शनिवार, 9 अक्तूबर 2021

क्या हम लार्वा से कोकून हो गए हैं

हमारे लिए सब कुछ मात्र एक मामूली सी खबर बन कर रह जाता है ! पढ़ी-देखी और ''च्च..च्च'' कर पेज या चैनल बदल दिया ! क्यों नहीं दहलते हम कश्मीर में दो दिनों के अंदर पांच हत्याओं पर ? क्यों अब हमारे घरों में मोमबत्तियां ढूंढे नहीं मिलती ? क्यों अब हमारे ''एवार्ड'' वापस होने के लिए नहीं मचलते ? क्यों हम काले कपडे पहन मौन जुलुस नहीं निकालते ? क्यों और कैसे हम अचानक सहिष्णु बन गए ? वह भी ऐसे लोगों की नृशंस हत्या पर, जो समाज कल्याण या फिर निर्भयता के प्रतीक बने हुए थे..........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 
एक समय था जब हम अपने सर्व धर्म समभाव, विविधता में एकता, अपने भाईचारे इत्यादि का बड़े गर्व से बखान किया करते थे ! जरा सी हिंसा-विद्वेष होता तो पूरे देश में चिंता की लहर दौड़ जाया करती थी ! अमन-चैन के लिए प्रार्थनाएं होने लगती थीं। पर धीरे-धीरे (कारण कुछ भी हो) वही विशेषताएं हमारी कमजोरियां बनती चली गईं ! समभाव-एकता-भाईचारा सब तिरोहित होते चले गए ! संवेदनाएं जैसे ख़त्म ही हो गईं ! हम सब अलग-अलग जात-पांत-भाषा-धर्म के विभिन्न खांचों में फिट हो गए और उनको खल, चंट व अधम लोगों की रहनुमाई में छोड़ दिया ! अब खांचा विशेष से संबंधित बातों से ही हमारा मतलब रह गया ! इसीलिए मौकापरस्त मीडिया हमें उद्वेलित करने के लिए अब अपनी खबरों में किसी खांचा विशेष के इंसान की मौत या उस पर हुई ज्यादति के साथ उस इंसान के धर्म-जात-पांत का उल्लेख  भी प्रमुखता से करने लगा !  

ऐसा लगने लगा है कि जैसे हम में से अधिकांश लोग कोकूनधारी हो गए हैं ! संवेदनहीन, उदासीन, निर्लिप्त ! अपने आस-पास के माहौल, दीन-दुनिया से परे अपने खोल में सिमटे हुए ! कितनी भी बड़ी घटना हो, वारदात हो, नृशंसकता हो हमें कुछ नहीं व्याप्कता ! हमें फर्क नहीं पड़ता जब बंगाल में प्रतिशोध के तहत निर्दोष और मासूम लोग जान गंवा देते हैं ! हमें तो उस बारूद की तेज गंध भी महसूस नहीं होती जो इधर अचानक कश्मीर की हवा को गंधाने लगी है ! हमने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया कि देश-समाज-आम इंसान के लिए कभी, कुछ भी न करने वाला, कैसे अपने सूबे के बाहर जा कर सियासतदारी कर रहा है ! हम  यह भी नहीं पता कि झूठ के पैर होते हैं कि नहीं ! हम तो इन तन-धारी झूठों के दिखाए दिवास्वपनों में यूं गाफिल हैं कि हमारा ध्यान कभी उनके पैरों की तरफ जाता ही नहीं !  

हमारे लिए सब कुछ मात्र एक मामूली सी खबर बन कर रह जाता है ! पढ़ी-देखी और ''च्च..च्च'' कर पेज या चैनल बदल दिया ! क्यों नहीं दहलते हम कश्मीर में दो दिनों के अंदर पांच हत्याओं पर ? क्यों अब हमारे घरों में मोमबत्तियां ढूंढे नहीं मिलती ? क्यों अब हमारे ''एवार्ड'' वापस होने के लिए नहीं मचलते ? क्यों हम काले कपडे पहन मौन जुलुस नहीं निकालते ? क्यों और कैसे हम अचानक सहिष्णु बन गए ? वह भी ऐसे लोगों की नृशंस ह्त्या पर जो समाज कल्याण या फिर निर्भयता के प्रतीक बने हुए थे ! वैसे हम अपने कोकून में तब भी कहां कसमसाए थे, जब तीसियों साल पहले लाखों लोगों को दरबदर कर दिया गया था।

धर्म-जात-पांत पर सियासत करने वाला कोई एक, सिर्फ एक, अपने को बंदा समझने वाला, हिम्मत है तो सामने आ कर यह बताए कि उन बेगुनाह, निर्दोष, परहितैषी दोनों अध्यापकों सुपिंदर कौर और दीपक चंद को क्यों और किसलिए मारा गया ! वह नेक महिला तो अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा बिना किसी भेदभाव के, जरूरतमंद बच्चों के भविष्य को संवारने में खर्च कर डालती थी ! इतना ही नहीं, खुद और अपने परिवार की आर्थिक तंगी के बावजूद उसने धर्म-जात-पांत के संकीर्ण नजरिए से ऊपर उठ, एक मुस्लिम बालिका को गोद ले, उसकी सारी जिम्मेदारी उठाने के बावजूद, उसे एक मुस्लिम परिवार में ही रखा था, जिससे कि बच्ची को अपने धर्म की भी पूरी शिक्षा मिल सके !  उधर दीपक चंद अपनी सैलरी से मदरसों की मदद करते रहते थे ! कितने लोग जानते हैं इन दोनों को और इनके नेक कर्मों को, उनकी इंसानियत को, उनकी परोपकार की भावना को, उनके त्याग को ! चुपचाप बिना किसी अपेक्षा और भेदभाव के दूसरों का भला करने के बदले में उन्हें क्या सिला मिला.............!!
 
हम जैसे आम इंसानों को पता नहीं चलता कि सरकार अंदर ही अंदर क्या कर रही है ! खुलासा होना भी नहीं चाहिए ! कर ही रही होगी कुछ ना कुछ ! चुप तो नहीं ही बैठी होगी ! पर अवाम में बहुत आक्रोश है ! उसे तुरंत कार्यवाही होते देखनी है ! अब हर देशवासी यही चाहता है कि आर-पार हो ही जाए ! बहुत हो गया ! अब तो ''शठे शाठ्यम समाचरेत'' के साथ ही ''धर्मसंस्थापनार्थ हि प्रतिज्ञैषा ममाव्यया'' का वक्त भी आ गया है ! इसके तहत बाहरी शत्रु को तो नष्ट करना ही है भीतरघातियों, चाहे वे कितने बड़े रसूखदार हों, को भी नहीं बक्शना है ! फिर चाहे कितनी भी मोमबत्तियां जलें, कितने भी काले कपडे पहने जाएं, कितने भी एवार्ड वापस हों, कितने भी घड़ियाली आंसू बहें ! कोई फ़िक्र नहीं ! क्योंकि प्रभु भी यही कहते हैं कि ''भय बिनु होइ न प्रीति !'' एक बार धर्म की स्थापना के साथ ही भय की भी स्थापना होना बहुत जरुरी हो गया है, वह भी बिना और किसी तरह के विलंब के !

11 टिप्‍पणियां:

Sanju ने कहा…

सुंदर, सार्थक रचना !........
ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

बहुत सुंदर और सार्थक आलेख, बहुत से विचारणीय बिंदु उभरे। नवरात्रि की ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं आप सभी को। जय श्री राधे।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

संजू जी
आमंतरण के लिए हार्दिक धन्यवाद ! ''कुछ अलग सा'' पर आपका भी सदा स्वागत है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कामिनी जी
सम्मिलित कर मान देने हेतु आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुरेंद्र जी
हार्दिक आभार ! आपको भी सपरिवार, पावन पर्व की शुभकामनाएं

Chetan ने कहा…

सच में! हम सब अपने-अपने खोलों में सिमट कर रह गए हैं

कदम शर्मा ने कहा…

सोचने को मजबूर करती रचना! आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

चेतन जी
यही विडंबना है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कदम जी
ब्लॉग पर पधारने का बहुत-बहुत धन्यवाद

MANOJ KAYAL ने कहा…

बहुत सुन्दर आलेख

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बहुत-बहुत आभार, मनोज जी

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