन और हम देखते हैं ..पर सच वो भी जानते हैं और हम भी :)

महुवा ने कहा…

दिखावों पर ना जाओ....अपनी अकल लगाओ..

राज भाटिय़ा ने कहा…

जो कुडा करकट नही बिकता, उसी चीज का विज्ञापन आता है ओर लोग उसे बडी शान से खरीदते भी है, यानि वो लोग कुडा करकट खरीदते है, सब से अच्छा तरीका, जो कुछ भी इन विज्ञापनओ मओ दिखाया जाये उस चीज को तो बिलकुल मत खरिदो...फ़िर देखो.केसे दिखाते है यह ऎसे बेबकुफ़ी भरे विज्ञापन,
धन्यवाद कल आप का फ़ीड भी नही आ रहा था.

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