गुरुवार, 6 अक्तूबर 2016

सत्ता की भूख ने उघाड़े चेहरे

कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी, "जमीन", जो हाईजैक हुए हवाई जहाज के यात्रियों को बचाने के प्रयास पर फिल्माई गयी थी।  उसमें एक बड़बोले नेता का चरित्र रचा गया था, जिसे जब कमांडो ऑपरेशन में सम्मिलित होने को कहा जाता है तो उसकी धोती ढीली हो जाती है। क्यों नहीं ऐसे प्रमाण-इच्छुक लोगों को भविष्य में होने वाले किसी "सफाई अभियान" में जबरन शामिल कर उन्हें वातानुकूलित कमरे और प्राकृतिक सरहद का भेद समझा दिया जाए  


अभी तक कुछ गिने-चुने ऐसे संस्थान बचे हुए हैं जिनका क्रिया-कलाप तथा दामन, इक्की-दुक्की घटनाओं के बावजूद पाक-साफ़ माना जाता है।       देश की जनता का जिन पर अटूट विश्वास और  श्रद्धा है।    इनमें हमारे वैज्ञानिक, न्यायालय तथा फ़ौज सर्वोपरि हैं। ऐसी धारणा है कि इनका हर कदम देश हित के लिए ही उठता है।पर इन दिनों सत्ता के लोभियों ने  जनता  के विश्वास    को डांवाडोल कर दिया है। अपने छुद्र स्वार्थ,   ओछी- राजनीति, तथा आकाओं की नज़र में बने रहने के लिए ऐसे लोग, जिनका अपना ना कोई आधार होता है नाही कोई पहचान, अपनी कमियों, अपनी खामियों को ढकने के लिए दूसरे दल   के हर   कदम या फैसले को गलत साबित करने के लिए किसी भी हद  तक चले जाते हैं। ऐसे मंदबुद्धि लोग जिसके इशारे पर ऐसा करते हैं उसको कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि वह तो परोक्ष में बैठा है, लानत-मलानत इन छुट्भइयों की होती है मजे की बात यह है कि इनका दल भी इनके व्यक्तव्य को इनकी निजी राय बता पल्ला झाड़ लेता है और ये मुंह बाए बगलें झांकते रह जाते हैं।

अभी हुई हमारी सेना की कार्यवाही भी इन मूढ़मतियों के बयानों के दायरे में आ गयी। आश्चर्य होता है कि हमने कैसे-कैसे लोगों को कैसी-कैसी जिम्मेदारियां सौंप अपनी और देश की बागडोर थमा दी है, जिन्हें संभालना तो दूर वे तो उसका नाम लेने लायक भी नहीं हैं ! उन्हें समझ ही नहीं है कि वे क्या बोल, कर या चाह रहे हैं ! ना उन्हें, ना उनको उकसाने वालों को अंदाजा है कि उनकी नासमझी संसार में हमारी क्या तस्वीर पेश करेगी !  उनके ऐसे अमर्यादित बयानों से सेना के जवानों पर क्या असर पडेगा ! वह तो शुक्र है कि हमारी सेना इतनी संयमित और समझदार है कि वह ढपोरशंखों की आवाज और उनकी मंशा समझती है। पर आज यह जरूरी हो गया है कि ऐसे तिकडमी लोगों की नकेल ऐसे कसी जाए जिससे ये लोग न्यायालय की अवहेलना या फ़ौज की शूरवीरता पर सवाल उठाने की जुर्रत ही न कर पाएं।  

ऐसे माहौल में किसी फिल्म की बात करना मौके की गंभीरता को कम करना लग सकता है पर यह बात सामयिक है। कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी, "जमीन", जो हाईजैक हुए हवाई जहाज के यात्रियों को बचाने के प्रयास पर फिल्माई गयी थी। फिल्म कैसी थी, अच्छी थी, बुरी थी, मुद्दा यह नहीं है, बात यह है कि उसमें भी एक ऐसे ही बड़बोले नेता का चरित्र रचा गया था, जिसे जब कमांडो ऑपरेशन में सम्मिलित होने को कहा जाता है तो उसकी धोती ढीली हो जाती है। क्यों नहीं ऐसे प्रमाण-इच्छुक लोगों को भविष्य में होने वाले किसी "सफाई अभियान" में जबरन शामिल कर उन्हें वातानुकूलित कमरे और प्राकृतिक सरहद का भेद समझा दिया जाए। 

5 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-10-2016) के चर्चा मंच "जुनून के पीछे भी झांकें" (चर्चा अंक-2488) पर भी होगी!
शारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी
आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुलदीप जी
हार्दिक धन्यवाद

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बढ़िया पोस्ट

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुमन जी,
हार्दिक धन्यवाद

विशिष्ट पोस्ट

रणछोड़भाई रबारी, One Man Army at the Desert Front

सैम  मानेक शॉ अपने अंतिम दिनों में भी अपने इस ''पागी'' को भूल नहीं पाए थे। 2008 में जब वे तमिलनाडु के वेलिंगटन अस्पताल में भ...