पिछले दिनों करीब 20-22 सालों के बाद महाकाल की नगरी उज्जैन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हालांकि जाने का कार्यक्रम निहायत व्यक्तिगत था पर संयोगवश दिन मौनी अमावस्या तथा सूर्य ग्रहण के पड़ रहे थे। इस बार प्रवास का सारा भार मेरे प्रिय भाई स्वरुप मित्र, अशोक जी के सुपुत्र भानू ने संभाल रखा था। उन्हीं के सुझाव से महाकाल के दर्शन सोमवार 26 जनवरी को ना कर एक दिन पहले रविवार को ही कर लिये थे। सोमवार के दिन तो ठट्ठ के ठट्ठ लोगों का जन समुद्र उमड़ा पड़ा था। मुण्ड़ ही मुण्ड़, ऐसा लग रहा था कि सारे भारत से लोग उज्जैन की ओर ही चले आ रहे हों। समयाभाव के कारण ज्यादा घूमना नहीं हो पाया था, फिर भी महाकाल के दर्शनों के बाद पांतजली आश्रम और मंगल ग्रह की जन्म स्थली मंगलनाथ के दर्शन जरूर कर लिये। उस बारे में फिर लिखुंगा, आज कुछ और ही बताना चाहता हूं।
पहले जब उज्जैन गया था और अब के वाले शहर में जमीन आसमान का फर्क होना ही था। इतना लंबा समय जो पसर गया है बीच में। पहले प्रभू के दर्शन आप उनके गले मिल कर भी कर सकते थे, अब करीब पचास फुट दूर से ही नमस्कार करना पड़ता है। आबादी बेहिसाब बढ गयी है। क्षिप्रा जैसी पवित्र नदी नाले के रूप को प्राप्त हो गयी है। पानी की किल्लत इतनी ज्यादा है कि नगर निगम हर चौथे दिन ही घरों में पानी पहुंचा पाता है। पहले यह अवधी दो दिनों की थी फिर इसे तीन दिन किया गया जो अब चार दिनों की हो गयी है। भविष्य में भी राहत नज़र नहीं आती गर्मियों में यह मियाद और बढने की आशंका से नागरिक चिंतित हैं। ऊपर से चार-चार घंटों का पावर-कट। जरा सोच कर देखिये यही दशा सारे देश की हो सकती है। इसीलिये समय रहते सरकारों का मुह जोहने से पहले हमें खुद भी प्रकृति प्रदत्त इस अनमोल अमृत को सहेजने के उपाय करने होंगे। जैसा कि मैनें वहां के लोगों से बात-चीत करने पर पाया, बहुत सारे परिवार शहर छोड़ कहीं और बसने का मन बना रहे हैं। पर इस बात की क्या गारंटी है कि और जगहों का ऐसा हाल नहीं होगा ? पांच-सात माह पहले इंटर-नेट पर ही देखा था किसी अफ्रिकी देश का हाल, जहां एक बोर्ड़ लगा हुआ था potable water on tuesday only तब यह अंदाज नहीं था कि यह विनाशकारी दशा हमें भी इतनी जल्दी अपने पाश में जकड़ लेगी।
हालांकि इंड़ियन वाटर पोर्टल पर अनुपम जी की पोस्ट देखता रहता हूं। पर उनकी जटिल प्रक्रिया के कारण उन्हें कभी कुछ कह नहीं पाया। उनके लेखों से काफी जानकारी मिलती रहती है। पर पढने और अनुभव करने में बहुत फर्क होता है। यह तो महाकाल की नगरी जा कर ही जान पाया।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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8 टिप्पणियां:
महाकाल की नगरी की इस दशा को जानकर बहुत दुःख हो रहा है. भूजल प्रबंधन के माध्यम से ही कोई राहत की आस बन सकती है. अब यह स्थिति केवल उज्जैन की ही न होकर लगभग सभी शहरों की होती जा रही है जिसके लिए हम सब ही दोषी हैं. पर्यावरण की घोर उपेक्षा का परिणाम है.
बात तो आपकी ठीक है, लेकिन संभव दोनों में से एक भी नहीं दिखता. सरकारें कहती हैं कि जनता सुधरे और जनता कहती है कि सरकार सुधरे. नतीजा सिफर. क्या कुछ ऐसा नही होसकता कि दोनो के सुधार का कार्यक्रम एक साथ शुरू किया जाए.
बहुत सुन्दर बात ऊठाई आपने जल प्रबन्धन के विषय मे.आभार आपका.
रामराम.
उज्जैन में जल आपदा को तो समय हो गया। अब तो लोगों को इसकी अदत ही हो गई है।
उज्जैन ही नही भारत के हर शहर का यह हाल है, लेकिन इस के पीछे अभी प्रक्रतिक अपदा नही, क्योकि भारत मै अब भी पानी की कमी नही है, कमी है तो सिस्टम की, देख भाल की, लोग भी इस ओर ध्यान नही देते, नदीयो को नाले बनाने पर तुले है, बरसातो मे इतना पानी होता है कि हम उसे पुरे साल के लिये रख सकते है, लेकिन नही बरसातो मे बाढ से मरते है, गर्मियो मे सुखे से,ओर अब सब को आदत पढ गई है.
धन्यवाद
बहुत बढ़िया संस्मरण प्रस्तुत करने के लिए आभार
बहुत दुखद स्थिति है. इसका निराकरण करने के लिए एक "केंद्रीय जल प्राधिकरण" की बहुत ज़रूरत है जिसके पास देश भर के जल का स्वामित्व हो और जो इसके संशोधन, प्रबंधन, वितरण और विक्रय के लिए जिम्मेदार हो. हर नगर पालिका इससे जल ले सके. जिस शहर में जल की कठिनाई हो वहाँ के जन-प्रतिनिधि और अधिकारी (IAS) जिम्मेदार माने जाएँ.
bahut mahatvpooran vishay par aavaj uthaai hai kyaa karennaa sarkaar sudhregi na janta jagruk ho rahi hai magar aap jaise jagruk naagrik jaroor ek kranti laa sakte hain
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