आज हजारों टन मिट्टी, पत्थर, चट्टाने जो पहाड़ों से अलग नीचे बिखरी पड़ी हैं, उन्हें वापस पहाड़ों पर फिर से ले जाया, लगाया तो नहीं जा सकता ! जीवन सुचारु बनाने के लिए वैसे छोड़ा भी नहीं जा सकता ! तो..........! तो वही होगा जो वर्षों से होता चला आया है ! नदियों के तल ऊँचे होते चले जाएंगे ! फिर नदियाँ उफान पर आएंगी और फिर...! इसके बावजूद क्या भविष्य में इंसान कोई सबक लेगा ? सुधरेगा ? यक्ष प्रश्न है कि क्या सुधरना उसके अपने बस में रह भी गया है ........?
कई दिनों के चिंताजनक इंतजार के बाद आज सुबह, वहां फोन सेवा बहाल होने पर, भाई जीवन का हिमाचल से फोन आया ! सभी की सुरक्षा का हाल जान कुछ तसल्ली मिली ! पर हालात बहुत ही सोचनीय बने हुए हैं ! प्रदेश भर में निजी संपत्तियों को बेहिसाब नुकसान हुआ है तथा पूरे प्रदेश में सामान्य जनजीवन प्रभावित है। जो कुछ लोग पानी की आपदा से सुरक्षित हैं, वे अन्य कारणों से असुरक्षित हैं ! पीने के पानी की बेहद तंगी है ! समुद्र जैसा हाल हो गया है कि चारों ओर पानी ही पानी पर पीने को ज़रा सा भी नहीं ! बच्चों को दूध मिलना मुश्किल हो रहा है ! खाने का सामान है तो पकाने की चिंता सामने खड़ी है ! गैस ख़त्म हो जाए तो पकाने का और कोई साधन उपलब्ध नहीं है ! लकड़ियां गीली हैं ! बिजली बंद है ! सूखे उपले मिल नहीं रहे ! कोई बीमार पड़ जाए तो डॉक्टर के पास ले जाना दूभर है !
बार-बार चेताने के बावजूद, अपनी बेजा हरकतों से बाज नहीं आने वाले मनुष्यों को सबक सिखाने के लिए प्रकृति कितना और कब तक इंतजार करे ! और क्यों करे ! इंसान तो बाज आने से रहा ! पर क्रोधावस्था में रौद्र रूप धारण कर वह निर्दोष पशु-पक्षियों, लता-गुल्मों-पादपों का, यानी अपना भी संहार करती चली जा रही है ! मजबूरी है घुन का पिसना ! पहाड़ों के पेड़ों को अपने घरों को सुंदर और पुख्ता बनाने की ललक ने उनको अपनी जमीन से अलग तो कर दिया पर वही आशियाने तिनकों की तरह पानी के सैलाब में बह गए ! क्या मिला ? इसके बावजूद भविष्य में इंसान कोई सबक लेगा ? सुधरेगा ? पर यक्ष प्रश्न है कि क्या सुधरना उसके अपने बस में रह भी गया है ?
आज हजारों टन मिट्टी, पत्थर, चट्टाने जो पहाड़ों से अलग नीचे बिखरी पड़ी हैं, उन्हें वापस पहाड़ों पर फिर से ले जाया, लगाया तो नहीं जा सकता ! जीवन सुचारु बनाने के लिए वैसे छोड़ा भी नहीं जा सकता ! तो..........! तो वही होगा जो वर्षों से होता चला आया है ! सारा का सारा मलबा घाटियों में धकेल दिया जाएगा ! जो समय के साथ नदियों में जा गिरेगा ! नदियों के तल ऊँचे होते चले जाएंगे ! फिर पानी बरसेगा, फिर बर्फ पिघलेगी, फिर नदियाँ उफान पर आएंगी और फिर........!
पर सारा दोष तो उस लालच को नहीं दिया जा सकता जिसने प्रकृति का दोहन किया ! सुदूर पहाड़ों या दुर्गम क्षेत्रों में रहने वाले भले ही प्रकृति की गोद में रह रहे हों पर उनका रोजमर्रा का जीवन अति कष्टकारी था ! देश के विकास का असर, अन्य संसाधनों-सुविधाओं की पहुँच उन तक ना के बराबर थी ! सेना के आवागमन के लिए सड़कें तो थीं पर पर्याप्त नहीं थीं ! फिर दुर्गम क्षेत्रों में आने-जाने के लिए, सामान पहुंचाने के लिए मार्ग बने ! आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाने के लिए पर्यटन को बढ़ावा दिया गया ! सुविधाएं बढ़ीं तो लोग पहुँचने लगे ! भीड़ बढ़ी तो उनके रहने, ठहरने के लिए होटलों की जरुरत पड़ी ! जिसके लिए जगलों को काट कर जगह बनाई गई ! जंगलों के वृक्ष कटे तो उनकी पकड़ के बगैर जमीन भुरभुरी हो गई ! फिर वही चक्र...! बरसात हुई, पहाड़ खिसके, नदी का तल ऊँचा हुआ , बाढ़ आई !
फिर वही ''तो''....! इस तो का तो सरल सा उपाय तो था, पर उस पर किसी ने अमल करने की जहमत नहीं उठाई ! कायनात का कायदा है, इस हाथ ले उस हाथ दे ! फिर कुदरत तो कभी भी उतना वापस भी नहीं चाहती, जितना वह लुटाती है ! पर हमारी खुदगर्जी ने यह भुला दिया कि किसी की भलमनसाहत का नाजायज फ़ायदा नहीं उठाना चाहिए ! क्या फायदा उस ज्ञान का, उस विकास का, जो अपने ही विनाश का कारण बने ! अभी भी यह एक चेतावनी ही है कि सुधर जाओ, नहीं तो...........!
6 टिप्पणियां:
नहीं तो से आगे की कल्पना और भयावह है
सामयिक उम्दा चेतावनी
जी विभा जी, पर लगता नहीं कि हम कुछ ज्यादा गंभीर हैं🙁
जंगलों के वृक्ष कटे तो उनकी पकड़ के बगैर जमीन भुरभुरी हो गई ! फिर वही चक्र...! बरसात हुई, पहाड़ खिसके, नदी का तल ऊँचा हुआ , बाढ़ आई !
समयचक्र का परिवर्तन आवश्यक
और यह लेखक और कविताकार ही कर सकते हैं
सकारात्मक प्रस्तुति
आभार
सादर...
यशोदा जी
अनेकानेक धन्यवाद 🙏
विचारणीय पोस्ट
अनीता जी
हार्दिक आभार आपका🙏
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