बिना किसी अपेक्षा के, अपनी अंतरात्मा की आवाज पर, निस्वार्थ भाव से किसी के लिए किया गया कोई भी कर्म जिंदगी भर आपको संतोष प्रदान करता रहता है। यह रचना काल्पनिक नहीं बल्कि सत्य पर आधारित है। श्रीमती जी शिक्षिका रह चुकी हैं। उसी दौरान उनका एक संस्मरण उन्हीं के शब्दों में ...........!
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
बुधवार, 5 फ़रवरी 2025
ललिता का बेटा
#हिन्दी_ब्लागिंग
अभी अपने स्कूल पहुंची ही थी कि राजेंद्र को एक छोटे से बच्चे के साथ आते देखा ! अंदाज हो गया कि बच्चा उसी का होगा ! कुछ ही देर में इसकी पुष्टि भी हो गई ! उसने बताया कि वह अपने बच्चे का दाखिला करवाने आया है ! मेरी आँखों के सामने पिछले पैंतीस साल किसी फिल्म की तरह गुजर गए ! तब मुझे साल भर ही हुआ था स्कुल में शिक्षिका के रूप में काम करते, जब ललिता अपने इसी बेटे राजेंद्र को मेरे पास लाई थी, स्कुल में प्रवेश के हेतु। आज वही राजेंद्र मेरे सामने खड़ा है, अपने बेटे का हाथ थामे और आज साल भर ही रह गया है, मेरे रिटायरमेंट में ! अजब संयोग था !
काफी पुरानी बात है, उस समय कुकुरमुत्तों की तरह गली-गली स्कूली दुकानें नहीं खुली थीं। हमारा विद्यालय भी एक संस्था द्वारा संचालित था। जहां बच्चों का दाखिला उनकी योग्यता के अनुसार ही किया जाता था। यहां की सबसे अच्छी बात थी कि इस स्कूल में समाज के हर तबके के परिवार के बच्चे बिना किसी भेद-भाव के शिक्षा पाते थे। कार से आने वाले बच्चे पर भी उतना ही ध्यान दिया जाता था, जितना मेहनत-मजदूरी करने वाले के घर से आने वाले बच्चे पर। फीस के अलावा किसी भी तरह का अतिरिक्त आर्थिक भार किसी पर नहीं डाला जाता था। फीस से ही सारे खर्चे पूरे करने की कोशिश की जाती थी। इसीलिए स्टाफ की तनख्वाह कुछ कम ही थी। पर माहौल का अपनापन और शांति, यहां बने रहने के लिए काफी था। हालांकि करीब तीस साल की लम्बी अवधि में मेरे पास विभिन्न जगहों से कई नियुक्ति प्रस्ताव आए पर इस अपने परिवार जैसे माहौल को छोड़ कर जाने की कभी भी इच्छा नहीं हुई। स्कूल में कार्य करने के दौरान तरह-तरह के अनुभवों और लोगों से दो-चार होने का मौका मिलता रहता था।इसीलिए इतना लंबा समय कब गुजर गया पता ही नहीं चला।
पर इतने लम्बे कार्यकाल में सैकड़ों बच्चों को अपने सामने बड़े होते और जिंदगी में सफल होते देख खुशी और तसल्ली जरूर मिलती है। ऐसा कई बार हो चुका है कि किसी यात्रा के दौरान या बिलकुल अनजानी जगह पर अचानक कोई युवक आकर मेरे पैर छूता है और अपनी पत्नी को मेरे बारे में बतलाता है तो आँखों में ख़ुशी के आंसू आए बिना नहीं रहते। गर्व भी होता है कि मेरे पढ़ाए हुए बच्चे आज देश के साथ विदेशों में भी सफलता पूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे हैं। खासकर उन बच्चों की सफलता को देख कर खुशी चौगुनी हो जाती है, जिन्होंने गरीबी में जन्म ले, अभावग्रस्त होते हुए भी अपने बल-बूते पर अपने जीवन को सफल बनाया।
ऐसा ही एक छात्र था, राजेन्द्र, उसकी माँ ललिता हमारे स्कूल में ही आया का काम करती थी। एक दिन वह अपने चार-पांच साल के बच्चे का पहली कक्षा में दाखिला करवा उसे मेरे पास ले कर आई और एक तरह से उसे मुझे सौंप दिया। वक्त गुजरता गया। मेरे सामने वह बच्चा, बालक और फिर युवा हो बारहवीं पास कर महाविद्यालय में दाखिल हो गया। इसी बीच ललिता को तपेदिक की बीमारी ने घेर लिया। पर उसने लाख मुसीबतों के बाद भी राजेन्द्र की पढ़ाई में रुकावट नहीं आने दी। उसकी मेहनत रंग लाई, राजेन्द्र द्वितीय श्रेणी में सनातक की परीक्षा पास कर एक जगह काम भी करने लग गया।
वह लड़का बहुत कम बोलता था ! अपने मन की बात भी जाहिर नहीं होने देता था ! पर उसकी सदा यही इच्छा रहती थी कि जिस तरह भी हो वह अपने माँ-बाप को सदा खुश रख सके। अच्छे चरित्र के उस लडके ने अपने अभिभावकों की सेवा में कोई कसर नहीं रख छोड़ी। उससे जितना बन पड़ता था अपने माँ-बाप को हर सुख-सुविधा देने की कोशिश करता रहता था। माँ के लाख कहने पर भी अपना परिवार बनाने को वह टालता रहता था। उसका एक ही ध्येय था, माँ-बाप की ख़ुशी। ऐसा पुत्र पा वे दोनों भी धन्य हो गए थे। यही वजह थी कि वह बच्चा मुझे सदा याद रहा !
विधि का अपना विधान होता है ! इस परिवार ने कुछ समय के लिए ही जरा सा सुख देखा था कि एक दिन ललिता के पति का देहांत हो गया। इस विपदा के बाद तो बेटा अपनी माँ के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो गया। पर भगवान को कुछ और ही मंजूर था ! ललिता अपने पति का बिछोह और अपनी बिमारी का बोझ ज्यादा दिन नहीं झेल पाई और पति की मौत के साल भर के भीतर ही वह भी उसके पास चली गयी। राजेन्द्र बिल्कुल टूट सा गया। मेरे पास अक्सर आ बैठा रहता था। जितना भी और जैसे भी हो सकता था मैं उसे समझाने और उसका दुःख दूर करने की चेष्टा करती थी। समय और हम सब के समझाने पर धीरे-धीरे वह नॉर्मल हुआ। काम में मन लगाने लगा। सम्मलित प्रयास से उसकी शादी भी करवा दी गयी।
प्रभु की कृपा और अपने माँ-बाप के आशीर्वाद उसका गृहस्थ जीवन सुखमय रहा। जब कभी भी मुझसे मिलता, तो उसकी विनम्रता, विनयशीलता मुझे अंदर तक छू जाती ! आज वही राजेन्द्र अपने बच्चे के साथ मेरे सामने खड़ा था और मुझे उस बच्चे में वर्षों पहले का राजेंद्र नजर आ रहा था, जो पहली बार ऐसे ही मुझसे मिला था ! ऊपर से उसके माँ-बाप भी उसे देखते होंगे तो उनकी आत्मा भी उसे ढेरों आशीषों से नवाजती होगी। मुझे भी उसका अपने माँ-बाप के प्रति समर्पण कभी भूलता नहीं है।
@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
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