शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

एनिवर्सरी :- सिल्वर, गोल्ड, डायमंड के अलावा भी नाम हैं.

एनिवर्सरी या वार्षिकोत्सव ज्यादातर 25वीं सिल्वर या रजत, 50वीं गोल्ड या स्वर्ण और 60वीं डायमंड के रूप में ही जानी जाती हैं जब कि इनका नामकरण 'पहली' से निम्नानुसार जाना जाता है। जैसे :-
First : Paper, Second : Calico,
Third : Leather, Fourth : Silk,
Fifth : Wood, Sixth : Iron
Seventh : Sandle wood, Eighth : Bronze
Ninth : Pottery, Tenth : Tin
Fifteenth : Crystal, Twentieth : China
Twe.fifth : Silver, Thirtieth : Pearl
Thi.fifth : Jade, Fortieth : Ruby
F. fifth : Sapphire, Fiftieth : Gold
F. fifth : Emerald, Sixtieth : Diamond
इस बारे में और ज्यादा जानकारी हो तो जानना चाहूंगा।

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

समाधी, तथ्य क्या है?

बहुत बार सुनने में आता है कि किसी जादुगर ने जमीन के नीचे इतना समय बिताया या किसी साधू ने भूमि में समाधी लगाई। तो आश्चर्य चकित रह जाते हैं लोग। कोई इसे दैवी शक्ति बताता है और कोई कुछ और। पर विज्ञान क्या कहता है देखें -------
भू समाधी के लिये सबसे बड़ी जरूरत होती है अभ्यास की। इसके लिये एक कमरेनुमा स्थान बनाया जाता है, जिसमें आराम से बैठा जा सके। कमरे को पानी से सींच कर दिवारें चूने से पोत दी जाती हैं। फिर उसमें दीया जला कर आक्सीजन गैस की मात्रा देख ली जाती है। समाधी लेने वाले के प्रवेश के बाद गड्ढे की छत को बांस-टाट आदि से ढ़क कर मिट्टी गोबर आदि से पोत दिया जाता है।
वैज्ञानिक आकलन के अनुसार दस फिट लंबे, दस फिट चौडे तथा दस फिट गहरे (10x10x10) गड़्ढे में 1000 घन फिट हवा रहती है। जबकि एक स्वस्थ आदमी को एक घंटे में सिर्फ 5 घन फिट हवा की जरूरत पड़ती है। जिसका सीधा अर्थ है कि उस आकार के गडढे में एक इंसान 200 घंटे यानि 8 दिन तक रह सकता है। इसके साथ-साथ विश्राम की अवस्था में श्वसन में भी कम वायू की जरूरत होती है। इसके अलावा कमरे की मिट्टी भी भुरभुरी रहती है जिससे सुक्ष्म मात्रा में ही सही, वायू का आवागमन बना रहता है। सो समाधी के लिये दृढ इच्छाशक्ति और अभ्यास के साथ-साथ मानसिक संतुलन बनाए रखना जरूरी होता है।
समाधी की तुलना अंतरिक्ष यात्रियों, टैंक में बैठे फौजियों तथा पनडुब्बियों में रहने वाले सैनिकों से की जा सकती है। काम कठिन है पर अभ्यास से संभव है।

मंगलवार, 24 फ़रवरी 2009

हँसना नहीं है तो मुस्कुराईये तो सही

पोता दादा जी से जिद कर रहा था सर्कस दिखाने की। चलिए ना दादा जी सर्कस में नयी-नयी चीजें दिखा रहे हैं। हाथी और गैंडा फुटबाल खेलते हैं। जोकर बहुत हंसाते हैं। पर दादा जी मान ही नहीं रहे थे, क्या बिटवा वही सब पुराने खेल हैं। पोता भी कहां मानने वाला था बोला सुना है इस में ढेर सारे घोड़े ताल में नाचते हैं। दादा जी भी नहीं मान रहे थे बोले देख तो रहे हो मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है। पर पोता भी अड़ा हुआ था, बताने लगा, उपर झूले में एक साथ दस जने झूलते हैं और अबकी चीन से लड़कियां आयीं हैं जो छोटे-छोटे कपड़ों में पोल डांस करती हैं।
दादा जी उठे बोले चल इतनी जिद करता है तो चले चलता हूं। मैने भी घोड़ों को ताल पर नाचते नहीं देखा है।
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गांव के गरीब किसान दुखीराम की दस लाख की लाटरी निकल आयी। ये खबर ले कर आने वाला एजेंट सोच रहा था कि इतनी बड़ी राशि मिलने की बात सुन कर कहीं दुखीराम को हार्ट अटैक ना हो जाये इस लिये उसने एक योजना बनाई।
दुखीराम के पास जा कर उसने कहा कि दादा यदि आप को एक लाख रुपये मिल जायें तो क्या करोगे ? दुखीराम बोला भाई घर का छप्पर ठीक कराउंगा, एक-दो बैल ले लुंगा। अच्छा दादा पांच लाख मिले तो क्या करोगे ? बिटिया की शादी कर दूंगा। अच्छा दादा यदि तुम्हें दस लाख रुपये मिल जायें तो क्या करोगे ? दस लाख!!! दुखीराम बोला, दस लाख मिल जायेंगे तो आधे तुम्हें दे दूंगा।
इतना सुनना था कि एजेंट का हार्ट फेल हो गया।

सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

लोहार्गल, जहाँ पांडवों के हथियार गले थे.

महाभारत युद्ध समाप्त हो चुका था, पर पांडव स्वजनों की हत्या के पाप से व्यथित थे। श्री कृष्ण के निर्देश पर वह सभी तीर्थ स्थलों के दर्शन करते भटक रहे थे। श्री कृष्ण ने उन्हें बताया था कि जिस तीर्थ में तुम्हारे हथियार पानी में गल जायेंगे वहीं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण होगा। घूमते-घूमते पांण्ड़व लोहार्गल आये तथा जैसे ही उन्होंने यहां के सूर्य कुंड़ में स्नान किया उनके सारे हथियार गल गये। उन्होंने इस स्थान की महिमा को समझ इसे तीर्थ राज की उपाधी से विभूषित किया। फिर शिव जी की आराधना कर मोक्ष की प्राप्ति की।
राजस्थान के शेखावटी इलाके के झुंझुनूं जिले से 70 कि. मी. दूर आड़ावल पर्वत की घाटी में बसे उदयपुरवाटी कस्बे से करीब दस कि.मी. की दूरी पर स्थित है लोहार्गल। जिसका अर्थ होता है जहां लोहा गल जाए। पुराणों में भी इस स्थान का जिक्र मिलता है। पहले यहां सिर्फ साधू-सन्यासी ही रहा करते थे, पर अब गृहस्थ लोग भी रहने लगे हैं। यहां एक बहुत विशाल बावड़ी है जो महात्मा चेतन दास जी ने बनवाई थी, यह राजस्थान की बड़ी बावड़ियों में से एक है। साथ के पहाड़ पर प्राचीन सूर्यमंदिर बना हुआ है। साथ ही वनखंड़ी जी का मंदिर है। कुंड़ के पास ही प्राचीन शिव मंदिर, हनुमान मंदिर तथा पांड़व गुफा स्थित है। इनके अलावा चार सौ सीढियां चढने पर मालकेतु जी के दर्शन किये जा सकते हैं। यहां समय-समय पर मेले लगते रहते हैं। हज़ारों नर-नारी यहां आ कुण्ड़ में स्नान कर पुण्य लाभ प्राप्त करते हैं।
लोहार्गल एक प्राचीन, धार्मिक, ऐतिहासिक स्थल है। लोगों की इसके प्रति अटूट आस्था भी है। भक्तों का यहां आना-जाना लगा रहता है फिर भी इस क्षेत्र की हालत सोचनीय है। सरकार की ओर से पूर्णतया उपेक्षित इस जगह पर प्राथमिक सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं हैं। चारों ओर गंदगी का आलम है। पशु-मवेशी खुले आम घूमते रहते हैं। सड़कों की हालत दयनीय है। नियमित बस सेवा भी उपलब्ध नहीं है। रहने खाने का भी कोई माकूल इंतजाम नहीं है। यदि इस ओर थोड़ा सा भी ध्यान पर्यटन विभाग दे तो यहां देशी-विदेशी पर्यटकों का आना शुरु हो सकता है।

अब तो हम भी आस्कर वाले हो गए हैं

चलो आखिर आस्कर मिल ही गया। उनको भी सकून मिलेगा जो शहर के अंदेशे से परेशान रहते थे। उनको भी जिन्हें इसके अब तक छलने का गम होता रहता था। वे तो बहुत ही खुश होंगे जिनके लिये हर बेहतरीन चीज तब तक कोई पहचान नहीं रखती जब तक पश्चिम का ठप्पा ना लग जाए।
फिर भी रहमान और गुलज़ार साहब को उनकी मेहनत, समर्पण, लगन तथा उत्कृष्टता के लिये सम्मान मिला, पहचान मिली विश्व स्तर पर, तो हम भी तो गौर्वान्वित हुए ही हैं। ये आस्कर वाले वर्षों से हमें पूर्वाग्रहों के कारण नकारते चले आ रहे थे पर प्रतिभा को कब तक नज़रंदाज़ किया जा सकता है।
जय हो, जय हो

"आप सब को महा शिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं"

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

जल चिकित्सा, कई रोगों का आसान इलाज.

आज जबकि किसी भी रोग की चिकित्सा कराना दिनों-दिन मंहगा होता चला जा रहा है, वहीं दसियों साल पहले "जापानी रोग संघ" द्वारा एक सरल, सुलभ तथा तकरीबन मुफ्त की चिकित्सा विधि बतलाई गयी थी। जिसका नाम है "जल-चिकित्सा"। संघ द्वारा प्रकाशित लेख में बताया गया है कि यदि जल-उपचार को विधिपूर्वक किया जाए तो बहुत से कठिन रोगों से छुटकारा पाया जा सकता है।
विधी :- सबेरे सोकर उठते ही बिना ब्रश किये या मुंह धोये एक साथ चार गिलास, करीब ड़ेढ लीटर, पानी पीना होता है। इसके बाद 40-45 मिनट तक कुछ भी खाना या पीना नहीं नहीं चाहिए। हां ब्रश वगैरह कर सकते हैं। इस उपचार के दौरान किसी भी भोजन (नाश्ता, दोपहर या रात्रि भोजन) के बाद कम से कम दो घंटे तक पानी नहीं पीना चाहिए। इसके अलावा सोने के पहले कुछ भी खाने की मनाही है। दिन भर अपनी जरूरत के अनुसार जल ग्रहण किया जा सकता है।
जो लोग एक साथ चार गिलास पानी नहीं पी सकते हों उन्हें एक या दो गिलास से शुरु कर धीरे-धीरे चार गिलास तक पहुंचना चाहिए। पर प्रक्रिया को बीच में खत्म नहीं करना चाहिए। इस उपचर को कोई भी अपना सकता है वह चाहे स्वस्थ हो या बीमार। यह एक साधारण उपचार विधि है, जिस पर कोई लागत नहीं आती। चार गिलास पानी पीने से कोई विपरीत प्रभाव भी नहीं पड़ता। केवल प्रकृति की पुकार बढ जाती है वह भी 2-3 बार के लिए, फिर वह आदत में शुमार हो जाती है।
जापानी रोग संघ के अनुसार निम्न रोगों को समाप्त होने में दिया गया संभावित समय लगता है - -
1, उच्च रक्तचाप :- 1 माह,
2, मधुमेह :- 1 माह,
3, कैंसर :- 1 माह,
4, आमाशायी रोग :- 10 दिन,
5, कब्ज :- 10 दिन,
6, क्षय रोग :- 3 माह,
आज तो हर चिकित्सक ज्यादा से ज्यादा पानी पीने की सलाह देता है, तो एक बार आजमाने में कोई दिक्कत भी नहीं है सिर्फ नियम बद्ध हो कर और थोड़ा विश्वास रखते हुए शुरु करने भर की देर है। मैं तो शुरु हूं आप भी हो जाईये।

पंचकेदार, जिनका स्मरण ही काफी है.

हिमालय की विस्तार स्थली का केन्द्र है "गढवाल मंड़ल"। भारतवर्ष का पवित्रतम स्थान। पुराणों के अनुसार एक बार शिव जी घूमते-घूमते यहां पहुंचे और यहां की सुंदरता से प्रभावित हो कर यहीं के हो कर रह गये। उन्हीं के नाम से यहां का नाम "केदार खंड" या "केदारभूमी" कहलाया।
शिवपुराण के अनुसार वर्षों बाद महाभारत युद्ध के बाद स्वजनों की हत्या के पाप से मुक्त हो मोक्ष की प्राप्ति के लिये पांडव शिव जी को खोजते-खोजते यहां भी पहुंच गये। उनसे बचने के लिए शिव जी महिष का रूप धर भूमि में समाने लगे। परन्तु महाबली भीम ने उन्हें देख कर पहचान लिया और महिष रूपी शिव की पूंछ पकड़ ली तथा सभी पांडवों ने उनकी पूजा-अर्चना कर उन्हें प्रसन्न कर लिया। शिव जी ने पांडवों को उनके पापों से मुक्त कर दिया। उसी समय से शिव जी का पिछला भाग केदारनाथ में केदारलिंग के रूप में पूजित है।
महिषरूपी शिव जी के अन्य भाग कालांतर में गढवाल में ही रुद्रनाथ, तुंगनाथ, मध्यमहेश्वर तथा कल्पेश्वर में प्रगट हुए और यह पांचों स्थान पंचकेदार के नाम से प्रसिद्ध हुए।
पंचकेदार के दर्शन अपने आप में सैंकडों तीर्थों की यात्रा का पुण्य प्रदान करते हैं।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

देवताओं ने किसी को भी नहीं बक्शा

भक्त प्रह्लाद। भगवान का परम भक्त । भक्ति भी ऐसी कि उसके पिता को अपनी जान गंवानी पड़ी। उसी का बेटा विरोचन और विरोचन का बेटा बलि। बलि यानि प्रह्लाद का पोता। उसके जैसा दानी, पराक्रमी, प्रजा पालक शयाद ना हुआ ना होगा। तीनों लोकों का विजेता। देवता फिर संशकित अपने प्रभुत्व को बचाने के लिये विष्णु जी की शरण में गये। भगवान ने वामन रूप धरा और दो पगों में धरती-आकाश नाप लिये तीसरे पग के लिये बलि ने अपनी पीठ नपवा दी। फिर एक बार छल की जीत हुई। बलि को पाताल भेज दिया गया और स्वर्ग फिर देवताओं को मिल गया।
यह नहीं देखा गया कि प्रह्लाद का क्या योगदान था या बलि का कसूर ही क्या था

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

सांदीपनी आश्रम, जहां श्री कृष्ण और सुदामा ने शिक्षा ग्रहण की

समयाभाव के कारण उज्जैन प्रवास के दौरान सांदीपनी आश्रम की जानकारी विस्तार से नहीं ले पाया था। फिर भी इसके बारे में कुछ खास बातें सामने रख रहा हूं। यह वही पावन जगह है जहां श्री कृष्ण जी ने अपने बड़े भाई बलराम जी और अपने मित्र सुदामा के साथ अपनी प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त की थी। यह उज्जैन शहर से करीब तीन की.मी. की दूरी पर मंगलनाथ मंदिर के पहले स्थित है। आज भी शहरी कोलाहल से दूर हरे-भरे खेतों के बीच स्थित यह आश्रम मन को बहुत सकून पहुंचाता है।

आश्रम के अंदर बहुत सारे प्राचीन दर्शनीय स्थल हैं। जैसे गुरु की पूजा स्थली, श्री कृष्ण-सुदामा विद्यास्थान, सर्वेश्वर महादेव मंदिर, वल्लभ निकुंज, कुण्ड़लेश्वर महादेव मंदिर, गोमती कुंड इत्यादि। श्री कृष्ण विद्या स्थली में श्री कृष्ण, बलराम जी और सुदामा जी की मुर्तियां इतनी सुंदर हैं कि उन्हें सिर्फ देख कर ही महसूस किया जा सकता है। एकदम जिवंत लगती हैं, जैसे अभी बोल उठेंगी। वहीं पास में गुरु पातंजली की भव्य प्रतिमा स्थापित है। पर सबसे दर्शनीय है कुण्डलेश्वर महादेव जी का प्राचीन मंदिर। यहां मैने दो बातें सबसे अनोखी और जीवन में पहली बार देखीं। एक तो स्वयंभू शिव लिंग पर लिपटे सर्प की प्राकृतिक आकृति जो लिंग के साथ ही बनी हुई है, अलग से नहीं लगाई गयी है। दूसरे द्वार पर स्थित नंदी महाराज की प्रतिमा जो खड़ी अवस्था में है। मैंने सभी शिवालयों में नंदी को बैठे हुए ही पाया था, यहां पहली बार उन्हें खडे हुए देखा। आश्रम के पिछवाड़े एक गहरी बावड़ी है फिलहाल उसमें भी जल की मात्रा बहुत कम दिखी।

मेरा जाना 26 जनवरी को हो पाया था। उस दिन सूर्य ग्रहण और मौनी अमावस्या होने के कारण सब जगह बड़ी भीड़ थी सो पूरी जानकारी हासिल करने में सफल नहीं हो पाया था, इसका अफसोस रहेगा। पर एक बार फिर जा कर इतिहास खगांलने का पक्का इरादा है।

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

अपने देश को देखने के लिए भी कहीं-कहीं सरकारी अनुमती चाहिए.

जी हां, यदि आप पूरा भारत देखने निकले हैं तो कम से कम सात जगहों के लिये आप को सरकारी इजाजत लेने की जरूरत पड़ेगी।
1, लक्षद्वीप :- करीब 32 कि.मी. के इस केंद्र शासित प्रदेश में 36 द्वीपों का समूह समाया हुआ है। जिनमें सिर्फ 10 पर लोग रहते हैं। बाकी जगह पीने के पानी का अभाव है। इसकी राजधानी कावारति है। यहां के सूर्य तथा चंद्रोदय के दृश्य बहुत मनोहारी होते हैं। यहं जाने के लिये परमिट कोच्ची में लक्षद्वीप के प्रशासक के दफ्तर से लिया जा सकता है।
2, अरुणाचल प्रदेश :- भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर स्थित यह एक स्वर्गिक स्थान है। भारत की मुख्य भूमी पर सूर्य की किरणें सर्वप्रथम यहीं की धरती को चूमती हैं। इसकी राजधानी ईटानगर है। यह रेलमार्ग से तो नहीं पर वायू तथा सड़क मार्ग से शेष भारत से जुड़ा हुआ है। यहां जाने के लिये इनर लाईन परमिट लेना पड़ता है।
3, सिक्किम :- यहां की राजधानी गैगंटाक है। यहीं से घूमने के लिये पुलिस की अनुमति लेनी पड़ती है। यहां कैमरा ले जाना भी मना है।
4, मिजोरम :- इस जनजातीय प्रदेश में लुसाई भाषा बोली जाती है। जिसमें मिजोरम का अर्थ होता है ऊंची भूमी या देश में रहने वाले मनुष्य। इसकी राजधानी आईजोल है। यहां भी बस या विमान द्वारा ही जाया जा सकता है।
5, नागालैंड :- इसकी राजधानी कोहिमा है। यहां जाने के लिये इनर लाईन परमिट लेना पड़ता है। यह महाभारत में वर्णित अर्जुन की पत्नी उलूपी का देश है।
6, खुर्दग ला :- अठारह हजार सात सौ फुट की उंचाई पर स्थित यह जगह चीन की सीमा से लगी हुई है। यह लेह से करीब 46 कि.मी. दूर है। यहीं से यहां का परमिट मिलता है। पर विदेशियों का प्रवेश प्रतिबंधित है। यह अत्यंत दुर्गम स्थान है। यहां संसार की सबसे ऊंची सड़क तथा सबसे ऊंचा पुल है।
7, अंडमान निकोबार द्वीपसमूह :- बंगाल की खाड़ी में स्थित यह जगह अंग्रेजों के जमाने में काला पानी के नाम से जानी जाती थी। अंडमान जाने के लिये भारतियों को इजाजत नहीं लेनी पड़ती पर निकोबार के लिये वहां किसी रिश्तेदार या नौकरी का प्रमाण पत्र देना पड़ता है। ऐसा वहां की जनजातियों और सैनिक सुरक्षा के कारण किया जाता है। भारत में सबसे पहले सूर्योदय मुख्य भूमी के अरुणाचल से भी पहले यहां के काचाल द्वीप में होता है।
इन जगहों पर प्रतिबंध इस लिये है क्यों कि यह सारे क्षेत्र सीमावर्ती हैं और फिर जनजातियों के निवास स्थान हैं, जिनकी पहचान को बचाये रखना भी बहुत जरूरी है। इसके अलावा ज्यादा आवाजाही से प्रकृति से छेड़खानी का खतरा भी बढ जाता है।

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

क्या आपने ऐसे विज्ञापन देखे हैं?

कभी-कभी कुछ ऐसा देखने को मिल जाता है टी.वी. पर दिखाये जाने वाले विज्ञापनों में कि समझ नहीं आता कि हम बावले हैं या सामने वाला। दो-तीन नमूने पेश हैं -

1, एक जाने-माने शैंपू का विज्ञापन :- एक मां अपनी बच्ची को क्रिकेट सिखाने के लिये कोच के पास लेकर जाती है। बजाय इसके कि कोच साहब उसके खेल के बारे में पूछ-ताछ करें, उन्हें बालिका के बालों की चिंता होती है। कहते हैं इसके बाल खराब हो जायेंगे। मां जवाब देती है, आप तो इसके खेल पर ध्यान दें बालों की फिक्र मैं कर लूंगी।

2, एक कपड़े धोने के साबुन का विज्ञापन :- क्रिकेट खेलते बच्चों की बाल से एक महोदय की खिड़की का शीशा टूट जाता है। गुस्से में महोदय दंड़ देने लगते हैं तो बाल लेने आया लड़का गलती की माफी मांगने के बदले ढिठता से कहता है कि दूसरी बाल भी इधर ही आयेगी। जिनका शीशा टूटा था इस पर खुश हो उसकी उजली कमीज का कालर ठीक कर उसे शाबाशी दे विदा करते हैं और लड़का अकड़ता हुआ चल देता है।

3, एक कंस्ट्रक्श्न कंपनी का विज्ञापन :- एक बच्चा एक बच्ची को एक डैम के पास लाता है और बच्ची से कहता है इसे मैने बनाया। बच्ची आश्चर्य से पूछती है, इतना बड़ा !!
बच्चा डैम से पानी छोड़ने के समय को जानते हुए बच्ची को धोखे में रख कहता है कि यह मेरी बात सुनता है। उसी समय डैम से पानी आना शुरु हो जाता है। बच्ची अवाक रह जाती है और पीछे से आवाज आती है कि ऐसी बड़ी-बड़ी बातें हम आसानी से कर जाते हैं (या इन्हीं शब्दों के मिलते-जुलते अर्थ का वाक्य)
इसका अर्थ यह भी निकलता है कि हम ऐसे ही लोगों को बेवकूफ बनाते रहते हैं।

ऐसे विज्ञापनों को देख समझ नहीं आता कि हसें या रोयें।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

संता का दृष्टिकोण

बात कुछ पुरानी है पर इतनी भी नहीं कि हम सब भूल चुके हों। कहानी एक गांव की है। उस गांव में एक अनाथ लड़का रहता था। वह बड़ा ही हुड़दंगी था। दिन भर अवारागर्दी करना लोगों को तंग करना ही उसका शगल था। उसके कारण सारे गांव के नाक में दम रहता था। एक बार बड़े-बुढों ने उसे समझा बुझा कर गांव के दुधारु पशुओं को चराने का काम सौंप दिया। अब वह दिन भर ढोरों के साथ जंगल में घुमता रहता। इससे गांव वालों को भी राहत मिली और उसे भी खाने पीने का आराम हो गया। पर कहते हैं ना कि बंदर कैसा भी हो गुलाटी मारना नहीं भूलता, सो एक दिन ऐसे ही उस लड़के के दिमाग में फिर गांव वालों को तंग करने की सूझी। बस फिर क्या था, वह एक पेड़ पर चढ गया और लगा जोर-जोर से चिल्लाने कि शेर आया, शेर आया। उसकी आवाज सुन पास के खेतों में काम करते लोग लाठी बल्लम ले दौड़े आए। उन्हें देख लड़का ढीठाई से हंसने लगा। गांव वाले उसे गरियाते हुए वापस चले गये। लड़के को एक नया खेल मिल गया। तीन चार दिन बाद उसने फिर वैसी ही गुहार फिर लगाई। भोले-भाले गांव वाले कुछ अनिष्ट ना हो जाए यह सोच फिर उसकी सहायता को चले आए पर फिर उन्हें बेवकूफ बनना पड़ा। एक दो बार फिर ऐसा ही हुआ और गांव वासियों को बेवकूफ बना वह लड़का मजा लेता रहा। एक दिन सचमुच राह भटक कर एक शेर उधर आ निकला। शेर को सामने देख लड़के के देवता कूच कर गये। किसी तरह दौड़ कर पेड़ पर चढ कर उसने अपनी जान बचा ली। वहां से उसने पचासों आवाजें लगाईं पर गांव वाले इसे उसकी शरारत समझ उस ओर नहीं आए और शेर एक बछड़े को उठा जंगल में गुम हो गया।
यह कहानी मैने संता को सुनाई और पूछा कि संते इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है। संता ने झट से जवाब दिया,सर जी, झूठे का सब विश्वास करते हैं सच को कोई घास नहीं ड़ालता।

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मंगलनाथ, जहाँ मंगल ग्रह का जन्म हुआ था.

स्कन्द पुराण के अनुसार किसी जमाने में अवंतिका पुरी ( उज्जैन ) पर अंधक नामक दैत्य राज किया करता था। उसने घोर तपस्या कर वरदान प्राप्त कर लिया था कि अगर मेरे रक्त की बूदें जमीन पर गिरें तो उससे अनेकों दैत्य उत्पन् हो जायें। इस वरदान के मिलने पर अधंकासुर ने चारों ओर आतंक मचाना शुरु कर दिया। सब तरफ त्राही-त्राही मच गयी। तब सभी लोग त्रस्त हो कर भगवान शिव की शरण में गये और उनसे इस विपत्ती से छुटकारा दिलाने की प्रार्थना करने लगे। प्रभू ने सबको सांत्वना देते हुए अधंकासुर को ललकारा। घमासान युद्ध के पश्चात अधंकासुर का नाश हुआ। युद्ध के दौरान भगवान शिव के मस्तक से पसीने की बुंद धरती पर गिरी जिसके संयोग से पृथ्वी के गर्भ से मंगल ग्रह की उत्पत्ति हुई उसी समय उसी स्थान पर ब्रह्मा जी द्वारा उन्हें शिव पिण्ड़ के रूप में स्थापित कर दिया गया। देवताओं और ब्राह्मणों द्वारा पूजित यह स्थान वर्तमान में मंगलनाथ के नाम से सारे भारत में प्रसिद्ध है। उज्जैन शहर से चार-पांच की.मी. की दूरी पर क्षिप्रा नदी के किनारे हरे-भरे स्थान पर स्थित यह मंदिर अद्भुत शांति और सकून प्रदान करता है।

भानू परिवार का यहां हर मंगलवार को जाना होता है। सो उसी के सौजन्य से हमें भी इस अनोखी जगह के दर्शनों का लाभ प्राप्त हो गया। जब क्षिप्रा अपने पूरे सौंदर्य के साथ मंदिर के पिछवाड़े से कल-कल ध्वनी कर गुजरती होगी तो आने वाले भक्तों, पर्यटकों को स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति होती होगी। आज इस पवीत्र नदी के ठहरे गंदे काले रंग के पानी जिसमें जहां-तहां जलकुम्भीयां उगी हुए हैं, को देख मन ग्लानी से भर उठता है, क्योंकि उसको इस रूप में पहुंचाने के हम सभी जिम्मेवार हैं। फिर भी कभी उज्जैन यात्रा पर आयें तो मगलनाथ के भी दर्शन जरूर करें।

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

उज्जैन में पानी के लिए हाहाकार

पिछले दिनों करीब 20-22 सालों के बाद महाकाल की नगरी उज्जैन जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। हालांकि जाने का कार्यक्रम निहायत व्यक्तिगत था पर संयोगवश दिन मौनी अमावस्या तथा सूर्य ग्रहण के पड़ रहे थे। इस बार प्रवास का सारा भार मेरे प्रिय भाई स्वरुप मित्र, अशोक जी के सुपुत्र भानू ने संभाल रखा था। उन्हीं के सुझाव से महाकाल के दर्शन सोमवार 26 जनवरी को ना कर एक दिन पहले रविवार को ही कर लिये थे। सोमवार के दिन तो ठट्ठ के ठट्ठ लोगों का जन समुद्र उमड़ा पड़ा था। मुण्ड़ ही मुण्ड़, ऐसा लग रहा था कि सारे भारत से लोग उज्जैन की ओर ही चले आ रहे हों। समयाभाव के कारण ज्यादा घूमना नहीं हो पाया था, फिर भी महाकाल के दर्शनों के बाद पांतजली आश्रम और मंगल ग्रह की जन्म स्थली मंगलनाथ के दर्शन जरूर कर लिये। उस बारे में फिर लिखुंगा, आज कुछ और ही बताना चाहता हूं।
पहले जब उज्जैन गया था और अब के वाले शहर में जमीन आसमान का फर्क होना ही था। इतना लंबा समय जो पसर गया है बीच में। पहले प्रभू के दर्शन आप उनके गले मिल कर भी कर सकते थे, अब करीब पचास फुट दूर से ही नमस्कार करना पड़ता है। आबादी बेहिसाब बढ गयी है। क्षिप्रा जैसी पवित्र नदी नाले के रूप को प्राप्त हो गयी है। पानी की किल्लत इतनी ज्यादा है कि नगर निगम हर चौथे दिन ही घरों में पानी पहुंचा पाता है। पहले यह अवधी दो दिनों की थी फिर इसे तीन दिन किया गया जो अब चार दिनों की हो गयी है। भविष्य में भी राहत नज़र नहीं आती गर्मियों में यह मियाद और बढने की आशंका से नागरिक चिंतित हैं। ऊपर से चार-चार घंटों का पावर-कट। जरा सोच कर देखिये यही दशा सारे देश की हो सकती है। इसीलिये समय रहते सरकारों का मुह जोहने से पहले हमें खुद भी प्रकृति प्रदत्त इस अनमोल अमृत को सहेजने के उपाय करने होंगे। जैसा कि मैनें वहां के लोगों से बात-चीत करने पर पाया, बहुत सारे परिवार शहर छोड़ कहीं और बसने का मन बना रहे हैं। पर इस बात की क्या गारंटी है कि और जगहों का ऐसा हाल नहीं होगा ? पांच-सात माह पहले इंटर-नेट पर ही देखा था किसी अफ्रिकी देश का हाल, जहां एक बोर्ड़ लगा हुआ था potable water on tuesday only तब यह अंदाज नहीं था कि यह विनाशकारी दशा हमें भी इतनी जल्दी अपने पाश में जकड़ लेगी।
हालांकि इंड़ियन वाटर पोर्टल पर अनुपम जी की पोस्ट देखता रहता हूं। पर उनकी जटिल प्रक्रिया के कारण उन्हें कभी कुछ कह नहीं पाया। उनके लेखों से काफी जानकारी मिलती रहती है। पर पढने और अनुभव करने में बहुत फर्क होता है। यह तो महाकाल की नगरी जा कर ही जान पाया।

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...