बुधवार, 19 अगस्त 2015

बाहुबली का सम्मोहन बल

इतना प्रचार, इतनी प्रशंसा, इतनी लोकप्रियता वह भी एक दूसरी भाषा से हिंदी में "डब" की गयी फ़िल्म की। आखिरकार सोचा कि उतर जाए उसके पहले देख ही लिया जाए सो पिछले गुरुवार को "बाहुबली" के अंतिम शो का आचमन कर ही डाला। फ़िल्म सचमुच भव्यता की मिसाल है। इसकी जान आधुनिक तरीके से फिल्माया गया उच्च कोटि का फिल्मांकन है जो किसी भी फ़िल्म से उन्नीस नहीं ठहरता। दर्शक कैमरे और कंप्यूटर की   जुगलबंदी में सम्मोहित हो कर रह जाता है।  इसका सबसे बड़ा उदाहरण यही है कि धर्म के नाम पर  बखेड़ा खड़ा कर अपनी रोटी सेकने वालों को भी किसी दृश्य पर कोई आपत्ति नहीं  हुई। 

हॉल में बैठे हुए लगता है जैसे आप कैमरे से फ़िल्म देख रहे हों। सिर्फ यही बात दर्शकों को बांधे रखती है। रही कहानी की बात तो भारत ही नहीं विश्व के राजघरानों में इस तरह के षड्यंत्रों पर दसियों बार भव्य पिक्चरों का निर्माण हो चुका है। बाहुबली के लिए इसके लेखक श्री विजयेंद्र प्रसाद ने पौराणिक और इतिहास की घटनाओं से प्रेरित हो इसकी पटकथा का ताना-बाना बुन डाला है। फ़िल्म देखते हुए किसी पात्र को देख भीष्म पितामह की याद आती है,  तो नायक का भाग्य कर्ण से मिलता-जुलता नज़र आता है। कभी पन्ना धाय का पात्र सजीव होता लगता है कभी "बेनहर" की रथ दौड़ जेहन में छा जाती है तो युद्ध की कल्पना हेमू और बाबर की सेनाओं की असमानता को दर्शाती है, यही नहीं बाबर ने जैसे अपनी हार की कगार पर खड़ी पस्त सेना में अपने जोशीले भाषण से जान फूंक कर विजय हासिल की थी ठीक वही क्षण फिर साकार कर दिए गए हैं। पर इस सब के बावजूद फ़िल्म के पात्र आपके साथ घर तक चले ही आते हैं। जो इसके दूसरे भाग तक आप को फिर खींच कर ले जाएंगे।      

2 टिप्‍पणियां:

ब्लॉग बुलेटिन ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, आज की हकीकत - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

Anita ने कहा…

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