बुधवार, 26 जुलाई 2017

रचना तो छपी, पर चेक बाउंस हो गया !

करीब एक महीने बाद डाक द्वारा एक चेक आया, जाहिर है अच्छा लगना ही  था, एक - दो दिन बाद उसे बैंक में डाल उसके कैश  होने का  इंतजार  कर ही रहा था  कि दो-तीन  दिन बाद  डाकिए ने फिर  आवाज लगाईं, अपन को लगा, ले भाई दूसरा मेहनताना भी आ गया। खोला तो चेक जरूर था पर पहले वाला ही, जो बैंक द्वारा "उछाल" कर वापस भेज दिया गया था.....................

आजकल हर समाचार पत्र समूह अपने को देश का नंबर एक,  सबसे विश्वसनीय, सबसे तेज आदि-आदि घोषित करता रहता है। तक़रीबन यह सबकी "टैग लाइन" में सम्मिलित  होता है।  जबकि असलियत   तो अब किसी से छिपी हुई भी नहीं है।  खैर पिछले  दिनों एक ऐसे ही  समूह की पत्रिका में मेरी भी  एक  रचना छप गयी।   बीसेक दिन बाद एक फोन आया कि मैं फलां-फलां से फलां-फलां बोल रहा हूँ, आपकी  एक रचना हमारी  पत्रिका में छपी थी उसी सिलसिले में आपकी और आपके एड्रेस की 'कन्फर्मेशन'  चाहिए थी! मैंने कहा हाँ भाई मैं ही वह  फलाना आदमी हूँ।        

फिर महीना भर बीत गया, कोई ऊँध-सूँध नहीं !  इसी बीच एक और  रचना   छप कर आ गयी।     मैंने भी सोचा छप गयी सो छप गयी। पहले भी ऐसा कई बार हो चुका है ! पैसे - वैसे  के मामले  में ये लोग कुछ ज्यादा ही "विश्वसनीय" होते हैं ! बात आयी गयी हो गयी। 

इसके करीब एक महीने बाद डाक द्वारा एक चेक आया, जाहिर है अच्छा लगना ही  था, एक - दो दिन बाद उसे बैंक में डाल उसके कैश  होने का  इंतजार  कर ही रहा था  कि दो-तीन  दिन बाद  डाकिए ने फिर  आवाज लगाईं, अपन को लगा, ले भाई दूसरा मेहनताना भी आ गया। खोला तो चेक जरूर था पर पहले वाला ही, जो बैंक द्वारा "उछाल" कर वापस भेज दिया गया था........ कारण, उन महानुभावों के दस्तखत जो चेक पर थे  उनका मिलान नहीं हो पाना था ! अब.....!     पहले कभी ऐसे  "हादसे"  से पाला नहीं पड़ा था, सो सौजन्यवश पहले  इस सब से संबंधित  भले  लोगों को   खबर करने के लिए   उनका पता ढूंढना शुरू   किया।    आजकल हर बड़ा पत्र खुद को "राष्ट्रीय" दिखलाने के चक्कर में हर बड़े शहर से अपना पर्चा निकालने लगा है, भले ही वहाँ वह रैपर के काम में ही ज्यादा आता हो ! 
इसी चक्कर में पहले   उसके मुख्यालय    से फोन   जोड़ा  तो वहाँ उपस्थित महिला ने बिना पूरी बात सुने सिर्फ पत्रिका का नाम सुन, फोन कहीं और  ट्रांसफर कर दिया, वहाँ    अपना  दुखड़ा बताने पर वहाँ से बताया गया कि पत्रिका जरूर यहां से छपती है पर भुगतान मुख्यालय से किया जाता है, मैंने कहा वहीँ से मुझे इधर धकेला गया है ! जवाब मिला आपको वहीँ फिर बात करनी होगी ! दोबारा पहली जगह   फोन लगते ही मैंने उस भली महिला से कहा कि बिना पूरी बात सुने आप बटन क्यों दबा देती हैं ?  पता नहीं घर से लड़ कर आई थी या आदत ही ऐसी थी बावली बूच की, कहने लगी, सबेरे  से इतने फोन आते हैं,  किस-किस की   पूरी बात सुनूं ?    मैंने कहा कि यह क्या बात हुई, बिना पूरी बात सुने आप कैसे कहीं भी फोन ट्रांसफर कर सकती हैं ?   मेरा चेक बाउंस हुआ है, मुझे उसकी खबर देनी है ! जवाब क्या दिया महिला  ने, मैंने थोड़े ही आपका चेक बाउंस किया है ? भेजा सटक तो रहा था, लग रहा था मैंने ही गुनाह किया है। फिर भी कहा एकाउंट  डिपार्टमेंट से बात करवाइये।   वहाँ भी कुछ हलके तरीके से ही बात ली जा रही थी कि चेक वापस भेज दीजिए दूसरा भिजवा   दिया जाएगा।   मैंने फोन रख दिया।  
कहाँ मैं सोच रहा था कि बेकार में ही किसी को नुक्सान न हो इसलिए पहले संबंधित व्यक्ति को ही खबर करनी चाहिए पर यहाँ तो जैसे ये रोजमर्रा की आदत थी ! अब मैंने सीधे संचालक को ही पत्र लिखने के लिए उसका इ-मेल तलाशा, पर उसकी बायोग्राफी, उसकी पारिवारिक गाथा जरूर मिली पर वह नहीं मिला जो मैं खोज रहा था। दिमाग की सटकन बढ़ती जा रही थी, कुछ कर ही डालने का मन होता जा रहा था। तभी दूसरे दिन एक फोन आया, जिसमें अपनी गलती मानते हुए बार-बार क्षमा मांगी जा रही थी। अपन कौन से किसी से लड़ने के लिए ही बैठे रहते हैं। सो सुलह-सफाई हो गयी। चेक वापस भेज दिया। जब आना हो आ जाएगा। 

यह सब तो हो गया पर एक बात समझ में नहीं आई ! गलती करे कोई, भरे कोई !!  बैंक तो ताड़ में बैठे ही रहते हैं कि मुर्गा कोई गलती करे और उसका गला काटें, तो उसने मुझे जो रजिस्ट्रर्ड खत भेजा और मैंने जो चेक कुरियर से वापस किया, इन सब का जुर्माना तो मुझे ही चुकाना होगा ! क्यों ? ..................      
#हिन्दी_ब्लागिंग 

8 टिप्‍पणियां:

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 18वां कारगिल विजय दिवस और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आभार ब्लॉग बुलेटिन का

राजीव कुमार झा ने कहा…

दिल्ली से प्रकाशित एक मासिक पत्रिका में मेरे दो लेख छपे थे.मुझे फोन कर और मेल से बताया गया कि हम कोई पारिश्रमिक नहीं देते बल्कि पत्रिका एक साल तक भेजते रहेंगे.लेकिन दो महीने का अंक भेजने के बाद बंद कर दिया.ऐसे में कोई कैसे किसी पर एतबार करे.

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

राजीव जी,
यह भी एक तरह का भ्रष्ट व्यवहार ही है!पर आवाज जरुर उठानी चाहिए।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (29-07-2017) को "तरीक़े तलाश रहा हूँ" (चर्चा अंक 2681) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
हार्दिक धन्यवाद

कविता रावत ने कहा…

यानी लेने के देने पड़ गए
किस पर विश्वास करे किस पर नहीं, बड़ी उलझन है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कविता जी,
दूसरे को बचाने के चक्कर में.............. :-)

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