फिल्म निर्माण के दौरान ही बनाने वालों को उसकी कमियों का आभास हो जाता है। पर तब तक फिल्म इतना पैसा खा चुकी होती है कि उसको संभालने के लिए कुछ भी करना असंभव हो जाता है ! तब वही ''डर्टी ट्रिक'' अपनाई जाती है। अभी ऐसा ही एक सोचा-समझा षड्यंत्र रचा गया, जब छपास की नायिका दीपिका को एक विवादित यूनिवर्सिटी में ले जा खड़ा कर दिया गया ! बवाल मचना ही था; सो मचा ! दसियों लाख लोग ट्विटर युद्ध में शमिल हो गए ! हर जुबां पर फिल्म का नाम आ गया ! इधर आग लगा, शातिर लोग अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुए अपने दड़बों में जा दुबके, देश-समाज का नुक्सान हुआ, उनकी बाला से ............!!
#हिन्दीं_ब्लागिंग
हमारे देश में आज फिल्मों से जुड़े लोगों की एक नई जमात पैदा हो चुकी है। जो बाकी देशवासियों से बिल्कुल जुदा है। अवाम से अपने को इतर समझ इन लोगों ने अपने चारों ओर एक ऐसा आभामंडल रच डाला है, जिसकी चकाचौंध में चुंधियाई हुई वर्तमान पीढ़ी दिग्भर्मित हो उन्हें खुदा समझ बैठी है ! फ़िल्मी नायक-नायिकाओं की चाल-ढाल, हाव-भाव की नक़ल पहले भी होती थी पर अब तो जैसे अति ही हो चुकी है ! कुछ मतिहीनों ने उन्हें भगवान का दर्जा तथा उनके वचनों को पत्थर की लकीर बना डाला है। सौ साल से ऊपर की इस फ़िल्मी माया नगरी में कुछेक समर्पित लोगों को छोड़, तक़रीबन सभी का धर्म, ईमान, इंसानियत, रिश्ते-नाते, व्यवहार सभी कुछ सिर्फ पैसे से नियंत्रित होता है। इन सभी का भगवान पैसा ही है। उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं ! कुछ भी !!
आज फिल्म बनाने का धंधा इतना मंहगा हो चुका है कि अपनी फिल्म की लागत वापस लाने के लिए निर्माता किसी भी हद तक जा सकता है। जान-बूझ कर लोगों की भावनाओं को भड़का कर देश-समाज में अशांति फ़ैलाने से भी ये बाज नहीं आते। इसके उदाहरण कुछेक अंतराल के बाद सामने आते ही रहते हैं। फिल्म के निर्माण के दौरान निर्देशक की नजर से सेट पर एक मक्खी तक नहीं बच सकती, तो यह कैसे संभव है कि उनकी मर्जी के बगैर विवादित संवाद या दृश्य फिल्मांकित हो जाएं। जान-बूझ कर ऐसी हरकतों को अंजाम दिया जाता है जिससे फिल्म को मुफ्त में प्रचार मिले ! जिस तरह किसी बावर्ची को खाना बनाते समय ही अपने द्वारा बनाए जा रहे खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता या उसकी कमी का अंदाजा हो जाता है ठीक उसी प्रकार फिल्म निर्माण के दौरान ही बनाने वालों को उसकी कमियोंऔर गुणवत्ता का आभास हो जाता है। पर तब तक फिल्म इतना पैसा खा चुकी होती है कि उसको संभालने के लिए कुछ भी करना असंभव हो जाता है ! तब वही ''डर्टी ट्रिक'' अपनाई जाती है।
इधर कुछ समय से फिल्मों के प्रचार के लिए एक नया तरीका चलन में है जिसके तहत फिल्म के कलाकार टी.वी. पर या विभिन्न जगहों पर जा अपनी आने वाली फिल्म का प्रचार करते हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि जहां वे जा रहे हैं वह जगह ख्यात है या कुख्यात ! उनके लिए वह जगह सिर्फ चर्चित, ख़बरों में या लोकप्रिय होनी चाहिए, बस !
अभी ऐसा ही एक सोचा-समझा षड्यंत्र रचा गया, जब फिल्म छपाक की नायिका दीपिका को एक विवादित यूनिवर्सिटी में ले जा खड़ा कर दिया गया ! बवाल मचना ही था; सो मचा ! लाखों लोग ट्विटर युद्ध में शामिल हो गए, समाज दो फाड़ हो गया, देश-समाज का नुक्सान हुआ उनकी बला से ! उनका तो मनोरथ पूरा हो चुका था ! हर जुबां पर फिल्म का नाम आ चुका था ! फिल्म बनाने वाले और उनके सलाहकारों को शायद आभास हो गया था कि इस समय दो भारी-भरकम फिल्मों के साथ प्रदर्शित होने पर उनकी कृति हादसा सिद्ध होगी ! वैसे भी यदि दीपिका फिल्म से जुडी ना होती तो शायद इस फिल्म को स्क्रीन मिलने ही मुश्किल हो जाते, भले ही वह कितनी भी वास्तविकता के नजदीक हो, सच्चाई दर्शा रही हो। खबर तो यह भी थी कि पहले फिल्म यूनिट वालों की निर्भया के परिवार वालों से मिलने की बात थी पर फिर उन्हें ऐसा लगा कि वहां के ठंढाते माहौल में जाने से उतना प्रचार या ख्याति नहीं मिल पाएगी जितना कि जेएनयू जाने से ! वही हुआ ! इधर आग लगा, शातिर लोग अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुए अपने दड़बों में जा दुबके !
अब यह तो हमें ही देखना और सोचना है कि हम चंट लोगों के हाथ की कठपुतली ना बन जाएं ! कोई अपने उद्देश्य की पूर्ती के लिए हमें औजार ना बना ले ! अपनी हित सिद्धि के लिए हमारी आहुति ही ना दे दे। क्योंकि ऐसे लोगों के लिए देश, समाज या अवाम कोई अर्थ नहीं रखता ! इनका एक और एकमात्र उद्देश्य सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है।
#हिन्दीं_ब्लागिंग
हमारे देश में आज फिल्मों से जुड़े लोगों की एक नई जमात पैदा हो चुकी है। जो बाकी देशवासियों से बिल्कुल जुदा है। अवाम से अपने को इतर समझ इन लोगों ने अपने चारों ओर एक ऐसा आभामंडल रच डाला है, जिसकी चकाचौंध में चुंधियाई हुई वर्तमान पीढ़ी दिग्भर्मित हो उन्हें खुदा समझ बैठी है ! फ़िल्मी नायक-नायिकाओं की चाल-ढाल, हाव-भाव की नक़ल पहले भी होती थी पर अब तो जैसे अति ही हो चुकी है ! कुछ मतिहीनों ने उन्हें भगवान का दर्जा तथा उनके वचनों को पत्थर की लकीर बना डाला है। सौ साल से ऊपर की इस फ़िल्मी माया नगरी में कुछेक समर्पित लोगों को छोड़, तक़रीबन सभी का धर्म, ईमान, इंसानियत, रिश्ते-नाते, व्यवहार सभी कुछ सिर्फ पैसे से नियंत्रित होता है। इन सभी का भगवान पैसा ही है। उसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं ! कुछ भी !!
आज फिल्म बनाने का धंधा इतना मंहगा हो चुका है कि अपनी फिल्म की लागत वापस लाने के लिए निर्माता किसी भी हद तक जा सकता है। जान-बूझ कर लोगों की भावनाओं को भड़का कर देश-समाज में अशांति फ़ैलाने से भी ये बाज नहीं आते। इसके उदाहरण कुछेक अंतराल के बाद सामने आते ही रहते हैं। फिल्म के निर्माण के दौरान निर्देशक की नजर से सेट पर एक मक्खी तक नहीं बच सकती, तो यह कैसे संभव है कि उनकी मर्जी के बगैर विवादित संवाद या दृश्य फिल्मांकित हो जाएं। जान-बूझ कर ऐसी हरकतों को अंजाम दिया जाता है जिससे फिल्म को मुफ्त में प्रचार मिले ! जिस तरह किसी बावर्ची को खाना बनाते समय ही अपने द्वारा बनाए जा रहे खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता या उसकी कमी का अंदाजा हो जाता है ठीक उसी प्रकार फिल्म निर्माण के दौरान ही बनाने वालों को उसकी कमियोंऔर गुणवत्ता का आभास हो जाता है। पर तब तक फिल्म इतना पैसा खा चुकी होती है कि उसको संभालने के लिए कुछ भी करना असंभव हो जाता है ! तब वही ''डर्टी ट्रिक'' अपनाई जाती है।
इधर कुछ समय से फिल्मों के प्रचार के लिए एक नया तरीका चलन में है जिसके तहत फिल्म के कलाकार टी.वी. पर या विभिन्न जगहों पर जा अपनी आने वाली फिल्म का प्रचार करते हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि जहां वे जा रहे हैं वह जगह ख्यात है या कुख्यात ! उनके लिए वह जगह सिर्फ चर्चित, ख़बरों में या लोकप्रिय होनी चाहिए, बस !
अभी ऐसा ही एक सोचा-समझा षड्यंत्र रचा गया, जब फिल्म छपाक की नायिका दीपिका को एक विवादित यूनिवर्सिटी में ले जा खड़ा कर दिया गया ! बवाल मचना ही था; सो मचा ! लाखों लोग ट्विटर युद्ध में शामिल हो गए, समाज दो फाड़ हो गया, देश-समाज का नुक्सान हुआ उनकी बला से ! उनका तो मनोरथ पूरा हो चुका था ! हर जुबां पर फिल्म का नाम आ चुका था ! फिल्म बनाने वाले और उनके सलाहकारों को शायद आभास हो गया था कि इस समय दो भारी-भरकम फिल्मों के साथ प्रदर्शित होने पर उनकी कृति हादसा सिद्ध होगी ! वैसे भी यदि दीपिका फिल्म से जुडी ना होती तो शायद इस फिल्म को स्क्रीन मिलने ही मुश्किल हो जाते, भले ही वह कितनी भी वास्तविकता के नजदीक हो, सच्चाई दर्शा रही हो। खबर तो यह भी थी कि पहले फिल्म यूनिट वालों की निर्भया के परिवार वालों से मिलने की बात थी पर फिर उन्हें ऐसा लगा कि वहां के ठंढाते माहौल में जाने से उतना प्रचार या ख्याति नहीं मिल पाएगी जितना कि जेएनयू जाने से ! वही हुआ ! इधर आग लगा, शातिर लोग अपनी सफलता पर मुस्कुराते हुए अपने दड़बों में जा दुबके !
अब यह तो हमें ही देखना और सोचना है कि हम चंट लोगों के हाथ की कठपुतली ना बन जाएं ! कोई अपने उद्देश्य की पूर्ती के लिए हमें औजार ना बना ले ! अपनी हित सिद्धि के लिए हमारी आहुति ही ना दे दे। क्योंकि ऐसे लोगों के लिए देश, समाज या अवाम कोई अर्थ नहीं रखता ! इनका एक और एकमात्र उद्देश्य सिर्फ अपना स्वार्थ सिद्ध करना होता है।
2 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चार्च आज सोमवार (13-01-2020) को "उड़ने लगीं पतंग" (चर्चा अंक - 3579) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
रविंद्र जी, मुझे सम्मलित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद
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