गठबंधन तो बहाना है, मतलब तो खुद को बचाना है !! सत्ता की गाय को दुह-दुह कर करोड़ों, अरबों की संपदा इकठ्ठा कर धन-कुबेर बनने वालों को कभी भी आने वाली मुसीबत के समय सत्ता के अभेद्य किले की जरुरत होती है जो इनके विरुद्ध होने वाली किसी भी कार्यवाही से इन्हें महफूज रख सके ! उसके लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं ! पर समय एक जैसा तो रहता नहीं, नाहीं वह किसी को बक्शता है
एक लम्बे अर्से बाद देश ने किसी एक दल की स्थाई सरकार का जायजा लिया है। नहीं तो जबसे जातिबल, धर्मबल, अर्थबल या बाहुबल से सत्ता हथियाई जाने लगी है, तबसे केंद्र में गठबंधन का बोलबाला ही रहने लगा था । किसी एक दल की सरकार का बन पाना असंभव सा होता चला गया था। गठबंधन से बनी सरकार को हर वक्त अपने घटकों से ख़तरा ही बना रहता था। ऐसी सरकारों की अपनी मजबूरियां होती थीं जिनके चलते वे कभी भी चैन की सांस नहीं ले पाती थीं। उसके घटक का हरेक दल और उसका अगुआ, चाहे किसी भी कोण से किसी भी काबिल ना हों पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्ज़ा करना उसकी जिंदगी का मुख्य ध्येय होता था। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद हर नीति अपनाई जाती थी। छल-कपट से कोई परहेज नहीं होता था। आज भी कुछ क्षत्रप अपने आप को देश का राजा समझने का गुमान जिंदगी भर पाले रखते हैं। ऐसे में "मेरी-गो-राउंड" जैसा खेल चलता रहता है। कुछेक अंतराल से तरह-तरह के कुनबे जुड़ते हैं जिनका कोई सरोकार नहीं होता देश या जनता के हित से। उन्हें सिर्फ अपना और अपने परिवार का ध्यान होता है। वे जोड़-तोड़ लगा कर वहाँ पहुंचते हैं, मतलब पूरा करते हैं और खिसक लेते है या लाइन में लगे हुओं द्वारा खिसका दिए जाते है। वैसे आने और जाने वालों, सभी को पता रहता है इस क्षणिक-प्रभुता का इसीलिए अपने उसी संक्षिप्त या किसी तरह पूरे कार्यकाल में जितना हो सके लाभ कमाने की जुगत बैठा अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, अगली बारी के इंतजार में।
एक लम्बे अर्से बाद देश ने किसी एक दल की स्थाई सरकार का जायजा लिया है। नहीं तो जबसे जातिबल, धर्मबल, अर्थबल या बाहुबल से सत्ता हथियाई जाने लगी है, तबसे केंद्र में गठबंधन का बोलबाला ही रहने लगा था । किसी एक दल की सरकार का बन पाना असंभव सा होता चला गया था। गठबंधन से बनी सरकार को हर वक्त अपने घटकों से ख़तरा ही बना रहता था। ऐसी सरकारों की अपनी मजबूरियां होती थीं जिनके चलते वे कभी भी चैन की सांस नहीं ले पाती थीं। उसके घटक का हरेक दल और उसका अगुआ, चाहे किसी भी कोण से किसी भी काबिल ना हों पर दिल्ली के सिंहासन पर कब्ज़ा करना उसकी जिंदगी का मुख्य ध्येय होता था। इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद हर नीति अपनाई जाती थी। छल-कपट से कोई परहेज नहीं होता था। आज भी कुछ क्षत्रप अपने आप को देश का राजा समझने का गुमान जिंदगी भर पाले रखते हैं। ऐसे में "मेरी-गो-राउंड" जैसा खेल चलता रहता है। कुछेक अंतराल से तरह-तरह के कुनबे जुड़ते हैं जिनका कोई सरोकार नहीं होता देश या जनता के हित से। उन्हें सिर्फ अपना और अपने परिवार का ध्यान होता है। वे जोड़-तोड़ लगा कर वहाँ पहुंचते हैं, मतलब पूरा करते हैं और खिसक लेते है या लाइन में लगे हुओं द्वारा खिसका दिए जाते है। वैसे आने और जाने वालों, सभी को पता रहता है इस क्षणिक-प्रभुता का इसीलिए अपने उसी संक्षिप्त या किसी तरह पूरे कार्यकाल में जितना हो सके लाभ कमाने की जुगत बैठा अपना उल्लू सीधा कर निकल लेते हैं, अगली बारी के इंतजार में।
सत्ताविहीन होते ही हर दल और उसका आका दोबारा सत्ता को गले लगाने के लिए सदा आतुर रहता है जिसके तहत वह अपने विरोधी की ऐसी-ऐसी बातें, खबरें, इतिहास, जनता के सामने लाता है, जिसका पता उसके विरोधी को शायद खुद भी नहीं होता। इस तरह की हरकतों में सारे दल एक समान हैं। आज की राजनीती गर्त में जा गिरी है। अधोगति की पराकाष्ठा है। कोई मर्यादा नहीं बची है। गाली-गलौच, अपशब्द, मानहानि किसी बात से किसी को परहेज नहीं रहता। इसमें नाहीं सामने वाले की उम्र देखी जाती है नहीं उसका कद या पद। उस समय कोई भी अपने गिरेबान में नहीं झांकता जबकि उसे पता होता है, अपनी भी असलियत का ! फिर भी जनता को बेवकूफ समझ एक दूसरे के बारे में अनर्गल प्रलाप किया जाता रहता है।
इस बार जब से केंद्र में एक मजबूत सरकार बहुमत से आई है तब से ही देश के क्षेत्रीय दलों में अपने अस्तित्व को लेकर खलबली मची हुई है। करीब-करीब सारे दल हाशिए पर चले गए हैं। हारे-थके, बिखरे दलों के मंजे-घुटे नेताओं द्वारा एक जुट हो कर एक सार्थक विपक्ष गठित करने का प्रयास, पहले तो देश के निष्पक्ष अवाम को देश हित के लिए एक सार्थक कदम लगता रहा। भले ही इन स्वार्थी, सत्तालोलुप नेताओं ने उनके लिए कौड़ी का काम भी ना किया हो। फिर भी धर्म-जाति के नाम पर लोग उन्हें अपना मसीहा मानते रहे। उनके अपने आप को बचाने के लिए बनाए "महागठबंधनों" को भी मूर्तरूप देने में मदद करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे-जैसे इन मतलबपरस्त, परिवारवादी, लोभी, कपटी नेताओं की करतूतें सामने आने लगीं वैसे-वैसे इनके सत्ताधारी दल का विरोध कर गठबंधन की सरकार बनाने का मतलब भी जन-साधारण की समझ में आने लगा है। लोग समझ गए हैं कि इनके सारे सांप्रदायिकता, धर्म-निरपेक्षता को लेकर हो-हल्ला मचाने के प्रयास देश को नहीं खुद को बचाने की कवायद है। गठबंधन इनका रक्षा-कवच है। राजा बन सत्ता की गाय को दुह-दुह कर ये करोड़ों, अरबों की संपदा इकठ्ठा कर धन-कुबेर बन गए हैं। उस सच्चाई को छिपाने के लिए इन्हें किसी भी तरह सत्ता के अभेद्य किले की जरुरत होती है जो इनके विरुद्ध होने वाली किसी भी कार्यवाही से इन्हें महफूज रख सके ! उसके लिए ऐसे लोग किसी भी हद तक चले जाते हैं ! इनकी तिकड़मों के राजदार, इनके सहायक, इनके सलाहकार हर वह संभव कोशिश करते हैं जिससे उनका आका सलाखों के पीछे जाने से बच जाए ! इसी से सच्चाई सामने आने में काफी वक्त लग जाता है। पर समय एक जैसा तो रहता नहीं, नाहीं वह किसी को बक्शता है, उसकी लाठी में आवाज भी नहीं होती।
पर वह नेता ही क्या जो हार मान ले, अभी भी अपने विरुद्ध होने वाली कार्यवाही को अपने विरुद्ध षडंयत्र का नाम दे ऐसे लोग भोली-भली ग्रामीण जनता को बरगलाने से पीछे नहीं हट रहे ! अभी भी अपनी लच्छेदार भाषा में भाषणबाजी कर अपने आप को पाक-साफ़ साबित करने में एड़ी-चोटी का जोर लगा अंतिम लड़ाई जीतने की कोशिश में लगे हुए हैं। खैर देर-सबेर सच्चाई तो सामने आ ही जाएगी। पर क्या इनके किए की सजा इन्हें मिल पाएगी ? क्या साधारण जनता इन्हें सर से उतार कर इनको इनकी औकात बता पाएगी ? क्या देश घुनों से अपने-आप को बचा पाएगा ? इन सारे यक्ष प्रश्नों का उत्तर भी समय ही देगा।
20 टिप्पणियां:
ये कितनी ही लफ़्फ़ाजी कर लें पर अब जनता समझ गयी है. मुझे ऐसा लगता है कि अब क्षेत्रिय दलों की दादागिरी समाप्त होने का समय आगया है. आपने बहुत सटीक लिखा.
रामराम
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
बहुत वसूला है इन लोगों ने, लकड़ी टेकाने के एवज में :-(
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-07-2017) को 'पाठक का रोजनामचा' (चर्चा अंक-2661) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी,
स्नेह बना रहे
अच्छा लेखा जोखा
मेहनत से तथ्य जुटा कर लिखी गई पोस्ट के लिए साधुवाद
राजेन्द्र जी,
'कुछ अलग सा' पर सदा स्वागत है।
ऊपरी तौर पर बड़े-बड़े राजनेता किसी भी पार्टी के क्यों न हो सब एक-दूजे से मिलकर ही काम करते हैं आखिर एक जैसे पंखों वाले पंछी जो होते हैं, साथ उड़ना कैसे भूल सकते हैं।
बहुत अच्छा विश्लेषण
मुसीबत में बचने का यह भी एक तरीका है !
गठबंधन तो बहाना है, मतलब तो खुद को बचाना है !!
काश जनता जाग जाए.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्म दिवस : सुनील गावस्कर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
हर्षवर्धन जी आपका तथा ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार
सब एक बोटी के चट्टे बट्टे हैं,राजनीति सिर्फ स्व के लिए रह गई, इसमें परिवार बनते भी हैं और टूटते भी हैं ,पारिवारिक मूल्यों का क्षरण , स्वहित ने चरम पर पहुंचाया, शिक्षा ही एक उपाय हो सकता है लवकिं अपना उल्लू सीधा करने वालों ने उनमें भी कोटे बना बना कर सिर्फ स्वार्थ पूर्ती ही देखी ... जनहितार्थ कार्य स्वयं ही बोलता है ,परंतु अड़चने पैदा की जाने से समय लगने लगा है ....
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 12जुलाई 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
पम्मी जी,
हार्दिक धन्यवाद
सुंदर विश्लेषण ! बहुत खूब आदरणीय ।
जाति और धर्म बेहद संवेदनशील मुद्दे हैं। राजनीतिज्ञ जानते हैं इन्हीं मुद्दों पर जनता को बरगलाया जा सकता है और वे ऐसा कर भी रहे हैं। कोई भी राजनैतिक दल सत्ता का संचालन करे वह पूर्वाग्रहों से कतई मुक्त नहीं हो सकता। लोकतंत्र में जनता का विश्वास ही सब कुछ होता है जिसे अब धोखे से हासिल किया जा रहा है। दूध का धुला कोई नहीं है।
न्याय व्यवस्था में भी राजनैतिक दखल सामने आ रहा है अतः भ्रष्ट राजनीतिज्ञों को समय पर सज़ा नहीं मिल पा रही है। जनता को जागरूक होना ही होगा अपनी भलाई और भावी पीढ़ियों के समुचित विकास के लिए।
सारगर्भित लेख किन्तु केंद्र सरकार के विरोधियों को पक्षपाती लगेगा। किसानों और युवाओं को रोज़गार के मुद्दों पर केंद्र सरकार अभी घिरी हुई है।
राजेश जी
हार्दिक आभार
रविंद्र जी
नमस्कार ! समय ही ऐसा आ गया है कि कुछ भी बोलिए विरोध में आवाज उठेगी ही !
रविंद्र जी
नमस्कार ! समय ही ऐसा आ गया है कि कुछ भी बोलिए विरोध में आवाज उठेगी ही !
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