गुरुवार, 4 मार्च 2021

द्रोणाचार्य, एक पहलू ऐसा भी

प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैले श्रृंगवेरपुर राज्य के राजा निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र एकलव्य से जुडी घटना को कुछ लोगों ने गलत अर्थों में लिया और उस बात को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन की नींव डाल दी ! जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि एकलव्य ने गुरु द्रोण को धर्मसंकट में पड़ा देख, बिना उनके कहे, खुद ही अपना अंगूठा काट कर उनको अर्पित कर दिया था ! वैसे इस घटना को भी श्री कृष्ण जी की दूरंदेशी का परिणाम माना जाता है जो आज के हरियाणा की साइबर सिटी गुरुग्राम में हजारों साल पहले घटित हुई थी....................!!

#हिन्दी_ब्लागिंग    

हमारे ग्रंथों में वर्णित कई ऐसे पात्र हैं जिनके जीवन चरित्र के बारे में अनायास कई जिज्ञासाएं उठ खड़ी होती हैं ! जैसे महाभारत के महान योद्धा, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर, युद्धविद्या में निष्णात, अस्त्र-शस्त्र विशेषज्ञ, परशुराम शिष्य, कुरुवंश गुरु आचार्य द्रोण ! जिनको भगवान् कृष्ण भी प्रणाम करते थे ! पर इतने गुणी, सक्षम, ज्ञानी, और पराक्रमी होने के बावजूद उन्हें शुरू में अभावों का सामना करते रहना पड़ा था ! कथाओं के अनुसार उनके जीवन का पूर्वार्द्ध बहुत ही संघर्षमय, कठिन व अभावपूर्ण रहा था ! देखा जाए तो जितना कठिन उनका जीवन रहा उतना ही जटिल उनका चरित्र भी था। 

हो सकता है अर्जुन की निष्ठा, लगन तथा समर्पण के कारण गुरु का उसकी तरफ कुछ झुकाव हो पर यह बात भी पूरी तरह सही साबित नहीं होती ! यदि ऐसा होता तो क्या भरी सभा में अपने प्रिय शिष्य की पत्नी का सम्मान भंग होते चुपचाप देखते रहते ! क्या अपने प्रिय शिष्य के विरुद्ध उसी की जान के ग्राहक बन युद्ध लड़ते ! क्या अपने प्रिय शिष्य के पुत्र की हत्या का कारण बनना पसंद करते

ऐसा माना जाता है कि द्रोण का जन्म, आज के उत्तरांचल की राजधानी देहरादून, जिसका उल्लेख महाभारत में द्रोणनगरी जिसे देहराद्रोण (मिट्टी का सकोरा) भी कहा जाता रहा है, में हुआ था। इस इलाके में फैले मंदिरों और उपलब्ध मूर्तियों से भी इस बात की पुष्टि होती है। इनके पिता महर्षि भारद्वाज तथा माता अप्सरा घृतार्ची थीं। परिस्थियोंवश इनकी उत्पत्ति द्रोणी (यज्ञकलश) में हुई थी, इसलिए इनका नाम द्रोण पड़ा। इनका बचपन, लालन-पालन अपने पिता ऋषि भारद्वाज के आश्रम में ही हुआ। वहीं इन्होंने हर विद्या में निपुणता प्राप्त की। समयानुसार इनका विवाह आचार्य कृपाचार्य की बहन कृपि से सम्पन्न हुआ। 

इन सारे विवरणों को जान कर जिज्ञासा का उठना स्वाभाविक है कि एक ऐसा इंसान जो महान ऋषि भारद्वाज का पुत्र हो, आचार्य कृपाचार्य जिसके रिश्तेदार हों ! जो खुद इतना ज्ञानी, गुणी, विद्वान और पराक्रमी हो ! क्यों उसे शुरू में इतने अभाव में जीवनयापन करना पडा कि वह एक गाय तक पालने में असमर्थ था ! क्यों गरीबी के कारण उसे अपने मित्र द्वारा अपमानित होना पड़ा ! क्यों काम की तलाश में दर-दर भटकना पड़ा ! क्यों उसको अपनी योग्यता के अनुरूप यश नहीं मिल पाया ! क्यों बदनामियों ने उसका दामन थामे रखा !  

यदि गहराई से ग्रंथों की कथाओं-उपकथाओं का अध्ययन किया जाए तो एकाध जगह आचार्य द्रोण और गुरु शुक्राचार्य की आपसी मित्रता का जिक्र मिलता है। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि असुरों के गुरु शुक्राचार्य से अंतरंगता के कारण इन्हें देवताओं का कोपभाजन बन सुख-समृद्धि से वंचित रहने पर मजबूर होना पड़ा हो और इसी कारण तिरस्कृत होने तक की नौबत आन पड़ी हो ! एक क्षीण सा कारण और भी संभव हो सकता है ! जैसा कि महाभारत में उनका जो चरित्र उभर कर आता है वह एक ऐसे इंसान का है जो सिर्फ और सिर्फ अपने परिवार की फ़िक्र करता है ! खासकर अपने बेटे की, जिसके सामने उसके लिए बाकी सारी बातें गौण हो जाती हैं। हो सकता है उनकी इसी मानसिकता के चलते हर कोई उनसे दूरी बना कर रखता हो। भीष्म पितामह को भी यह बात पता थी ! इसीलिए उन्होंने कुरु कुमारों की शिक्षा की जिम्मेदारी देते हुए उनसे वादा लिया था कि वे सिर्फ कौरववंश के राजकुमारों को ही शिक्षा देंगे। जाने अनजाने यह बात भी आगे चल कर उनकी बदनामी का एक कारण बन गई।  

गुरु द्रोणाराचार्य ने यह कभी नहीं कहा कि मैंने किसी शूद्र को शिक्षा नहीं देने का प्रण लिया है। ऐसा होता तो वे सूत पुत्र कर्ण को भी अपना शिष्य ना बनाते। कुरुवंश से जुड़ने के पहले ऐसी किसी बात का कोई कारण भी नहीं बनता ! भीष्म पितामह को वचन देने के पहले यदि एकलव्य उनसे मिला होता तो उसे अपना शिष्य बनाने में उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं होती। क्योंकि एकलव्य कोई साधनहीन या निर्धन परिवार का सदस्य नहीं था। वह प्रयाग के तटवर्ती प्रदेश में सुदूर तक फैले श्रृंगवेरपुर राज्य के राजा  निषादराज हिरण्यधनु का पुत्र था। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चंदेरी आदि बड़े राज्यों के समकक्ष थी। लेकिन एकलव्य से जुडी घटना को कुछ लोगों ने गलत अर्थों में लिया और उस बात को बड़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करके समाज में विभाजन की नींव डाल दी ! जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि एकलव्य ने, अपने गुरु को धर्मसंकट में पड़ा देख, बिना उनके कहे, खुद ही अपना अंगूठा काट कर उनको अर्पित कर दिया था ! वैसे इस घटना को भी श्री कृष्ण जी की दूरंदेशी का परिणाम माना जाता है जो आजके हरियाणा की साइबर सिटी गुरुग्राम में हजारों साल पहले घटित हुई थी। लोकमान्यता के अनुसार इन्द्रप्रस्त का राजा बनने पर युधिष्ठिर ने यह गांव अपने गुरु द्रोणाचार्य को दे दिया था। उनके नाम पर ही इसे गुरुग्राम कहा जाने लगा, जो कालांतर में बदलकर गुड़गांव हो गया।

रही अर्जुन से अति लगाव की बात, तो हो सकता है अर्जुन की निष्ठा, लगन तथा समर्पण के कारण गुरु का उसकी तरफ कुछ झुकाव हो पर यह बात भी पूरी तरह सही साबित नहीं होती ! यदि ऐसा होता तो क्या भरी सभा में अपने प्रिय शिष्य की पत्नी का सम्मान भंग होते चुपचाप देखते रहते ! क्या अपने प्रिय शिष्य के विरुद्ध उसी की जान के ग्राहक बन युद्ध लड़ते ! क्या अपने प्रिय शिष्य के पुत्र की हत्या का कारण बनना पसंद करते ! इन सब बातों से तो यही निष्कर्ष निकलता है कि महान होने के बावजूद उनमें इंसानी कमजोरियों की बहुतायद थी। परिवार के प्रति मोह था ! पुत्र प्रेम सर्वोपरि था ! अहम की भावना गहरी थी। क्षमा भाव की कमी थी ! इन्हीं सब वजहों से उन्हें वह आदर-सम्मान-ख्याति नहीं मिल पाई जो पितामह भीष्म को मिली ! उलटे, झूठे-सच्चे लांझनों से सदा उन्हें दो-चार होते रहना पड़ा।   

18 टिप्‍पणियां:

yashoda Agrawal ने कहा…

सादर नमन
गुरु द्रोण
ने दक्षिणा मांगा
पर अंगूठा नहीं माॆगा
एकलव्य हस्तिनारपुर वासी था
एक कबीले सरदार का तड़का
अगम ज्ञानी द्रोण को पता था कि युद्ध होने वाला है
और एकलव्य़ उस युद्ध मे भाग लेगा
उसके प्रिय शिष्य अर्जुन के लिए खतरा बन सकता है
सो गुरुवर में दक्षिणा में यह मांगा कि वत्स तुम
हस्तिनापुर की ओर से युद्ध नहीं करोगे
तो एकलव्य ने गुरुवर से यह कहा...
गुरुवर आपने ये क्या मांग लिया
मुझसे आपने मेरा अंगूठा ही माग लिया
इतना कहकर एकलव्य हस्तिनापुर छोड़ दिया
मैं विस्तार से पढ़ी हूँ...
सटीक लिंक आपको मैे दो रोज में देती हूँ
सादर


Digvijay Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 04 मार्च 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

जी पूरी तरह सहमत। पर इसमें गुरु द्रोण से ज्यादा श्रीकृष्ण जी की दूरंदेशी या दूरदर्शिता थी। उन्हीं की इच्छानुसार सब कुछ घटित होना था और हुआ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

दिग्विजय जी
बहुत-बहुत धन्यवाद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

अच्छी जानकारी।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हार्दिक आभार, शास्त्री जी

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

पढ़कर मन आनंदित हो गया..गगन जी, ब्लॉग से जुड़कर अप लोगो की ऐसी बढ़िया आलेख से जानकारी के साथ साथ सुंदर अनुभूति का अहसास भी होता है ..

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

जिज्ञासा जी
हार्दिक आभार । सदा स्वागत है, आपका

Meena Bhardwaj ने कहा…

ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित ज्ञानवर्धक आलेख ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मीना जी
अनेकानेक धन्यवाद

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

महाभारतकालीन घटनाओं को कालान्तर में लेखकों ने अपने हिसाब से निरूपित करना शुरू कर दिया,और जनता उसे ही तथ्यवत् स्वीकारने लगी.ऐसा ही प्रकरण राधा काे साथ जोड़ कर -जिसने कृष्ण के रूप को दूसरे प्रकार से विकसित किया.और जीवन भर संघर्षों से जूझनेवाले,निष्काम कर्म करनेवाले श्रीकृष्ण को रसिक,बल्कि लम्पट नायक बना डाला.अगर यों कहें किअपनी कामुक वृत्तियों को उन पर आरोपित करने का क्रम चल पड़ा.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

प्रतिभा जी
बिल्कुल सही ! रामायण-महाभारत जैसे ग्रंथों पर ज्यादा हमला हुआ क्योंकि ये लोकप्रियता के शिखर पर थे ! इसके अलावा आक्रांताओं और नवधर्मों क्व द्वारा अपने पंथ-धर्म-संस्कृति के लिए जो अवांछनीय था वह सब भी अपनाया गया। इसमें धन की लालसा के कारण किए गए उद्यमों को भी नकारा नहीं जा सकता !

MANOJ KAYAL ने कहा…

सुन्दर और सार्थक सृजन

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

मनोज जी
हार्दिक आभार

संजय भास्‍कर ने कहा…

प्रणाम !
आपके लेखन के बारे में कुछ कहना तो सूरज को दिया दिखाना होगा..

MS Aamir ने कहा…

Nice post from Aaj Tak Breaking News In Hindi Today

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

संजय जी
ऐसा न कहें, संकोच होता है। यह तो आपलोगों का स्नेह है जो मेरे साधारण से शब्दचयन को इतना मान देते हैं

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

Auto Blogging
स्वागत है आपका

विशिष्ट पोस्ट

दीपक, दीपोत्सव का केंद्र

अच्छाई की बुराई पर जीत की जद्दोजहद, अंधेरे और उजाले के सदियों से चले आ रहे महा-समर, निराशा को दूर कर आशा की लौ जलाए रखने की पुरजोर कोशिश ! च...