कोई भी चीज स्थाई नहीं होती। जो शुरू हुआ है उसका अंत भी अवश्यंभावी है। इस भूटान यात्रा को ही लें, जो अपने भागग्राहियों के जीवन में मंद-सुगंध समीर की तरह आ उन्हें आनंदित कर रही थी, उसका भी समापन होने वाला था। फिर सबने अपने-अपने ठियों पर जा उसी नून-तेल-लकड़ी के चक्कर में पड़ जाना था। पर अभी भी डेढ़ दिन बचे हुए थे और कोई भी इस समय को बेकार जाने देने के मूड में नहीं था।
17 जनवरी 15 :
आज का दिन थिम्फु भर्मण के बाद उससे विदा लेकर रात्रि विश्राम "पारो" में करना था। सुबह-सबेरे चाक-चौबंद हो दो बसों में लद कर निकल पड़े सब जने इन अविस्मरणीय क्षणों का लुत्फ़ उठाने। सबसे पहले शहर
में ही स्थित चंगखा ल्हखंग पहुंचे, यहां स्थानीय लोग संतान की कामना और अपने बच्चों की सुरक्षा की कामना लेकर आते हैं। मंदिर अपनी प्राचीनता का बखान खुद ही कर रहा था। वैसे भूटान में भिखारी नहीं होते पर इस मंदिर की सीढ़ियों पर एक याचक नज़र आया
वह भी आगे बढ़ कर मांग नहीं रहा था लोग अपनी इच्छा से कुछ न कुछ देते जाते थे। माला फेरते नागरिक तो आम परिलक्षित हो जाते थे। खासकर मंदिरों और स्तूपों में तो कई ध्यानमग्न, अपने-आप में सिमटे लोग नज़र आते रहे। पूरे भूटान में आध्यात्म का वातावरण छाया हुआ है।
यहां के दर्शनोंपरांत हम सब को थिम्फु के मोतिथंग इलाके में स्थित "टाकिन संरक्षण वन" ले जाया गया जहां भूटान के राष्ट्रीय पशु टाकिन को संरक्षित कर उसकी नस्ल को बढ़ाने के उपाय किए जाते हैं। ऐसा अजूबा जानवर विश्व में शायद ही कहीं मिलता हो। इसका मुंह बकरी जैसा और शेष भाग गाय के समान होता है। जंगल से घिरी पहाड़ी में इनके प्रजनन को बढ़ावा दे इनकी नस्ल को बढ़ाने और सुरक्षित रखने के लिए इनको प्राकृतिक माहौल उपलब्ध करवाया गया है। फिर भी नतीजे अभी उत्साहवर्धक नहीं हो पाए हैं।
आज का दिन थिम्फु भर्मण के बाद उससे विदा लेकर रात्रि विश्राम "पारो" में करना था। सुबह-सबेरे चाक-चौबंद हो दो बसों में लद कर निकल पड़े सब जने इन अविस्मरणीय क्षणों का लुत्फ़ उठाने। सबसे पहले शहर
में ही स्थित चंगखा ल्हखंग पहुंचे, यहां स्थानीय लोग संतान की कामना और अपने बच्चों की सुरक्षा की कामना लेकर आते हैं। मंदिर अपनी प्राचीनता का बखान खुद ही कर रहा था। वैसे भूटान में भिखारी नहीं होते पर इस मंदिर की सीढ़ियों पर एक याचक नज़र आया
वह भी आगे बढ़ कर मांग नहीं रहा था लोग अपनी इच्छा से कुछ न कुछ देते जाते थे। माला फेरते नागरिक तो आम परिलक्षित हो जाते थे। खासकर मंदिरों और स्तूपों में तो कई ध्यानमग्न, अपने-आप में सिमटे लोग नज़र आते रहे। पूरे भूटान में आध्यात्म का वातावरण छाया हुआ है।
संरक्षित वन का प्रवेश द्वार |
यहां से निकल कर हम सीधे पहुंचे 1974 में भूटान के तृतीय नरेश, जिग्मे दोरजी वांग्चुक की याद में बने स्तूप को देखने, जो यहां का राष्ट्रीय स्मारक है, जिसे पर्यटकों द्वारा सर्वाधिक देखे जाने वाले धार्मिक स्थल का गौरव प्राप्त है। इसकी ख़ास बात यह है कि इसमें दूसरे स्तूपों की तरह शरीर के अवशेष न रख कर राजा की फोटो को हॉल में रखा गया है। अंदर जाते ही हरी घास से घिरे प्रांगण में , जहां
कबूतरों की भरमार थी, सुंदर, कलात्मक स्तूप जैसे मुस्कुरा कर स्वागत कर रहा हो। नीले, निरभ्र गगन तले भवन की शोभा देखते ही बनती थी।
समय कम था, सो उसे कंजूस के धन की तरह बचा-बचा कर ज्यादा से ज्यादा जगहों को देखने की कामना हमें ले आयी निर्माणाधीन "बुद्ध प्वायंट".धरती पर विद्यमान मानव निर्मित एक अद्भुत स्थल।
कुंसल फोदरंग पहाड़ी पर बनी 51.5 मीटर ऊंची, सोने की परत चढ़ी, कांसे की बनी शाक्य मुनि बुद्ध की दक्षिण-मुखी, राजधानी थिम्फु को निहारती, अद्भुत, विशाल, सजीवता की हद छूती प्रतिमा। जो दुनिया में विशाल बुद्ध प्रतिमाओं में से एक है। इसके गर्भ गृह में बुद्ध की आठ इंच की सोने
की परत चढ़ी एक लाख, और बारह इंच ऊंची पच्चीस हजार प्रतिमाएं स्थापित होनी हैं। पूरी परियोजना पर करीब सौ मिलियन डॉलर के खर्च का अंदाज है। यहां आ कर लग रहा था जैसे किसी दूसरे लोक में आ गए
हों, जहां प्रभु साक्षात हमें अपना आश्रय प्रदान कर रहे हों। जाने की इच्छा न होने पर भी जाना तो था ही, अपने अगले पड़ाव "राष्ट्रीय सांस्कृतिक संग्रहालय" की ओर।
भूटान के तीसरे नरेश जिग्मे दोरजी वांग्चुक के निर्देशानुसार 1968 में ता-जोंग नामक पुरानी ईमारत का जीर्णोद्धार कर इस संग्रहालय की स्थापना की गयी। इसमें भूटान की संस्कृति, इतिहास, पर्यावरण, रीति -रिवाजों के साथ-साथ यहां की कलाकृतियों, मूर्तियों, चित्रों, अस्त्र-शस्त्रों, जीव-जंतुओं, तथा पौराणिक आख्यानों तक को बेहतरीन ढंग से दर्शाया गया है। इसमें करीब डेढ़ हजार साल को समेटती तीन
हजार कलाकृतियां और वस्तुएं संग्रहित हैं। इन सब चीजों को देखने के लिए इफ़रात समय की जरुरत थी और वही हमारे पास नहीं था। सो जल्दी-जल्दी सब पर सरसरी नज़र डाल वहां से निकल लिए।
अब पारो शहर के रास्ते में अपने अंतिम दर्शनीय स्थान की ओर हमारा काफिला रवाना हुआ। यह था एक अति प्राचीन बौद्ध मंदिर क्यिचु ल्हाखंग, इसे क्येर्चु मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। सातवीं सदी में इस मंदिर का निर्माण तिब्बत के राजा सोंगसांन गम्पो ने करवाया था। ऐसी मान्यता है कि पद्मसंभव जी ने यहां अपने पड़ाव के दौरान यहां काफी आध्यात्मिक शक्तियों का सृजन किया था। अभी भी यहां गुप्त शक्तियों का वास माना जाता है। 1971 में राजा जिग्मे दोरजी वांग्चुक की पत्नी केसंग चोडेन वांग्चुक ने इस मंदिर के साथ ही गुरु मंदिर का निर्माण करवाया। तबसे हर साल वज्रसत्व देव, पाचेन हेरुका तथा वज्रकिल्य देव की वार्षिक पूजा का अनुष्ठान देश की सुख-समृद्धि तथा शांति के लिए यहीं संपन्न किया जाता है। मंदिर के प्रांगण
में दो संतरे के वृक्ष हैं, जिनमें साल भर फल आते रहते हैं। मंदिर के अंदर आते ही एक दैवीय वातावरण की अनुभूति होती है।
धरा को छूने उतरते बादल |
प्लेरी कॉटेज होटल थोड़ी ऊंचाई पर स्थित हैं, जिसका रास्ता पारो की हवाई - पट्टी के पास से गुजरता है। पारो-छू नदी के किनारे स्थित यह हवाई पट्टी, दुनिया की सबसे खतरनाक दस हवाई पट्टियों में शरीक है। दो किलो मीटर (6500 ft.) से भी कुछ कम लंबाई और 18000 ft. ऊंची पहाड़ियों से घिरी इस पट्टी से उड़ान भरने के लिए सिर्फ आठ प्रशिक्षित पायलट ही अधिकृत हैं। यहां से भूटान की ड्रुक हवाई सेवा ही उड़ान भरती है। इसे
देखना भी अपने-आप में एक अनोखा अनुभव है और इस अनुभव को प्राप्त करने का मौका भी हमें मिल गया जब दूसरे दिन सुबह हम न्यूजलपाईगुड़ी के लिए बस में इधर से गुजर रहे थे तभी पारो से एक हवाई जहाज ने कोलकता के लिए उड़ान भरी। उस क्षण का बयान करना मुश्किल है, सभी चित्र-लिखित से उस उड़ान को देख रहे थे, लग रहा था जैसे किसी फ़िल्म का दृश्य देख रहे हों।
अपनी-अपनी निर्धारित कॉटेजों में शरण लेने के बाद, बढ़ती ठंड के कारण, वहां से निकलना मुश्किल हो गया। वहीं चाय वगैरह ले, बिस्तर पर के गद्दों को हीटर से गर्म कर रजाई ओढ़े टी. वी. को ताकते लेटे रहे। मेरे साथ कमरे में श्री बजरंगी प्रसाद दुबे जी थे। विचारों की समानता के कारण हमें एक-दूसरे का साथ रास
आ गया था। तभी कुछ देर बाद श्री अरविंद देशपाण्डे जी भी ठंड के कारण हाथ मलते हुए कमरे में आ गए। रजाईयों में घुस बैठ कर बातचीत का सिलसिला जो शुरू हुआ वह तभी थमा जब रात्रि भोजन का बुलावा आ गया। खाने के बाद थका शरीर कब नींद के आगोश में चला गया पता ही नहीं चला।
यह भूटान में हमारी आखिरी रात थी। कल फिर सबने अपनी-अपनी नीड़ों की ओर विभिन्न साधनों से रुख कर लेना था। देखने की बात यह है कि इस यात्रा के साथ-साथ कोई हमयात्रियों को कितना याद रख पाता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें