बुधवार, 12 दिसंबर 2018

''अहम् ब्रह्मास्मि'' होने का वहम

आम इंसान को तो वे अहमकाना नीतियां भी समझ नहीं आतीं जिनमें एक तरफ तो पर्यावरण के नाम पर निजी वाहनों के उपयोग को निरुत्साहित किया जाता है और दूसरी तरफ मेट्रो और बसों के किराए बढ़ा दिए जाते हैं। तो जब इस हार का विश्लेषण हो तो उन अर्थशास्त्रियों, सलाहकारों, विशेषज्ञों को भी जरूर तलब किया जाना चाहिए जो अपने वातानुकूलित कक्ष में बैठ बिना किसी की परेशानी को समझ सिर्फ अपने आकाओं को खुश करने की खातिर किसी भी कीमत पर पेट्रोल-गैस के दाम कम करने के खिलाफ थे। तख्तनशीं लोगों को भी समझ लेना चाहिए कि चुनाव में तेल कंपनियों को खुश करने की बजाय जनता का साथ ज्यादा जरुरी होता है। यदि समय रहते 10-15 रुपये की राहत दे दी गयी होती तो शायद..............!

#हिन्दी_ब्लागिंग  
पांच राज्यों में हुए चुनावों के परिणाम कइयों को अर्श से फर्श और फर्श से अर्श की तरफ ले आए। तरह-तरह के आकलन शुरू हो गए। अपनी कमजोरी को नजरंदाज कर दूसरों पर दोष मढ़े जाने लगे ! जीत पर अपनी ही पीठ थपथपाई जाने लगी ! और उधर हार के कारण गिनाए जाने लगे हैं। पर जरुरत है वास्विकता को समझने की। बातें हो रही हैं पदस्तता के विरुद्ध जनमत की ! सत्ता विरोधी लहर की ! थोपी गयी नीतियों की ! पूरे न किए गए वादों की ! अति आत्मविश्वास की ! सत्ता के गरूर की ! किसानों की अनदेखी की ! मौकापरस्तों की कलाबाजियों की ! पर इनमें ऐसी कौन सी बात है जो पहले कभी नहीं हुई ? किस सत्तारूढ़ दल को यह सब नहीं झेलना पड़ा ? फिर क्यों नहीं सबक लिया गया ? क्यों नहीं समय रहते चिड़ियों से खेत बचाया गया ? क्यों हवा के घोड़े पर सवार नेताओं को रोते-बिलखते-हैरान-निरीह लोग और उनकी परेशानियों, उनकी जद्दो-जहद नजर आनी बंद हो गयी ? जवाब वही पुराना है, सत्ता का नशा ! जिसमें आदमी अपने को ''अहम् ब्रह्मास्मि'' समझने लगता है ! इस हार का भी यही कारण रहा ! 

सच्ची बात तो यह है कि आम आदमी को फौरी तौर पर इससे कोई मतलब नहीं है कि पकिस्तान की करेंसी क्यों रसातल में चली गयी या जापान हमारे करीब क्यों आ गया या अमेरिका हमें क्यों गलबहियां डालने लगा है ! उसे मतलब होता है अपने रोजमर्रा के बढ़ते अनाप-शनाप खर्च से ! जब घर में रसोई गैस ख़त्म हो जाने पर चार सौ के बदले हजार रुपये का इंतजाम करना पड़ता है ! रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं को लेने के फेर में महीने के अंतिम दिन गुजारने मुश्किल हो जाते हैं ! घर के बुजुर्गों-बच्चों की जरूरतों को टालना पड़ता रहता है ! सुबह काम पर निकलते ही गाडी में पेट्रोल डलवाते समय हर बार कुछ ना कुछ ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ते हैं और कीमतें ना घटा पाने के बिना सिर-पैर के बहाने सुनने को मिलते हैं ! उसे तो वे अहमकाना नीतियां भी समझ नहीं आतीं जिनमें एक तरफ तो पर्यावरण के नाम पर निजी वाहनों के उपयोग को निरुत्साहित किया जाता है और दूसरी तरफ मेट्रो और बसों के किराए बढ़ा दिए जाते हैं। तो जब इस हार का विश्लेषण हो तो उन अर्थशास्त्रियों, सलाहकारों, विशेषज्ञों को भी जरूर तलब किया जाना चाहिए जो अपने वातानुकूलित कक्ष में बैठ बिना किसी की परेशानी को समझ सिर्फ अपने आकाओं को खुश करने की खातिर किसी भी कीमत पर पेट्रोल-गैस के दाम कम करने के खिलाफ थे। तख्तनशीं लोगों को भी समझ लेना चाहिए कि चुनाव में तेल कंपनियों को खुश करने की बजाय जनता का साथ ज्यादा जरुरी होता है। यदि समय रहते 10-15 रुपये की राहत दे दी गयी होती तो शायद जनता का आक्रोष कुछ कम किया जा सकता था ! पर उस समय सत्तामद में सिर्फ खजाना ही नजर आ रहा था !

कहते हैं ना कि जैसा राजा वैसी प्रजा, तो आज प्रजा का एक ख़ास तबका भी चुस्त-चालाक हो गया है ! वर्षों के अनुभव से वह भी समझ गया है कि जो सुविधा एक बार उपलब्ध होने लग जाए उसे फिर कोई रोक नहीं सकता, हाँ उससे ज्यादा मिलने की गुंजाइश जरूर हो जाती है। इसीलिए वह सत्ताविहीन दल द्वारा मुफ्त में मिलने वाले  लुभावने प्रस्तावों को लपकने के लिए सदा पाला बदलने के लिए तैयार रहने लगा है ! अब इसे भले ही पदस्तता के विरुद्ध यानी एंटी कम्बंसेंसी का नाम दे दिया जाए। ऐसी खैरातें बांटने में कोई भी दल पीछे नहीं रहता ! पर उसे उस एक बड़े तबके के रोष की खबर नहीं रहती जिसे आम भाषा में मध्यम वर्ग के नाम से जाना जाता है। इस तबके को सदा ही हाशिए पर रखा गया है, ना कभी इसकी जरूरतों पर ध्यान दिया जाता है ना ही उसकी मूलभूत सुविधाओं पर और ना ही उसकी परेशानियों पर ! जबकि यही लोग सरकार के खजाने को भरने में अपना सबसे ज्यादा योगदान देते है ! सरकारों द्वारा दी गयी हर खैरात पर इनकी जेब पर ही सबसे ज्यादा भार बढ़ता है। ना इनका कोई रहनुमा है ना कोई सुनने वाला ! क्योंकि अपनी विशाल आबादी के बावजूद यह आपस में ही बंटा-कटा हुआ है ! 

एक ख़ास बात, मुझ जैसा साधारण सा अराजनैतिक इंसान जिसका किसी भी पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है जब उसे कुछ अटपटा लग सकता है तो जानकार-विद्वान लोगों को यह क्यों नहीं समझ आता कि खैरात बाँट कर या मुफ्त में वस्तुएं वितरित कर किसी का भी लम्बे समय तक भला नहीं होता ! ना जनता का और नहीं बांटने वाले का ! दसियों उदहारण हैं इसके। वादा-खिलाफी अविश्वसनीय का लेबल चिपकवा देती है ! कड़वी-अभद्र-बेलगाम जुबान को लोग सिरे से नापसंद करते हैं ! अपनी कमियों-नाकामियों को दूर करने के बजाय दूसरों के अवगुणों को गिनाना जनता को रास नहीं आता। इससे तात्कालिक तौर पर भले ही तालियां बज जाएं पर दूरगामी परिणाम खोटे ही निकलते हैं। धर्म-जाति-भाषा के बिना राजनीती नहीं हो सकती पर इसको माध्यम बना किसी को नीचे दिखाना बहुत मंहगा साबित हो सकता है। आत्मविश्वास एक गुण है पर अति-आत्मविश्वास आत्मघाती ही सिद्ध होता है। 

अब यह सब तो एक आम आदमी का नजरिया है ! माननीय लोग कब समझेंगे क्या पता ? प्रभू सबको सद्बुद्धि प्रदान करें, आमीन  

2 टिप्‍पणियां:

दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13.12,18 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3184 में दिया जाएगा

धन्यवाद

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

दिलबाग जी, तहे दिल से शुक्रिया

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