यदि दादी से किसी ने मजाक में ही कह दिया कि माताजी, चाचे से (नेहरू जी से) किसी घर-वर की बात कर लो: तो हत्थे से उखड जातीं ! खूब डांट-डपट-लानत-मलानत होती ! फिर शांत होने पर समझातीं कि देश को बनाना है, संवारना है, दुनिया में उसका नाम रौशन करना है। हर तरह से, तन-मन से उसकी सहायता करनी है, ना कि उससे ले-ले कर उसे कमजोर बनाना है ! आज समय बहुत बदल गया है ! कुछ लोग सिर्फ अपने पुरखों के नाम और कर्मों की बदौलत हितग्राही बन, वह भी अनधिकृत रूप से, सुख-सुविधा भोगते और उसका दुरुपयोग करते दिखते हैं ! ऐसा होते देख मन में कई सवाल तो जरूर उठते हैं, पर कभी भी अपनी दादी माँ की भावना और उनके द्वारा लिया गया निर्णय गलत नहीं लगता ..........!
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
देश को आजाद करवाने के लिए सालों लड़ाइयां लड़ी गईं। जुल्म सहे गए ! कुर्बानियां दी गईं ! उस समय एक ही लक्ष्य, एक ही उद्देश्य, एक ही जज्बा था, किसी भी तरह गुलामी से मुक्ति ! धीरे-धीरे समय आगे बढ़ता रहा। देश-विदेश की परिस्थितियां बदलती रहीं। फिर एक समय ऐसा आ गया कि आजादी सामने दिखने लगी। ऐसे में कई चतुर लोग मौका भांप, जान-माल के खतरे की नगण्यता को सूँघ इस अभियान में शामिल हो स्वतंत्रता सेनानी का ओहदा पा गए। ऐसे लोगों को देश की हालत से कोइ मतलब ना था ! ये अपनी तिकड़मों के चलते परतंत्रता में भी संपन्न और खुशहाल थे। पर इनकी पारखी आँखों ने आजादी के बाद की लूट-खसोट का जायजा ले लिया था। इनकी ''कुर्बानियां'' गजब का रंग लाईं और आने वाले समय का भाग्य-विधाता बना गईं।
हमारी दादी, पूरा परिवार उन्हें माताजी के नाम से संबोधित करता था। प्रेमिल भी बहुत थीं पर परिवार पर रुआब भी था। कलकत्ते के आर्यसमाज की अग्रणी कार्यकर्ता ! अंग्रेजों के विरोध में दसियों बार जेल गईं ! आजादी के कुछ महीनों पहले, अलीपुर जेल में आभा मायती जी, जो आजादी के बाद में बंगाल में मंत्री बनी, के साथ तिरंगा चढ़ाने की सजा के रूप में दी गई प्रतारणा स्वरुप अपनी आँखों की रौशनी भी गंवा दी ! उन दिनों भले ही घर की माली हालत अच्छी नहीं थी ! फिर भी आजादी के बाद सरकार से कभी किसी भी तरह की अपेक्षा या लाभ का सोचा भी नहीं ! वैसी इच्छा को कभी पनपने ही नहीं दिया ! एक ही मूल मंत्र ''देश से कुछ पाने के लिए हमने लड़ाइयां नहीं लड़ीं,'' ऐसा कहते हुए चुपचाप गुमनामी की चादर ओढ़ जिंदगी गुजार दी !
हमारी दादी माँ |
उम्र कम होने के कारण उस समय हमें क्या पता था कि आजादी क्या होती है और गुलामी क्या ! पर वे तकरीबन रोज महापुरुषों की गाथाएं सुनाया करती थीं। जेहन में गहराई तक पैबस्त एक-दो वाकये कभी नहीं भूलते। जैसे अबुल कलाम आजाद जी के देहावसान के दिन घर में खाना नहीं बना था ! शोक ग्रस्त रहीं थीं दिन भर। पंद्रह अगस्त के दिन काफी खुश रहती थीं। सुबह से नहा-धो कर खादी की साड़ी पहन, हारमोनियम पर भजन-तराने गाया-सुनाया करती थीं। जब हम कुछ बड़े हुए तो यदि मजाक में ही कह दिया कि माताजी, चाचे से (नेहरू जी से) किसी घर-वर की बात कर लो: तो घर में तूफान का उठना लाजिमी था ! हत्थे से उखड जातीं ! खूब डांट-डपट-लानत-मलानत होती ! प्यार बहुत करती थीं, इसलिए कभी उनसे ठुकाई नहीं मिली ! फिर शांत होने पर समझातीं कि देश को बनाना है, संवारना है, दुनिया में उसका नाम रौशन करना है। हर तरह से, तन-मन से उसकी सहायता करनी है, ना कि उससे ले-ले कर उसे कमजोर बनाना है !
कभी-कभी साक्षात अपने साथ हो चुकी उन सब बातों पर आश्चर्य भी होता है, कि क्या सचमुच ऐसे लोग हुए थे ! पर हुए थे तब ही तो देश आजादी पा सका ! आज समय बहुत बदल गया है ! उस समय के लोग बहुत कम बचे हैं ! जो बचे भी हैं वे अप्रासंगिक हो चुके हैं। मान्यताएं बदल गयी हैं ! देश हाशिए पर सिमट गया है ! मैं और मेरा परिवार प्रमुख हो गए हैं ! ज्यादातर सत्ता उन लोगों के हाथ में चली गई है जिनकी पिछली पीढ़ी ने भी स्वतंत्रता की लड़ाई के बारे में किताबों में ही पढ़ा होगा ! बहुतों ने तो पढ़ने की जहमत भी नहीं उठाई होगी ! इसीलिए आज जब कुछ लोग सिर्फ अपने पुरखों के नाम और कर्मों की बदौलत हितग्राही बन, वह भी अनधिकृत रूप से, सुख-सुविधा भोगते और उसका दुरुपयोग करते दिखते हैं, तो मन में कई सवाल तो जरूर उठते हैं, पर कभी भी अपनी दादी माँ की भावना और उनके द्वारा लिया गया निर्णय गलत नहीं लगता ! हाँ, उनके बारे में सोचते हुए या उनकी याद आने पर आँखें जरूर नम हो जाती हैं !
13 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर और भावप्रवण।
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(०४-०-७२०२०) को 'नेह के स्रोत सूखे हुए हैं सभी'(चर्चा अंक-३७५२) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
Prabhu ki Kripa se unke ant samay tak unkee sewa ka suyog milta raha.
शास्त्री जी
ना चाहते हुए भी आज कल के बद-हालात को देख लिखने से रुका नहीं जाता !
अनीता जी
रचना को सम्मान देने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
कदम जी
आप सौभाग्यशाली हैं
ऐसे हजारों हजार लोगों ने खुद को गुमनाम रखा, क्योंकि उनका मुख्य उद्देश्य, आजादी पाना, हासिल हो चुका था। पर उनकी यही चुप्पी सैंकड़ों मौकापरस्तों को अवसर लपकने के लिए खुला छोड़ गयी !
आदरणीय गगन शर्मा जी, नमस्ते! बहुत अच्छा संस्मरण! उससमय लोग देश को आगे देखना चाहते थे। आज हम अपने नाम को आगे देखें चाहते हैं। यही फर्क आ गया है।--ब्रजेन्द्रनाथ
नमस्कार ब्रजेंन्द्रनाथ जी
वो भी बिना कुछ किए धरे
माताजी को सादर नमन। सचमुच निस्वार्थ भाव से देश सेवा के प्रति समर्पित ऐसे लोग अब कम ही बचे हैं। सुन्दर प्रेरक संस्मरण। हो सकें तो उनकी यादों और जो कहानियाँ वो सुनाती थीं उन कहानियों को भी साझा कीजियेगा।
विकास जी
आपका हार्दिक स्वागत है
Sadar Naman
कदम जी
पधारने हेतु हार्दिक आभार
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