शम्मी कपूर! जी हां, शम्मी कपूर। बहुत से लोगों को यह जान कर हैरत होगी कि शम्मीजी 1988 से कम्प्यूटर और इंटरनेट का लगातार इस्तेमाल करते आ रहे हैं। इस तरह भारत में इस टेक्नोलोजी का सबसे पहले उपयोग करने वाले इने-गिने लोगों में उनका स्थान है। आज यह 80 वर्षीय इंसान फ़िल्म जगत का सबसे अधिक पारंगत कम्प्यूटर यूजर है।
जब पहली बार वे कम्प्यूटर और प्रिंटर घर लाए थे तो दिन भर उस पर अपने प्रयोग करते रहते थे। एक बार उनके दामाद केतन देसाई के साथ अनिल अंबानी उनके घर आए तो सारा ताम-झाम देख कुछ समझ ना पाये और पूछ बैठे कि क्या शम्मी अंकल ने घर पर ही डेस्क-टाप पब्लिशिंग शुरू कर दी है। इतने बडे ओद्योगिक समूह रिलायंस के अनिल अंबानी द्वारा ऐसा सवाल यह दर्शाता है कि उस जमाने में पर्सनल कम्प्यूटर नाम की किसी चीज से लोग कितने अनभिज्ञ थे। इसीसे यह तथ्य भी पुख्ता होता है कि शम्मीजी भारत में कम्प्यूटर और इंटरनेट के घरेलू उपयोग को बढ़ावा देने वाले रहे हैं। इसीलिए उन्हें भारत का पहला इंटरनेट गुरू या साइबरमैन कह कर पुकारा जाता है। इसी शौक से उन्हें अपने पचास साल पुराने दोस्त, जो विभाजन के पश्चात पाकिस्तान चले गये थे, से संपर्क साधने का मौका मिला और आज दोनो दोस्तों की फिर खूब छनती है इंटरनेट पर।
इस तकनीक को धन्यवाद जिसने इस दोस्ती को फिर जिंदा कर दिया। यही तकनीक आज बहुत से ऐसे लोगों को दुबारा मिलाने की जिम्मेदार है जो किन्हीं कारणों से एक दुसरे से बिछुड गये हैं।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
शुक्रवार, 29 अगस्त 2008
बुधवार, 27 अगस्त 2008
टेंशनाए हुए हैं क्या, हल्के ना हो लिजीए
एक पागल एक बिल्ली को रगड़-रगड़ कर नहला रहा था। एक भले आदमी ने उसे ऐसे करते देखा तो उससे बोला कि ऐसे तो बिल्ली मर जायेगी। पागल बोला नहाने से कोई नहीं मरता है। कुछ देर बाद वही आदमी उधर से फ़िर निकला तो कपड़े सुखाने की तार पर बिल्ली को लटकता देख पागल से बोला, देखा मैंने कहा था ना कि बिल्ली मर जायेगी। यह सुन पागल ने जवाब दिया कि वह नहलाने से थोड़ी ही मरी है, वह तो निचोड़ने से मरी है।
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एक सज्जन अपनी पत्नि का दाह-संस्कार कर लौट रहे थे। संगी साथी साथ-साथ चलते हुए उन्हें दिलासा देते जा रहे थे। इतने में मौसम बदलना शुरू हो गया। आंधी-पानी जैसा माहौल बन गया, बिजली चमकने लगी, बादल गर्जने लगे। सज्जन धीरे से बुदबुदाए - लगता है उपर पहुंच गयी। **************************************************************************************
पोता दादाजी से जिद कर रहा था कि शहर में सर्कस आया हुआ है हमें ले चलिए। दादाजी उसे समझा रहे थे कि बेटा सभी सर्कस एक जैसे ही होते हैं। वही जोकर, वही भालू, वही उछलते-कूदते लड़के। पर पोता मान ही नहीं रहा था। बोला, नहीं दादाजी मेरा दोस्त बता रहा था, इस वाले में लड़कियां बिकनी पहन कर घोड़ों की पीठ पर खड़े होकर डांस करती हैं। दादाजी की आंखों में चमक आ गयी। बोले, अब इतनी जिद करते हो तो चलो। मैंने भी एक अर्से से घोड़े नहीं देखे हैं।
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एक सज्जन अपनी पत्नि का दाह-संस्कार कर लौट रहे थे। संगी साथी साथ-साथ चलते हुए उन्हें दिलासा देते जा रहे थे। इतने में मौसम बदलना शुरू हो गया। आंधी-पानी जैसा माहौल बन गया, बिजली चमकने लगी, बादल गर्जने लगे। सज्जन धीरे से बुदबुदाए - लगता है उपर पहुंच गयी। **************************************************************************************
पोता दादाजी से जिद कर रहा था कि शहर में सर्कस आया हुआ है हमें ले चलिए। दादाजी उसे समझा रहे थे कि बेटा सभी सर्कस एक जैसे ही होते हैं। वही जोकर, वही भालू, वही उछलते-कूदते लड़के। पर पोता मान ही नहीं रहा था। बोला, नहीं दादाजी मेरा दोस्त बता रहा था, इस वाले में लड़कियां बिकनी पहन कर घोड़ों की पीठ पर खड़े होकर डांस करती हैं। दादाजी की आंखों में चमक आ गयी। बोले, अब इतनी जिद करते हो तो चलो। मैंने भी एक अर्से से घोड़े नहीं देखे हैं।
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गांव का एक लड़का अपनी नयी-नयी साईकिल ले, शहर मे नये खुले माल में घूमने आया। स्टैंड में सायकिल रख जब काफ़ी देर बाद लौटा तो अपनी साईकिल को काफ़ी कोशिश के बाद भी नहीं खोज पाया। उसको याद ही नहीं आ रहा था कि उसने उसे कहां रखा था। उसकी आंखों में पानी भर आया। उसने सच्चे मन से भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभू मेरी साईकिल मुझे दिलवा दो, मैं ग्यारह रुपये का प्रसाद चढ़ाऊंगा। दैवयोग से उसे एक तरफ़ खड़ी अपनी साईकिल दिख गयी। उसे ले वह तुरंत मंदिर पहुंचा, भगवान को धन्यवाद दे, प्रसाद चढ़ा, जब बाहर आया तो उसकी साईकिल नदारद थी।
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दो दोस्त घने जंगल में घूमने गये तो अचानक उनके पीछे भालू पड़ गया। दोनो जान बचाने के लिए भागने लगे। कुछ दूर दौड़ने पर एक ने दूसरे से कहा कि हम दौड़ कर भालू से नहीं बच सकते। दूसरे ने जवाब दिया भालू से कौन बच रहा है, मैं तो सिर्फ़ तुमसे आगे रहने की कोशिश कर रहा हूं।
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एक बहुत गरीब लड़का रोज पोस्ट आफ़िस आ कर वहां के कर्मचारियों से कहा करता था कि वे भगवान को एक पत्र लिख दें, जिससे वे उसे हजार रुपये भिजवा दें। क्योंकि उसने सुन रखा है कि प्रभू गरीबों की सहायता जरूर करते हैं। रोज-रोज उसकी हालत तथा प्रभू में विश्वास देख वहां के लोगों ने आपस में चंदा कर किसी तरह पांच सौ रुपये इकठ्ठा कर दूसरे दिन एक लिफाफे में रख यह कहते हुएउसको दे दिये कि भगवान ने तुम्हारे लिये मनीआर्डर भेजा है। लडके ने खुशी-खुशी लिफ़ाफ़ा खोल कर देखा तो उसमे पांच सौ रुपये थे। लडका बुदबुदाया - प्रभू तुमने तो पूरे हजार ही भेजे होंगे, इन साले पोस्ट आफ़िस वालों ने अपना कमीशन काट लिया होगा।
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नाइट-शो देख कर पति-पत्नि लौटे ही थे कि कि पतिदेव के दोस्त आ गये। पत्नि पति को एक तरफ ले जा बोली, खाने के लिए सिर्फ दाल पड़ी है, इतनी रात को अब क्या किया जाए? पतिदेव ने अपनी अक्ल दौड़ाई और बोले, एक काम करो, मैं उनसे बातें करता हूं, तुम रसोई में कुछ खटर-पटर कर एक बरतन गिरा देना। मैं बाहर से पुछूंगा कि अरे क्या गिरा। तुम जवाब देना, सारे कोफ्ते गिर गये। थोड़ी देर में तुम एक और बरतन गिरा देना। मैं फिर पुछूंगा, अब क्या हुआ। तुम कहना कि सारा रायता बिखर गया। मैं बोलुंगा, ध्यान से उठाना था ना। चलो कोई बात नहीं, यशजी कौन से पराये हैं, अपने घर के बंदे ही हैं। तुम दाल रोटी ही ले आओ। सेटिंग हो जाने के बाद पति देव बाहर आ अपने दोस्त से बतियाने लगे। इतने में रसोई से कुछ गिरने की आवाज आई, पति देव ने पूछा, अरे क्या हुआ? अंदर से जवाब आया :- दाल गिर गयी।
संता रोज रात को सोते समय कमरे में दो ग्लास रख कर सोता है। एक पानी से भरा हुआ और दूसरा खाली। क्योंकि उसे यह पता नहीं होता कि रात को प्यास लगेगी कि नहीं।
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क्लास में शरारत करने के कारण दो बच्चों को टीचर ने 100-100 बार अपना नाम लिखने की सजा दी। कुछ ही देर बाद उनमें से एक बच्चे ने खड़े हो कर कहा, सर यह सजा ठीक नहीं है। टीचर ने गुस्से से पूछा, क्या ठीक नहीं है ?
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नाइट-शो देख कर पति-पत्नि लौटे ही थे कि कि पतिदेव के दोस्त आ गये। पत्नि पति को एक तरफ ले जा बोली, खाने के लिए सिर्फ दाल पड़ी है, इतनी रात को अब क्या किया जाए? पतिदेव ने अपनी अक्ल दौड़ाई और बोले, एक काम करो, मैं उनसे बातें करता हूं, तुम रसोई में कुछ खटर-पटर कर एक बरतन गिरा देना। मैं बाहर से पुछूंगा कि अरे क्या गिरा। तुम जवाब देना, सारे कोफ्ते गिर गये। थोड़ी देर में तुम एक और बरतन गिरा देना। मैं फिर पुछूंगा, अब क्या हुआ। तुम कहना कि सारा रायता बिखर गया। मैं बोलुंगा, ध्यान से उठाना था ना। चलो कोई बात नहीं, यशजी कौन से पराये हैं, अपने घर के बंदे ही हैं। तुम दाल रोटी ही ले आओ। सेटिंग हो जाने के बाद पति देव बाहर आ अपने दोस्त से बतियाने लगे। इतने में रसोई से कुछ गिरने की आवाज आई, पति देव ने पूछा, अरे क्या हुआ? अंदर से जवाब आया :- दाल गिर गयी।
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संता, बंता तथा कंता एक ही बेड पर सो रहे थे। जगह कम थी। कंता नीचे उतर कर जमीन पर लेट गया। तभी संता बोला, ओये कंते ऊपर आजा, जगह हो गयी है। ************************************************संता रोज रात को सोते समय कमरे में दो ग्लास रख कर सोता है। एक पानी से भरा हुआ और दूसरा खाली। क्योंकि उसे यह पता नहीं होता कि रात को प्यास लगेगी कि नहीं।
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क्लास में शरारत करने के कारण दो बच्चों को टीचर ने 100-100 बार अपना नाम लिखने की सजा दी। कुछ ही देर बाद उनमें से एक बच्चे ने खड़े हो कर कहा, सर यह सजा ठीक नहीं है। टीचर ने गुस्से से पूछा, क्या ठीक नहीं है ?
बच्चे ने जवाब दिया, सर आप ही देखें, उसका नाम बंटी सिंह है और मेरा नाम विश्वनाथ प्रताप आहलूवालिआ है।
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एक बच्चे को छुटपन से ही, जब भी एक रुपये का सिक्का और पांच का नोट दिखा कर किसी एक को लेने को कहा जाता तो वह सिक्का ही उठाता था। धीरे-धीरे वह कुछ बड़ा हो गया। पर अभी भी वह सिक्का ही उठाता रहा नोट नहीं। घर और बाहर वाले उसकी इस बेवकूफी का मजा ले-ले कर यह खेल खेलते रहते थे। घर में किसी मेहमान वगैरह के आने पर यह तमाशा उसे जरूर दिखाया जाता था। एक दिन बच्चे के दादा जी ने उसे समझाते हुए कहा, बेटा तू इतना बड़ा हो गया है तुझे पता नहीं कि पांच रुपये एक के सिक्के से ज्यादा होते हैं, तू पांच का नोट क्यूं नहीं लेता ?
बच्चे ने जवाब दिया, दादा जी जिस दिन मैंने पांच का नोट उठा लिया, उसी दिन यह खेल और मेरी आमदनी बंद हो जायेगी।
दादा जी का मुंह खुला का खुला रह गया।
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सीधे सरल हृदय ताऊ के सच कहने के बाद छुट्टी कहां मिलनी थी सो बेचारा उदास बैठा था। इतने में संता वहां आया और उसके उदासी की वजह पूछने पर ताऊ ने सारी बात बता दी। इस पर संता बोला, बस इतनी सी बात है, मुझे देख हर 15-20 दिन बाद मुझे छुट्टी मिल जाती है। ताऊ हैरान, बोला, ए भाई मुझे भी तरकीब बता ना। संता बोला, ले सुन -
कमांडर साहब ने मुझे कह रखा है कि जब भी छुट्टी चाहिये हो तो कोई बड़ा काम कर के दिखाओ। तो जब भी ऐसी जरूरत पड़ती है तो मैं दुश्मन का एक टैंक पकड़ कर ला खड़ा करता हूं और छुट्टी मिल जाती है।ताऊ की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो गयीं मुंह खुला रह गया। किसी तरह पूछ पर भाई तु ऐसा करता कैसे है?
संता मुस्कुरा कर बोला, ओ भोले बादशाह, उन लोगों को छुट्टी की जरूरत नहीं पड़ती क्या? जब उन्हें चाहिये होता है तो हमारा ले जाते हैं।
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एक ताऊ और जिन्होनें हास्य की विधा को सम्मानजनक ऊंचाईयों पर पहुंचाया। उन्हीं जेमिनी हरियाणवी जी का एक गुदगुदाता चुटकुला, उन्हीं के शब्दों में (माफ किजियेगा हिंदी में कह पाउंगा) -
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सीधे सरल हृदय ताऊ के सच कहने के बाद छुट्टी कहां मिलनी थी सो बेचारा उदास बैठा था। इतने में संता वहां आया और उसके उदासी की वजह पूछने पर ताऊ ने सारी बात बता दी। इस पर संता बोला, बस इतनी सी बात है, मुझे देख हर 15-20 दिन बाद मुझे छुट्टी मिल जाती है। ताऊ हैरान, बोला, ए भाई मुझे भी तरकीब बता ना। संता बोला, ले सुन -
कमांडर साहब ने मुझे कह रखा है कि जब भी छुट्टी चाहिये हो तो कोई बड़ा काम कर के दिखाओ। तो जब भी ऐसी जरूरत पड़ती है तो मैं दुश्मन का एक टैंक पकड़ कर ला खड़ा करता हूं और छुट्टी मिल जाती है।ताऊ की आंखें आश्चर्य से चौड़ी हो गयीं मुंह खुला रह गया। किसी तरह पूछ पर भाई तु ऐसा करता कैसे है?
संता मुस्कुरा कर बोला, ओ भोले बादशाह, उन लोगों को छुट्टी की जरूरत नहीं पड़ती क्या? जब उन्हें चाहिये होता है तो हमारा ले जाते हैं।
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एक ताऊ और जिन्होनें हास्य की विधा को सम्मानजनक ऊंचाईयों पर पहुंचाया। उन्हीं जेमिनी हरियाणवी जी का एक गुदगुदाता चुटकुला, उन्हीं के शब्दों में (माफ किजियेगा हिंदी में कह पाउंगा) -
एक बार एक पड़ोस का लड़का मेरे पास आ कर बोला, ताऊ, इस्त्री चाहिये। मैने छोरे को ऊपर से नीचे तक देखा, उसकी उम्र देखी। फिर मन में सोचा मुझे क्या और बोला, जा अंदर बैठी है, ले जा। लड़के ने अंदर झांका और बोला वो नहीं, कपड़े वाली चाहिये। मैं बोला, अबे दिखता नहीं क्या, कपड़े पहन कर ही तो बैठी है। छोरा फिर बोला, अरे नहीं ताऊ वो वाली जो करंट मारती है। मैं बोला, एक बार छू कर तो देख।
मंगलवार, 26 अगस्त 2008
बंगाली भिड़ा बंगाली से, घाटे में रहा बंगाली
1967-68 मे, एक समय देश का पहले नम्बर का औद्योगिक राज्य, लगातार हडताल, बंद और आंदोलानों की वजह से, देखते-देखते उद्योगों से खाली होने लगा था। इससे वामपंथियों का दबदबा तो जरूर बढ़ा मगर पश्चिम बंगाल जर्जरावस्था को प्राप्त हो गया था। कभी भारत की राजधानी रहा कलकत्ता शहर, देश के अंदर और बाहर डाईंग सिटी के नाम से जाना जाने लग गया था। बेरोजगार होते नौजवान, बढ़ती बेकारी, लगातार बंद होते उद्योगों से वामपंथियों की नींद टूटी तो उन्होनें राज्य को संभालने के लिए कुछ कदम उठाए। उनको सफ़ल होता देख विपक्षी दल की जमीन पैरों तले खिसकनी शुरू हो गयी है। क्या ममता बनर्जी सिर्फ़ एक बात का जवाब देंगीं कि यदि टाटा अपनी परियोजना सिंगुर से हटा कर किसी और राज्य मे ले जाते हैं तो बंगाल मे कोई और उद्योगपति अपनी परियोजना लगाने की हिम्मत कर सकेगा। उनका यह कहना कि टाटा की बंगाल की वामपंथी सरकार से मिलीभगत है, किसी के गले नहीं उतर रहा। किसी उद्योग के स्थापित होने पर जैसी राजनीति हो रही है उससे कम से कम बंगाल के लोगों का कोई भला होने से रहा। इससे बंगाल के औद्योगिक विकास को निश्चित रूप से धक्का लगेगा। ममता बनर्जी का कहना है कि बंगाल के सिंगुर इलाके मे टाटा की नैनो कार परियोजना के लिए किसानों की 400 एकड जमीन बिना उनकी सहमती के ली गयी है वह उन्हें वापस दे दी जाये। जब की यह जमीन राज्य सरकार ने किसानों से लेकर टाटा समुह को दी है और इसका प्रयाप्त मुआवजा दिया गया है। निष्पक्ष हो सारे मामले को देखने से साफ़ पता चलता है कि वामपंथियों के खिलाफ़ जा अपनी हाथ से फ़िसलती राजनीति पर पकड मजबूत करने के लिए वह जो भी कर रहीं हैं उससे बंगालियों को ही नुक्सान होगा। पहले सोनार बांग्ला का जो नुक्सान वामपंथियों ने किया था, वही अब ममताजी कर रही हैं। यदि वे किसानों की सच्ची हितैषी हैं तो उन्हें अपना सारा जोर किसानों के परिवारों की आमदनी बढ़ाने पर लगाना चाहिए जिससे किसान परिवार के सारे सदस्य खेती पर ही निर्भर ना रहें उसकी जिम्मेवारी घर के एक दो लोगों पर छोड बाकी सदस्य अन्य उद्योग-धंदो मे लग कर परिवार तथा देश में खुशहाली ला सकें। क्योंकी औद्योगीकरण की रफ़्तार को बढ़ाए बिना कोई भी, कहीं भी, कभी भी उत्थान नहीं कर सकता।
शायद हमारे देश की नियती ही ऐसी है कि इसकी भलाई के लिए होने वाले काम में भी कभी पक्ष और विपक्ष के नेता सहमत नहीं होते। पर जहां उनका उल्लू सधना होता है तो सारे गलबहियां डाले नजर आते हैं।
शायद हमारे देश की नियती ही ऐसी है कि इसकी भलाई के लिए होने वाले काम में भी कभी पक्ष और विपक्ष के नेता सहमत नहीं होते। पर जहां उनका उल्लू सधना होता है तो सारे गलबहियां डाले नजर आते हैं।
सोमवार, 25 अगस्त 2008
कौन है ये ?
हर आधे सैकेंड मे इसका जन्म होता है। दुनियाभर मे इसकी गिनती हर रोज करीब 180000 हो जाती है। हर चार महिने में इसकी संख्या दुगनी हो जाती है। तीन साल में इसका कद सौ गुना हो गया है। लगभग दो सौ मिलियन लोग इससे जुडे हुए हैं। हर सैकेंड करीब बीस लोग इससे बात करते हैं। इसकी लोकप्रियता का आलम यह है कि टाइम मैग्जीन ने सदियों की परम्परा तोडते हुए 2006 की "पर्सनेलिटी आफ़ द ईयर" के सम्मान से किसी व्यक्ति को नहीं इसे नवाजा है। भारत में भी इससे जुडने वालों को अवार्ड दिया जाता है। विक्टोरिया बेकहेम और टोरी स्पेलिंग जैसी नामी हस्तियां अपने कार्यक्रमों का प्रचार करने के लिए इसका सहारा लेती हैं। टेक्नोरेटी रिसर्च फ़र्म के डेविड सिफ़्री के अनुसार यह समकालीन मुद्दों पर बहस के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वहीं अमेरिका में रेडिओ शो के प्रस्तोता मार्क एडवर्ड अपना ढ़ेर सा समय इसको देते हैं जिससे रेडिओ को कुछ नया दिया जा सके।
जी हाँ, आपने ठीक पहचाना, इसीका नाम "ब्लाग" है।
जी हाँ, आपने ठीक पहचाना, इसीका नाम "ब्लाग" है।
शनिवार, 23 अगस्त 2008
केले का पेड़ अब तन भी ढकेगा हमारा
रूई और जूट के बाद अब केले के पेड़ से धागा बनाने पर शोध जारी है।नेशनल रिसर्च सेंटर फ़ार बनाना {एन आर सी बी} में केले के पेड़ की छाल से धागा और कपड़ा बनाने पर काम जारी है। केले के तने की छाल बहुत नाजुक होती है, इसलिए उससे लंबा धागा निकालना मुश्किल होता है। सेंट्रल इंस्टीट्युट आफ़ काटन टेक्नोलोजी के सहयोग से केले की छाल मे अहानिकारक रसायन मिला कर धागे को लंबा करने की कोशिश की जा रही है। अभी संस्थान ने फ़िलीपिंस और मध्य पूर्व देशों से केले के पौधों की खास प्रजातियां मंगाई हैं, जिनसे केवल धागा ही निकाला जाता है। इनसे फ़लों और फ़ूलों का उत्पादन नहीं किया जाता है। धागे से तैयार कपड़े को बाजार मे पेश करने से पहले उसकी गुणवत्ता को परखा जाएगा। वैज्ञानिक पहले देखेंगे कि धागा सिलाई के लायक है या नहीं या उस पर पक्का रंग चढ़ता है कि नहीं, इस के बाद ही उसका व्यावसायिक उत्पादन हो सकेगा। तब तक के लिए इंतजार।
आने वाले दिनों में केले का पेड़ बहुपयोगी सिद्ध होने जा रहा है।एन आर सी बी, केले के तने के रस से एक खास तरह का पाउड़र बना रहा है, जो किड़नी स्टोन को खत्म करने के काम आएगा। इसके पहले इस संस्थान का केले के छिलके से शराब बनाने का प्रयोग सफ़ल रहा है और उसका पेटेंट भी हासिल कर लिया गया है।
केले के इतने सारे उपयोगों से अभी तक दुनिया अनजानी थी जो अब सामने आ रहे हैं।
आने वाले दिनों में केले का पेड़ बहुपयोगी सिद्ध होने जा रहा है।एन आर सी बी, केले के तने के रस से एक खास तरह का पाउड़र बना रहा है, जो किड़नी स्टोन को खत्म करने के काम आएगा। इसके पहले इस संस्थान का केले के छिलके से शराब बनाने का प्रयोग सफ़ल रहा है और उसका पेटेंट भी हासिल कर लिया गया है।
केले के इतने सारे उपयोगों से अभी तक दुनिया अनजानी थी जो अब सामने आ रहे हैं।
छप्पनभोग, कौन-कौन से हैं
अक्सर सुनने मे आता है कि भगवान को छप्पनभोग का प्रसाद चढ़ाया जाता है। इनमे किन-किन खाद्य पदार्थों का समावेश होता है, आईए देखते हैं --
1-रसगुल्ला, 2-चन्द्रकला, 3-रबड़ी, 4-शूली, 5-दधी, 6-भात, 7-दाल, 8-चटनी, 9-कढ़ी, 10-साग-कढ़ी, 11-मठरी, 12-बड़ा, 13-कोणिका, 14- पूरी, 15-खजरा, 16-अवलेह, 17-वाटी, 18-सिखरिणी, 19-मुरब्बा, 20-मधुर, 21-कषाय, 22-तिक्त, 23-कटु पदार्थ, 24-अम्ल {खट्टा पदार्थ}, 25-शक्करपारा, 26-घेवर, 27-चिला, 28-मालपुआ, 29-जलेबी, 30-मेसूब, 31-पापड़, 32-सीरा, 33-मोहनथाल, 34-लौंगपूरी, 35-खुरमा, 36-गेहूं दलिया, 37-पारिखा, 38-सौंफ़लघा, 39-लड़्ड़ू, 40-दुधीरुप, 41-खीर, 42-घी, 43-मक्खन, 44-मलाई, 45-शाक, 46-शहद, 47-मोहनभोग, 48-अचार, 49-सूबत, 50-मंड़का, 51-फल, 52-लस्सी, 53-मठ्ठा, 54-पान, 55-सुपारी, 56-इलायची,-----------------------------------------------------------------------------------------भगवान हैं भाई, हजम करते होंगे। अपन तो पढ़-सुन कर ही अघा गये।
1-रसगुल्ला, 2-चन्द्रकला, 3-रबड़ी, 4-शूली, 5-दधी, 6-भात, 7-दाल, 8-चटनी, 9-कढ़ी, 10-साग-कढ़ी, 11-मठरी, 12-बड़ा, 13-कोणिका, 14- पूरी, 15-खजरा, 16-अवलेह, 17-वाटी, 18-सिखरिणी, 19-मुरब्बा, 20-मधुर, 21-कषाय, 22-तिक्त, 23-कटु पदार्थ, 24-अम्ल {खट्टा पदार्थ}, 25-शक्करपारा, 26-घेवर, 27-चिला, 28-मालपुआ, 29-जलेबी, 30-मेसूब, 31-पापड़, 32-सीरा, 33-मोहनथाल, 34-लौंगपूरी, 35-खुरमा, 36-गेहूं दलिया, 37-पारिखा, 38-सौंफ़लघा, 39-लड़्ड़ू, 40-दुधीरुप, 41-खीर, 42-घी, 43-मक्खन, 44-मलाई, 45-शाक, 46-शहद, 47-मोहनभोग, 48-अचार, 49-सूबत, 50-मंड़का, 51-फल, 52-लस्सी, 53-मठ्ठा, 54-पान, 55-सुपारी, 56-इलायची,-----------------------------------------------------------------------------------------भगवान हैं भाई, हजम करते होंगे। अपन तो पढ़-सुन कर ही अघा गये।
गुरुवार, 21 अगस्त 2008
कलयुगी श्रवण कुमार
आज हरिया अपने बेटे डा0 गोविंद के साथ शहर जा रहा था। गाँव वाले अचंभित थे, गोविंद के वर्षों के बाद गांव आने पर। वह शहर में बहुत बड़ा डाक्टर था, दो-दो नर्सिंग होम चलते थे उसके। इतना व्यस्त रहता था, कि अपनी माँ के मरने पर भी गाँव नहीं आ सका था। पर आज खुश भी थे, हरिया को चाहने वाले, यह सोच कर कि बिमार हरिया शहर में अपने बेटे के पास रह कर अपनी जिंदगी के शेष दिन आराम से गुजार सकेगा।
इधर गोविंद अपने बाप को देख कर ही समझ गया था कि महिने दो महिने का ही खेल बचा है। उसे अपने बाप की देह का हरेक अंग अपने बैंक बैलेंस में तब्दील होता नज़र आ रहा था।
इधर गोविंद अपने बाप को देख कर ही समझ गया था कि महिने दो महिने का ही खेल बचा है। उसे अपने बाप की देह का हरेक अंग अपने बैंक बैलेंस में तब्दील होता नज़र आ रहा था।
बुधवार, 20 अगस्त 2008
वानर पुत्र सोच रहा था की आज बापू की सीख काम आई
बहुत समय पहले एक व्यापारी रंगबिरंगी टोपियां ले दूसरे शहर बेचने निकला। चलते-चलते दोपहर होने पर वह एक पेड़ के नीचे सुस्ताने के लिए रुक गया। भूख भी लग आई थी, सो उसने अपनी पोटली से खाना निकाल कर खाया और थकान दूर करने के लिए वहीं लेट गया। थका होने की वजह से उसकी आंख लग गयी। कुछ देर बाद नींद खुलने पर वह यह देख भौंचक्का रह गया कि उसकी सारी टोपियां अपने सिरों पर उल्टी-सीधी लगा कर बंदरों का एक झुंड़ पेड़ों पर टंगा हुआ है। व्यापारी ने सुन रखा था कि बंदर नकल करने मे माहिर होते हैं। भाग्यवश उसकी अपनी टोपी उसके सर पर सलामत थी। उसने अपनी टोपी सर से उतार कर जमीन पर पटक दी। देखा-देखी सारे बंदरों ने भी वही किया। व्यापारी ने सारी टोपियां समेटीं और अपनी राह चल पड़ा।
समय गुजरता गया। व्यापारी बूढ़ा हो गया उसका सारा काम उसके बेटे ने संभाल लिया। वह भी अपने बाप की तरह दूसरे शहरों मे व्यापार के लिए जाने लगा। दैवयोग से एक बार वह भी उसी राह से गुजरा जिस पर उसके पिता का सामना बंदरों से हुआ था। भाग्यवश व्यापारी का बेटा भी उसी पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठा। उसने कलेवा कर थोड़ा आराम करने के लिए आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद हल्के से कोलाहल से उसकी तंद्रा टूटी तो उसने पाया कि उसकी गठरी खुली पड़ी है और टोपियां बंदरों के सर की शोभा बढ़ा रही हैं। पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ और पिता की सीख के अनुसार उसने अपने सर की एक मात्र टोपी को जमीन पर पटक दिया। पर यह क्या!!! एक मोटा सा बंदर झपट कर आया और उस टोपी को भी उठा कर पेड़ पर चढ़ गया।
व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।
समय गुजरता गया। व्यापारी बूढ़ा हो गया उसका सारा काम उसके बेटे ने संभाल लिया। वह भी अपने बाप की तरह दूसरे शहरों मे व्यापार के लिए जाने लगा। दैवयोग से एक बार वह भी उसी राह से गुजरा जिस पर उसके पिता का सामना बंदरों से हुआ था। भाग्यवश व्यापारी का बेटा भी उसी पेड़ के नीचे सुस्ताने बैठा। उसने कलेवा कर थोड़ा आराम करने के लिए आंखें बंद कर लीं। कुछ देर बाद हल्के से कोलाहल से उसकी तंद्रा टूटी तो उसने पाया कि उसकी गठरी खुली पड़ी है और टोपियां बंदरों के सर की शोभा बढ़ा रही हैं। पर वह जरा भी विचलित नहीं हुआ और पिता की सीख के अनुसार उसने अपने सर की एक मात्र टोपी को जमीन पर पटक दिया। पर यह क्या!!! एक मोटा सा बंदर झपट कर आया और उस टोपी को भी उठा कर पेड़ पर चढ़ गया।
व्यापारी का लड़का सोच मे पड़ गया कि क्या बापू ने झूठ कहा था कि बंदर नकल करते हैं। उधर बंदर सोच रहा था कि आज बापू की सीख काम आई कि मनुष्यों की नकल कर कभी बेवकूफ़ मत बनना।
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
इस बार चूहा स्वाभिमानी था
इतिहास तो सब का होता होगा, चाहे वह इंसान हो, चाहे जानवर या कीड़े-मकोड़े ही क्यों ना हो और यदि ऐसा है तो उन सब का भी दुहरता है कि नहीं इसी का पता लगाने की मैने ठानी। इसके लिए उस कहानी को, जिसमे एक ऋषी ने चुहिया को इंसान का रूप दे पाला-पोसा था, पर उसका विवाह चूहे से ही हो पाया था, अपनी थिसिस बना, अपनी खोज शुरू की। काफ़ी भटकने के पश्चात भी जब मुझे कोई सिद्ध महात्मा के दर्शन ना हो पाये तो मैने नक्सलियों के खौफ़ के बावजूद बस्तर के घने जंगलों का रुख किया। इस बार मेरी मेहनत रंग लायी और वहां मुझे एक पहुंचे हुए महात्माजी के दर्शन हो ही गये। पहले तो उन्होंने कुछ भी बताने से साफ़ मना कर दिया पर मेरी जिद व हठ के सामने आखिर वे नरम पड़ गये और फिर उन्होंने जो बताया उसके सामने "रिप्ले का विश्वास करो या ना करो" भी मुंह छुपाता नजर आता है। पूरी बात उन्हीं के शब्दों मे आप के सामने है ----------------
कोई सोलह-एक साल पहले की बात है। एक सुबह मैं नदी मे स्नान करने के पश्चात सूर्यदेव को अर्ध्य दे रहा था, तभी आकाशगामी एक चील के चंगुल से छूट कर एक छोटी सी चुहिया मेरी अंजली मे आ गिरी। वह बुरी तरह घायल थी। मैं उसे अपने आश्रम ले आया तथा मरहम-पट्टी कर उसे जंगल मे छोड़ देना चाहा पर शायद ड़र के मारे या किसी और कारणवश वह जाने को राजी ही नहीं हुई। मैने भी उसकी हालत देख अपने पास रख लिया। समय बीतता गया और कब मैं उसे पुत्रीवत स्नेह करने लग गया इसका पता भी नहीं चला और इसी मोहवश एक दिन अपने तपोबल से उसे मानव रूप दे दिया। कन्या जब बड़ी हुई तो उसके विवाह के लिए मैने एक सर्वगुण सम्पन्न मूषक के बारे मे उसकी राय जाननी चाही तो उसने अपनी पसंद दुनिया की सबसे शक्तिशाली शख्सियत को बताया। बहुत समझाने पर भी जब वह ना मानी तो उसे मैने सूर्यदेव के पास भेज दिया, जो मेरी नजर मे सबसे तेजस्वी देवता थे। चुहिया ने उनके पास जा अपनी इच्छा बतायी। इस पर सूर्यदेव ने उसे कहा कि मुझसे ताकतवर तो मेघ है, जो जब चाहे मुझे ढ़क लेता है तुम उनके पास जाओ। यह सुन मुषिका मेघराज के पास गयी और अपनी कामना उन्हें बताई। मेघराज ने मुस्कुरा कर कहा बालिके तुमने गलत सुना है। मुझ से शक्तिशाली तो पवन है जो अपनी मर्जी से मुझे इधर-उधर डोलवाता रहता है। इतना सुनना था कि चुहिया ने पवनदेव को जा पकड़ा। पवनदेव ने उसकी सारी बात सुनी और फिर उदास हो बोले कि वह तो सदियों से पर्वत के आगे नतमस्तक होते आए हैं जो उनकी राह में सदा रोड़े अटकाता रहता है। इतना सुनना था कि चुहिया मुंह बिचका कर वहां से सीधे पहाड़ के पास आई और उनसे अपने विवाह की इच्छा जाहिर की। अब आज के युग मे छोटी-छोटी बातें तेज-तेज चैनलों से पल भर में दुनिया मे फैल जाती हैं तो पर्वतराज को चुहिया की दौड़-धूप की खबर तो पता लगनी ही थी, वह भी तब जब उनके शिखर पर एक विदेशी कंपनी का टावर लगा हुअ था। सैकड़ों वर्षों पहले की तरह उन्होंने फिर उसे वही बताया कि चूहा मेरे से भी ताकतवर है क्योंकि वह अपने मजबूत पंजों से मुझमे भी छिद्र कर देता है। यह कह उन्होंने अपना पीछा छुड़वाया। इतना सुन चुहिया ने वापस मेरे पास आ चूहे से अपने विवाह की स्विकृति दे दी। मैने मूषकराज को खबर भेजी और यहीं इतिहास भी धोखा खा गया। मूषकराज मेरे घर आए और सारी बातें सुन कर कुछ देर चुप रहे फ़िर बोले देवी क्षमा करें। मैं आपसे विवाह नहीं कर सकता। सच कटू होता है। आपकी अस्थिर बुद्धी तथा चंचल मन, इतने महान और सुयोग्य पात्रों की काबलियत और गुण ना पहचान सके। मैं तो एक अदना सा चूहा हूं। मेरे साथ आपका निर्वाह ना हो सकेगा। इतना कह साधू महाराज उदास हो चुप हो गये। कुछ देर बाद मैने पूछा कि वह आज कल क्या कर रही है। तो ठंड़ी सांस ले मुनि बोले कि लेखिका हो गयी है और पानी पी-पी कर पुरुष वर्ग के विरुद्ध आग उगलती रचनाएं लिखती रहती है।
अब आप ही बतायें कि मेरी खोज सफ़ल रही कि नहीं।
रविवार, 17 अगस्त 2008
एक सैम्नार ऐसा भी
रायपुर के मोतीबाग से आयकर विभाग की तरफ आने वाली सड़क पर घने इमली के पेड़ हैं। जिनकी शाखाओं पर ढेरों तरह-तरह के परिंदे वास करते हैं। शाम होते ही पक्षी जब अपने घोंसलों की ओर लौटते हैं तब शरारती लडके अपनी गुलेलों से उनको निशाना बनाते रहते हैं। इसी को देख यह ख्याल आया था ।
पर्यावरणविदों और पशू-पक्षी संरक्षण करने वाली संस्थाओं ने मेरे सोते हुए कस्बाई शहर को ही क्यूं चुना अपने वार्षिक सैम्नार के लिए, पता नहीं। इससे शहरवासियों को कोई फ़ायदा हुआ हो या ना हुआ हो पर शहर जरूर धुल पुछ गया। सड़कें साफ़-सुथरी हो गयीं। रोशनी वगैरह की थोड़ी ठीक-ठाक व्यवस्था कर दी गयी। गहमागहमी काफ़ी बढ़ गयी। बड़े-बड़े प्राणीशास्त्री, पर्यावरणविद, डाक्टर, वैज्ञानिक, नेता, अभिनेता और भी ना जाने कौन-कौन बड़ी-बड़ी गाड़ियों मे धूल उड़ाते आने लगे।
नियत दिन, नियत समय पर, नियत विषयों पर बहस शुरू हुई। नष्ट होते पर्यावरण और खास कर लुप्त होते प्राणियों को बचाने-सम्भालने की अब तक की नाकामियों और अपने-अपने प्रस्तावों की अहमियत को साबित करने के लिए घमासान मच गया। लम्बी-लम्बी तकरीरें की गयीं। बड़े-बड़े प्रस्ताव पास हुए ।
यानि कि काफी सफल आयोजन रहा।
दिन भर की बहस बाजी, उठापटक, मेहनत-मसर्रत के बाद जाहिर है, जठराग्नि तो भड़कनी ही थी, सो खानसामे को हुक्म हुआ, लज़िज़, बढिया, उम्दा किस्म के, व्यंजन बनाने का। खानसामा अपना झोला उठा बाजार की तरफ चल पड़ा। शाम का समय था। पेड़ों की झुरमुट मे अपने घोंसलों की ओर लौट रहे परिंदों पर कुछ शरारती बच्चे अपनी गुलेलों से निशाना साध रहे थे। पास आने पर खानसामे ने तीन-चार घायल बटेरों को बच्चों के कब्जे में देखा। अचानक उसके दिमाग की बत्ती जल उठी और चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। उसने बच्चों को डरा धमका कर भगा दिया। फिर बटेरों को अपने झोले में ड़ाला और गुनगुनाता हुआ वापस गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया।
खाना खाने के बाद, आयोजक से ले कर खानसामे तक, सारे लोग बेहद खुश थे, अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने तरीके से। सैम्नार की अपार सफलता पर।
पर्यावरणविदों और पशू-पक्षी संरक्षण करने वाली संस्थाओं ने मेरे सोते हुए कस्बाई शहर को ही क्यूं चुना अपने वार्षिक सैम्नार के लिए, पता नहीं। इससे शहरवासियों को कोई फ़ायदा हुआ हो या ना हुआ हो पर शहर जरूर धुल पुछ गया। सड़कें साफ़-सुथरी हो गयीं। रोशनी वगैरह की थोड़ी ठीक-ठाक व्यवस्था कर दी गयी। गहमागहमी काफ़ी बढ़ गयी। बड़े-बड़े प्राणीशास्त्री, पर्यावरणविद, डाक्टर, वैज्ञानिक, नेता, अभिनेता और भी ना जाने कौन-कौन बड़ी-बड़ी गाड़ियों मे धूल उड़ाते आने लगे।
नियत दिन, नियत समय पर, नियत विषयों पर बहस शुरू हुई। नष्ट होते पर्यावरण और खास कर लुप्त होते प्राणियों को बचाने-सम्भालने की अब तक की नाकामियों और अपने-अपने प्रस्तावों की अहमियत को साबित करने के लिए घमासान मच गया। लम्बी-लम्बी तकरीरें की गयीं। बड़े-बड़े प्रस्ताव पास हुए ।
यानि कि काफी सफल आयोजन रहा।
दिन भर की बहस बाजी, उठापटक, मेहनत-मसर्रत के बाद जाहिर है, जठराग्नि तो भड़कनी ही थी, सो खानसामे को हुक्म हुआ, लज़िज़, बढिया, उम्दा किस्म के, व्यंजन बनाने का। खानसामा अपना झोला उठा बाजार की तरफ चल पड़ा। शाम का समय था। पेड़ों की झुरमुट मे अपने घोंसलों की ओर लौट रहे परिंदों पर कुछ शरारती बच्चे अपनी गुलेलों से निशाना साध रहे थे। पास आने पर खानसामे ने तीन-चार घायल बटेरों को बच्चों के कब्जे में देखा। अचानक उसके दिमाग की बत्ती जल उठी और चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी। उसने बच्चों को डरा धमका कर भगा दिया। फिर बटेरों को अपने झोले में ड़ाला और गुनगुनाता हुआ वापस गेस्ट हाउस की तरफ चल दिया।
खाना खाने के बाद, आयोजक से ले कर खानसामे तक, सारे लोग बेहद खुश थे, अपनी-अपनी जगह, अपने-अपने तरीके से। सैम्नार की अपार सफलता पर।
बैंक, जहाँ पैसा नही कपडे रखे जाते हैं
ज्यादातर यही समझा जाता है कि बैंकों में पैसा या कीमती सामान ही रखा जाता है। पर झारखंड के जमशेदपुर मे एक बैंक ऐसा है जिसका पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। इस अनोखे बैंक में इंसान की मूलभूत जरूरत कपड़े रखे जाते हैं तथा इसे कपड़ों के बैंक के नाम से जाना जाता है। करीब एक दशक पुराने इस बैंक "गूंज" का मुख्य उद्देश्य देश के उन लाखों गरीब तथा जरूरतमंद लोगों को कपड़े उपलब्ध करवाना है, जो उचित वस्त्रों के अभाव मे अपमान और स्वास्थ्य संबंधी जोखिम का सामना करते हैं। पूरी दुनिया में अनगिनत लोगों को कपड़ों के अभाव में शारिरिक व मानसिक पीड़ा का सामना करना पड़ता है। भारत के ही कुछ भागों में महिलाओं को उचित वस्त्रों के अभाव में अनेकों बार अप्रिय परिस्थियों से गुजरना पड़ता है। इसी तरह की परेशानियों से लोगों को रोज दो-चार होता देख, कुछ लोगों का मिल कर इसका हल निकालने की सोच ने जो रूप लिया वही है "गूंज"। इसी तरह यदी छोटी-छोटी धाराएं अस्तित्व में आती रहें तो गरीबी के रेगिस्तान में कहीं-कहीं तो नखलिस्तान उभर कर कुछ तो राहत प्रदान कर ही सकता है।
शुक्रवार, 15 अगस्त 2008
लो, मन गया एक और स्वतंत्रता दिवस
एक और स्वतंत्रता दिवस निपटा घर लौट गये सब छुट्टी मनाने। जिस संस्था से जुडा हूं, वहां और किसी दिन जाओ न जाओ आज जाना बहुत जरूरी होता है, अपने को देश-भक्त सिद्ध करने के लिए। मन मार कर आए हुए लोगों का जमावड़ा, कागज का तिरंगा थामे बच्चों को भेड़-बकरियों की तरह घेर-घार कर संभाल रही शिक्षिकाएं, एक तरफ साल में दो-तीन बार निकलती गांधीजी की तस्वीर, नियत समय के बाद आ अपनी अहमियत जताते खास लोग। फिर मशीनी तौर पर सब कुछ जैसा होता आ रहा है वैसा ही निपटता चला जाना। झंडोत्तोलन, वंदन, वितरण, फिर दो शब्दों के लिए चार वक्ता, जिनमे से तीन ने आँग्ल भाषा का उपयोग कर उपस्थित जन-समूह को धन्य किया और लो हो गया सब का फ़र्ज पूरा। आजादी के शुरु के वर्षों में सारे भारतवासियों में एक जोश था, उमंग थी, जुनून था। प्रभात फ़ेरियां, जनसेवा के कार्य और प्रेरक देशभक्ति की भावना सारे लोगों में कूट-कूट कर भरी हुई थी। यह परंपरा कुछ वर्षों तक तो चली फिर धिरे-धिरे सारी बातें गौण होती चली गयीं। अब वह भावना, वह उत्साह कहीं नही दिखता। लोग नौकरी के या किसी और मजबूरी से, गलियाते हुए, खानापूर्ती के लिए इन समारोहों में सम्मिलित होते हैं। स्वतंत्रता दिवस स्कूल के बच्चों तक सिमट कर रह गया है या फिर हम पुराने रेकार्डों को धो-पौंछ कर, निशानी के तौर पर कुछ घंटों के लिए बजा अपने फ़र्ज की इतिश्री कर लेते हैं। क्या करें जब चारों ओर हताशा, निराशा, वैमनस्य, खून-खराबा, भ्रष्टाचार इस कदर हावी हों तो यह भी कहने में संकोच होता है कि आईए हम सब मिल कर बेहतर भारत के लिए कोई संकल्प लें। फिर भी प्रकृति के नियमानुसार कि जो आरंभ होता है वह खत्म भी होता है तो एक बेहतर समय की आस में सबको इस दिवस की ढेरों शुभकामनाएं। क्योंकि आखिर इस दिवस ने किसी का क्या बिगाड़ा है।
गुरुवार, 14 अगस्त 2008
कहाँ थे गांधीजी, पहले स्वतंत्रता दिवस पर
15 अगस्त 1947, सारी धरती, सारा आकाश, स्त्री-पुरुष, अबाल-वृद्ध सब जने ड़ूबे हुए थे आनन्दसागर मे, हर देशवासी सैंकडों सालों से प्रतिक्षित आजादी को अपने सामने पा खुशी के मारे बावरा बन गया था। देश का बच्चा-बच्चा जिस दिन खुशी से पागल हो उठा था, उस दिन इस जश्न का पैरोकार, इस उत्सव का सुत्रधार, इस स्वप्न को मूर्तरूप देने वाला शिल्पी देश के एक कोने मे स्थित कलकत्ता मे, अमन चैन की रक्षा हेतु उपवास और प्रार्थना कर रहा था। महात्मा गांधी ने आजादी की खुशी मे मनाए जा रहे किसी भी समारोह मे भाग नहीं लिया। उनके लिये यह 15 अगस्त भी आम दिनों की तरह ही रहा। रमजान का महिना था। लोग बापू के प्रति आदर व्यक्त कर अपना रोजा खोलना चाहते थे। सो बापू अन्य दिनों की अपेक्षा और जल्दी सो कर उठ गये थे। सुबह आने वालों मे हिंदू भी थे। गांधीजी सबसे मिले, फिर गीता का पाठ करने लगे। इसके बाद सदा की तरह प्रात: भ्रमण के लिए निकल पडे। सडकों पर उनके दर्शन के लिए भीड एकत्रित थी। करीब आठ बजे बापू लौटे और एकत्रित जनों से कहा कि आज हमें आजादी मिली है परन्तू इसके साथ ही हमारी जिम्मेदारी भी बढ गयी है। जिस चरखे ने हमें आजादी दिलाई है उसे हमे नहीं भूलना है। उपवास से हमारा शरीर शुद्ध होता है, इस प्रकार हमें शुद्ध होकर प्रभू से प्रार्थना करनी है कि वे हमें आजादी के काबिल बनाएं। यह हमारी परीक्षा की घड़ी है। गांधीजी का एक अलग ही सपना था आजादी को लेकर, वे चाहते थे कि सारे भारतवासी अपने आप को आजादी के काबिल बनाएं । उनका कहना था कि हमें प्रभू को धन्यवाद देना चाहिए कि उसने हम गरीब भारतवासियों के बलिदान का फ़ल दिया है। आजादी का दिन हमारी परीक्षा का दिन है। इस दिन सब उपवास रखें,चरखा चलाएं। किसी तरह की गडबडी ना हो। आजादी के लिए रोशनी के द्वारा समारोह करना उचित नहीं है, जबकि देश की जनता के पास प्रयाप्त अनाज, तेल और कपडा नहीं है। बापू नहीं चाहते थे कि 1946 की पुनरावृती हो। फिर भी कलकत्ता अशांत हो गया था और उन्हें आजादी का पहला दिन वहीं बिताना पडा था, अमन-चैन की बहाली के वास्ते। बापू प्रार्थना मे मुश्किल से ध्यान लगा पा रहे थे क्योंकि हजारों लोग उनसे मिलने और यह कहने आ रहे थे कि उन्हीं के कारण देश यह दिन देख सका है। इस कारण वे कुछ नाराज से हो गये और उन्होंने भवन का मुख्य द्वार बंद करवा दिया। बाद मे बंगाल सरकार के मंत्रीगण उनसे मिलने आए तो बापू ने स्पष्ट शब्दों मे उनसे कहा कि आज आपने अपने सर पर कांटों का ताज पहना है। सत्ता बेहद बुरी चीज है। आपको गद्दी पर बैठ कर सदा चौकस रहना होगा। आपको सत्यवादी, अहिंसक, विनम्र तथा सहनशील होना होगा। धन-दौलत-सत्ता के लालच मे नहीं फंसना है। आप गरीबों की सेवा के लिए हैं। अंग्रेजों के शासन की परीक्षा तो खत्म हो गयी है अब हमारी परीक्षा का कोई अंत नहीं होगा। ईश्वार आपकी मदद करे। लाख बुलाने पर भी गांधीजी किसी समारोह मे नहीं गये। शाम को प्रार्थना सभा मे जबरदस्त भीड़ थी। प्रार्थना के बाद उन्होंने फिर जनता को संबोधित कर कहा कि आज आजादी का पहला दिन है। राजाजी गवर्नर हो गयें हैं। लोगों ने सोचा कि अब आजादी मिल गयी है, सो उन्होंने राजाजी के घर पर कब्जा जमा लिया। यह अच्छी बात है कि लोग जान गये हैं कि सबको समानता का अधिकार है, पर यह दुख की बात है कि वे सोचने लगे हैं कि उन्हें मनचाहा काम करने, चीजों को तोडने-फ़ोडने और नष्ट करने की भी आजादी मिल गयी है। जनता ऐसा काम ना कर, खिलाफ़त आंदोलन के समय जैसी एकता दर्शाए, वैसी ही भावनाएं बनाए रखे। उस शाम गांधीजी के साथ सुहरावर्दी भी थे उन्होने भी बापू के बाद सभा को संबोधित करते हुए हिन्दु-मुसलिम एकता की दुहाई दी, सबने मिल कर जय-हिंद का नारा बुलंद किया। गांधीजी के चेहरे पर उस दिन पहली बार मुस्कान की आभा दिप्त हुई। फिर बहुत अनुरोध करने पर बापू शहर मे की गयी रोशनी देखने निकले। लोगों का सैलाब उनकी ओर उमड पडा। छोटे-छोटे बच्चे बेहद आतुरता से उनके हाथ थामने को लपकते रहे। भीड उन पर गुलाब की पंखुडियों की बौछार करती रही। करीब दस बजे बेहद थक कर गांधीजी लौटे और बिना किसी से बात किए सोने चले गये। स्वतंत्र भारत की नियती से स्वतंत्रता संग्राम के महानायक की यह पहली मुठभेड थी।
बुधवार, 13 अगस्त 2008
"मणिकर्ण" शिवजी की रमण भूमि
मणिकर्ण, हिमाचल मे पार्वती नदी की घाटी मे बसा एक पवित्र धर्म-स्थल है। हिन्दु तथा सिक्ख समुदाय का पावन तीर्थ, जो कुल्लू से 35किमी दूर समुंद्र तट से 1650मिटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां आराम से बस या टैक्सी से जाया जा सकता है। पौराणिक कथा है कि विवाह के पश्चात एक बार शिवजी तथा पार्वतीजी घूमते-घूमते इस जगह आ पहुंचे। उन्हें यह जगह इतनी अच्छी लगी कि वे यहां ग्यारह हजार वर्ष तक निवास करते रहे। इस जगह के लगाव के कारण ही उन्होंने जब काशी की स्थापना की तो वहां भी नदी के घाट का नाम मणिकर्णिका घाट रक्खा। इस क्षेत्र को अर्द्धनारीश्वर क्षेत्र भी कहते हैं,तथा यह समस्त सिद्धीयों का देने वाला स्थान है, ऐसी मान्यता है यहां के लोगों मे।कहते हैं कि यहां प्रवास के दौरान एक बार स्नान करते हुए माँ पार्वती के कान की मणि पानी मे गिर तीव् धार के साथ पाताल पहुंच गयी। मणि ना मिलने से परेशान माँ ने शिवजी से कहा। शिवजी को नैना देवी से पता चला कि मणि नागलोक के देवता शेषनाग के पास है। इससे शिवजी क्रोधित हो गये जिससे ड़र कर शेषनाग ने जोर की फुंकार मार कर मणियों को माँ के पास भिजवा दिया। इन मणियों के कारण ही इस जगह का नाम मणिकर्ण पडा। शेषनाग की फुंकार इतनी तीव्र थी कि उससे यहां गर्म पानी का स्रोत उत्पन्न हो गया। यह एक अजूबा ही है कि कुछ फ़िट की दूरी पर दो अलग तासीरों के जल की उपस्थिति है। एक इतना गर्म है कि यहां मंदिर - गुरुद्वारे के लंगरों का चावल कुछ ही मिनटों मे पका कर धर देता है तो दूसरी ओर इतना ठंडा की हाथ डालो तो हाथ सुन्न हो जाता है।यही वह जगह है जहां महाभारत काल मे शिवजी ने अर्जुन की परीक्षा लेने के लिए किरात के रूप मे उससे युद्ध किया था।यहीं पर सिक्ख समुदाय का भव्य गुरुद्वारा है जहां देश विदेश से लोग आ पुण्य लाभ करते हैं। इसकी स्थापना कैमलपुर, अब पाकिस्तान मे, के निवासी श्री नारायण हरी द्वारा 1940 के आसपास की गयी थी। थोडी सी हिम्मत, जरा सा जज्बा, नयी जगह देखने-जानने की ललक हो तो एक बार यहां जरूर जाएं।
सोमवार, 11 अगस्त 2008
बिंद्रा ने कड़वाहट धो दी
सुबह-सुबह ही अखबार मे पढ़ा कि सौ सरकारी पर्यवेक्षकों का एक और काफ़िला तैयारियों का जायजा लेने के बहाने बीजिंग पहुंच गया है और सैर-सपाटे में व्यस्त है, जबकी 98 सदस्यीय भारतीय दल मे पहले से ही 42 अधिकारी मौजूद हैं। तो रहा नही गया और थोडी कडवाहट "ओलिंपिक जाने नहीं ले जाने का त्यौहार" वाले ब्लाग मे उतर आई। पर बिन्द्रा ने जो इतिहास रचा उस पर मुफ़्तखोरों के सौ खून माफ़। इस सपूत ने जो कर दिखाया है, देश का जैसे गौरव बढ़ाया है उसे देख शायद "वैसे" लोगों की आने वाली नस्लें ही कोई सबक ग्रहण कर लें। आईए कड़वाहट भूल ग्यारह अगस्त की इस शानदार शुरुआत को याद रखते हुए आशा कर्रं कि आज की सफ़लता कम से कम तिगुनी-चौगुनी हो कर घर वापस आए। आमीन
ओलिंपिक जाने का नहीं ले जाने का त्यौहार
विश्व के दूसरे सबसे बडे आबादी वाले देश के खिलाड़ी ओलिंपिक मे पदक जीतने का नहीं बल्कि वहां अधिकारियों को सैर-सपाटा करवाने के लिए ले जाने का जरिया मात्र बन कर रह गये हैं। इसीलिये हमें बार-बार समझाया जाता है कि ओलिंपिक मे पदक जीतना उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना उसमे भाग लेना, और इतने महत्वपूर्ण काम मे सरकारी कारिंदे भाग ना ले सकें तो धिक्कार है। सो हे गुणी-जन खिलाडियों से ज्यादा साथ जाने वालों को अपना रिकार्ड अपने आकाओं के पास काफी ऊंचा बनाए रखना पडता है। इसके लिए तरह-तरह से हवा बांधनी पडती है, हवाई किले दिखाने पडते हैं, साम-दाम-दंड-भेद हर तरह की नीति अपनानी पडती है। यह सारा गड़बड़झाला महिनों पहले शुरु हो जाता है, कोई अपनी सीट पक्की करने तथा अपने कैंडिडेट को अपडेट करवाने की जुगत मे उससे बेहतर बकरे को ड़ोपिंग में डुबा बली दिलवा देता है, तो कोई सिरफ़िरा तो अपनी करतूतों के विरुद्ध हुई कार्यवाही से जल-भुन कर देश की इज्जत को ही दांव पर लगा सारी की सारी टीम को ही ना-लायक करवा देता है। पा कोई किसी का कुछ बिगाडता नहीं है, क्योंकी हमाम मे तो सभी निवस्त्र ही हैं। पर असलियत तो उन्हें भी पता है और अपनी पुस्तों का ख्याल भी है सो उलट ब्यान भी साथ-साथ प्रसारित होते रशते हैं। अभी एक ब्यान आया है कि भारत मे खेलों का स्वर्ण युग 2010 से शुरू होगा, यानी अगले कुम्भ के लिए बरतन चमकाने शुरू भी हो गये। कभी-कभी देशवासी ज्यादा हताश ना हों इसलिए खिलाडियों से भी कुछ ऐसा उवचवा दिया जाता है जैसे चीन जाने के पहले ही एक तीरन्दाजनी ने चीन की हवा को दोष दे ड़ाला था गोया चीन की हवा भी हम भारतियों के साथ ही दुश्मनी निभाएगी बाकि चीन के इतर दसियों देशों के लिए हवा हौवा नही बनेगी। भारत चाहे अब तक हुए ओलिंपिक के बराबर भी पदक ना ला पाया हो पर खिलाडियों के साथ सैर-सपाटे के लिए जाने वाले सरकारियों की संख्या उनके द्वारा लाए जाने वाले बैगों के साथ-साथ बढती ही जाती है। पर विडंबना देखिए कि सब जनते समझते हुए भी मेरे जैसे बांगडु टी वी से चिपक रोज लंबी होती पदक तालिका पर किसी चमत्कार की तरह भारत के नाम के उभरने का इंतजार करते-करते पखवाडा गुजार देते हैं। 88888888888888888888888888888888888888888888888888 ओलिंपिक अनंत ओलिंपिक कथा अनंता
रविवार, 10 अगस्त 2008
एक गुमनाम प्रेमी "इलोजी"
हमारे ग्रंथों मे सैंकडों ऐसे पात्र हैं, जिनका उनके समय के घटनाक्रम मे एक अहम योगदान रहा था। परन्तु किसी ना किसी कारणवश उनका नाम और काम हाशिए पर धकेल दिया गया। कुछ लोगों का उस समय के शासकों ने अपने हित मे उपयोग कर उन्हें दूध की मक्खी की तरह अलग कर दिया तो कुछ के काम का मुल्यांकन सही ना हो पाने की वजह से वे नेपथ्य मे चले गये। ऐसा ही एक नाम है इलोजी। असुर राज हिरण्यकश्यप की बहन होलिका और पडोसी राज्य के राजकुमार इलोजी एक दूसरे को दिलोजान से चाहते थे। इलोजी के रूप-रंग के सामने देवता भी शर्माते थे। सुंदर, स्वस्थ,सर्वगुण संपन्न साक्षात कामदेव का प्रतिरूप थे वे। इधर होलिका भी अत्यंत सुंदर रूपवती युवती थी। लोग इनकी जोडी की बलाएं लिया करते थे। । उभय पक्ष की सहमति से दोनों का विवाह होना भी तय हो चुका था। परन्तु विधाता को कुछ और ही मंजूर था। हिरण्यकश्यप अपने पुत्र के प्रभू प्रेम से व्यथित रहा करता था। उसके लाख समझाने-मनाने पर भी प्रह्लाद की भक्ती मे कोई कमी नहीं आ पा रही थी। धीरे-धीरे हिरण्यकश्यप की नाराजगी क्रोध मे बदलती चली गयी और फिर एक समय ऐसा भी आ गया कि उसने अपने पुत्र को सदा के लिये अपने रास्ते से हटाने का दृढसंकल्प कर लिया। परन्तु लाख कोशिशों के बावजूद भी वह प्रह्लाद का बाल भी बांका नही कर पा रहा था। राजकुमार का प्रभाव जनमानस पर बहुत गहरा था। राज्य की जनता हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से तंग आ चुकी थी। प्रह्लाद के साधू स्वभाव के कारण सारे लोगों की आशाएं उससे जुडी हुई थीं। हिरणयकश्यप ये बात जानता था। इसीलिये वह प्रह्लाद के वध को एक दुर्घटना का रूप देना चाहता था और यही हो नहीं पा रहा था। इसी बीच उसे अपनी बहन होलिका को मिले वरदान की याद हो आई, जिसके अनुसार होलिका पर अग्नि का कोई प्रभाव नहीं पडता था। उसने होलिका को अपनी योजना बताई कि उसे प्रह्लाद को अपनी गोद मे लेकर अग्नि प्रवेश करना होगा। होलिका पर तो मानो वज्रपात हो गया। वह अपने भतीजे को अपने प्राणों से भी ज्यादा चाहती थी। बचपन से ही प्रह्लाद अपनी बुआ के करीब रहा था, बुआ ने ही उसे पाल-पोस कर बडा किया था। जिसकी जरा सी चोट से होलिका परेशान हो जाती थी, उसीकी हत्या की तो वह कल्पना भी नही कर सकती थी। उसने भाई के षडयन्त्र मे भागीदार होने से साफ़ मना कर दिया। पर हिरण्यकश्यप भी होलिका की कमजोरी जानता था, उसने भी होलिका को धमकी दी कि यदि उसने उसका कहा नही माना तो वह भी उसका विवाह इलोजी से नहीं होने देगा। होलिका गंभीर धर्मसंकट मे पड गयी थी, वह अपना खाना-पीना-सोना सब भूल गयी। एक तरफ़ दिल का टुकडा, मासूम भतीजा था तो दूसरी तरफ प्यार, जिसके बिना जिंदा रहने की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी। आखिरकार उसने एक अत्यन्त कठिन फ़ैसला कर लिया और भाई की बात मान ली, क्योंकि उसे डर था कि कहीं हिरण्यकश्यप इलोजी को कोई नुक्सान ना पहुंचा दे। निश्चित दिन, उसने अपने वरदान का सहारा प्रह्लाद को दे, उसे अपनी गोद मे ले अग्नि प्रवेश कर अपना बलिदान कर दिया, पर उसके इस त्याग का किसी को भी पता नहीं चल पाया। यही दिन होलिका और इलोजी के विवाह के लिए भी तय किया गया था। इलोजी इन सब बातों से अंजान अपनी बारात ले नियत समय पर राजमहल आ पहुंचे। वहां आने पर जब उन्हें सारी बातें पता चलीं तो उन पर तो मानो पहाड टूट पडा, दिमाग कुछ सोचने समझने के काबिल न रहा। पागलपन का एक तूफ़ान उठ खडा हुआ और इसी झंझावात मे उन्होंने अपने कपडे फाड डाले और होलिका-होलिका की मर्म भेदी पुकार से धरती-आकाश को गुंजायमान करते हुए होलिका की चिता पर लोटने लगे। गर्म चिता पर निढाल पडे अपने आंसुओं से ही जैसे चिता को ठंडा कर अपनी प्रेयसी को ढूंढ रहे हों। उसके बाद उन्होंने आजीवन विवाह नहीं किया। वन-प्रातों मे भटकते-भटकते सारी जिंदगी गुजार दी। आज भी राजस्थान में उन्हें सम्मान की दृष्टी से याद किया जाता है। उन्हें विशेष मान्यता प्राप्त है वहां के जनमानस में। वे जिंदा हैं वहां के लोक गीतों तथा कहानियों मे।
बुधवार, 6 अगस्त 2008
भगवान् भी लाचार है
खबर विश्वसनीय सूत्रों से ही मिली थी, पर विश्वास नही हो पाया था कि ऐसा भी हो सकता है। खबर आपके सामने है और फ़ैसला आपके हाथ में। सावन के महीने मे मेघा नक्षत्र के उदय होने के पूर्व एक मुहूर्त बनता है जिसमे प्रभू का दरबार धरती वासियों के लिए कुछ देर के लिये खोला जाता है। इसका पता अभी-अभी साईंस दानों को लगा था। लाटरी के जरिये भारत, अमेरीका तथा जापान के तीन नुमांईदों को उपर जाने का वीसा मिला था। तीनों को एक जैसा ही सवाल पूछने की इजाजत थी। पहले अमेरीकन ने पूछा कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा, प्रभू ने जवाब दिया कि सौ साल लगेंगे। अमेरीकन की आंखों मे आंसू आ गये। फिर यही सवाल जापानी ने भी किया उसको उत्तर मिला कि अभी पचास साल लगेंगे। जापानी भी उदास हो गया कि उसके देश को आदर्श बनने मे अभी समय लगेगा। अंत मे भारतवासी ने जब वही सवाल पूछा तो पहले तो प्रभू चुप रहे फिर फ़ूट-फ़ूट कर रो पड़े। अब आज के जमाने मे कौन ऐसी बात पर विश्वास करता है, पर जब सर्वोच्च न्यायालय की ओर से कहा गया कि इस देश को भगवान भी नही बचा सकते, तो पहली खबर को आप क्या कहेंगे ?
पुनश्च :- न्यायालय भी तो पूरी बात खोल के नहीं बता सकता न।शुक्रवार, 1 अगस्त 2008
राष्ट्रपति लिंकन और केनेडी की अविश्वसनीय समानताएं
प्रेसिडेंट अब्राहम लिंकन तथा उनके सौ साल बाद प्रेसिडेंट बने केनेडी के जीवन मे घटी घटनाओं की समानता दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर कर देती हैं। विश्वास नहीं होता कि ऐसा हुआ होगा; पर यह सच है --- * प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था। * लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था। * दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नीयों की उपस्थिति मे हुआ था। * लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था। * बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था। * दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी। * दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था। * लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं। * दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था। * लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।
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