जहां बाकी त्योहारों में अवाम अपने आराध्य की पूजा-अर्चना कर उसे खुश करने की कोशिश करता है, वहीं इस उत्सव में ''आराध्य'' दीन-हीन बन अपने भक्तों को रिझाने में जमीन-आसमान एक करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मजे की बात यह है कि आम जिंदगी में लोगों को अलग-अलग पंथों, अलग-अलग मतों को मानने की पूरी आजादी होती है और इसमें उनके आराध्य की कोई दखलंदाजी नहीं होती पर इस त्यौहार के ''देवता'' साम-दाम-दंड-भेद हर निति अपना कर यह पुरजोर कोशिश करते रहते हैं कि उनके मतावलंबी का प्रसाद किसी और को ना चढ़ जाए...........!
#हिन्दी_ब्लागिंग
हमारा देश तो सदा से उत्सव प्रिय रहा है। हफ्ते, महीने या साल में आने वाले ऐसे मौकों पर आम इंसान अपनी बेहतरी के लिए सारे रंजो-गम भूल-भूला कर उन्हें मनाने में कोई कोताही नहीं बरतता। ऐसा ही एक पंचसाला उत्सव आजकल अपने पूरे शबाब पर है। पर इसमें और बाकी त्योहारों में मूल फर्क यह है कि जहां बाकियों में अवाम अपने आराध्य की पूजा-अर्चना कर उसे खुश करने की कोशिश करता है, वहीं इसमें ''आराध्य'' दीन-हीन बन अपने भक्तों को रिझाने में जमीन-आसमान एक करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मजे की बात यह है कि आम जिंदगी में लोगों को अलग-अलग पंथों, अलग-अलग मतों को मानने की पूरी आजादी होती है और इसमें उनके आराध्य की कोई दखलंदाजी नहीं होती पर इस त्यौहार के ''देवता'' साम-दाम-दंड-भेद हर नीति अपना कर यह पुरजोर कोशिश करते रहते हैं कि उनके मतावलंबी का प्रसाद किसी और को ना चढ़ जाए।
इसी चेष्टा में यह उत्सव, उत्सव ना रह कर झूठोत्सव बन एक ऐसा संग्राम बन जाता है जिसमे सब कुछ जायज है। सब कुछ, गाली-गलौच, मार-पीट, धोखा-धड़ी, मौकापरस्ती, वायदे, विश्वासघात, झूठ, लालच, अपमान ! नहीं है तो सिर्फ अवाम की भलाई ! जिसकी गरीबी उसके परिवार का अभिन्न अंग बन चुकी है। जिसका अतीत भी आज है और भविष्य भी ! जिसके लिए बीमार पड़ जाना किसी अपराध से कम नहीं है ! उसे यह नहीं पता कि हाड-तोड़ मेहनत के बावजूद वह क्यों नहीं एक वक्त भी भरपेट भोजन कर पाता जबकि उसका ''आका'' बिन कुछ किए ही अपनी स्वर्ण नगरी स्थापित कर लेता है !
विचित्र हैं हमारे देशवासी ! जिस तरह वे हर अच्छाई, सौभाग्य, सुख का श्रेय भगवान को देते हैं और दुर्भाग्य को अपनी किस्मत का दोष मानते हैं ! खुद भूखे पेट भले ही हों धर्मस्थलों में भरसक दक्षिणा देने में नहीं हिचकिचाते ! इनके सामने ही इनके त्यागमय दान से धर्मस्थल ऐसी अकूत संपत्ति का ठीहा बन जाते रहे हैं जिसका कोई उपयोग नहीं होता। ठीक वैसे ही वर्षों से जाति, धर्म, भाषा, पंथ की भूलभुलैया में भटकाने वाले अपने आधुनिक देवताओं को ये कभी दोष नहीं देते ! सालों साल खुद एक झोपड़ी में पड़े-पड़े ही ये अपने आराध्यों के महल स्वर्णमंडित होता देख उसे भी उनका भाग्य और प्रभू का आशीर्वाद मान इसी बात पर निहाल होते रहते हैं कि अगला इनकी जाति का है ! उन्हें इस बात का कोई मलाल नहीं होता कि उसकी जाति-धर्म वाले ने उसका ''मनोरंजन'' करने के सिवा कुछ नहीं किया बल्कि उसे इस बात की ख़ुशी होती है कि उसके उसने फलांनी जाति और धर्म वाले को नीचा दिखा दिया। और यह नीचा दिखाने पर खुश होने की अफीम का डोज़ उसे सालों-साल दिया जाता रहा है और रहेगा !
शायद आसमान पर रहने वाला कभी जमीन की ओर देखे ! सद्बुद्धि वितरित करे ! शिक्षा बढे ! जन जागरण हो ! तब कहीं जा कर दिन बदलें ! कहने को तो कहा जाता है कि घूरे के भी दिन बदलते हैं ! पर अभी तो पता नहीं कितनी देर है ! पर जब तक देर है, तब तक तो अंधेर का रहना तय ही है !
10 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-04-2019) को "छल-बल के हथियार" (चर्चा अंक-3321) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
छल-बल ही सत्ता के स्थल तक ले जाने का माध्यम बन गया है ¡
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 29/04/2019 की बुलेटिन, " अंतरराष्ट्रीय नृत्य दिवस - 29 अप्रैल - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शिवम जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार
बहुत अच्छी पोस्ट
अच्छा लेख.
सही कहा ,हालात जल्दी नहीं बदलते ,
वर्षा जी, हार्दिक धन्यवाद
हर्ष जी, बहुत बहुत धन्यवाद
ज्योति जी, ब्लाॅग पर सदा स्वागत है
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