इन परीक्षा के दिनों में कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने में मशगूल थे, जब उनसे पूछा, अरे ! तुम लोगों के पेपर नहीं हैं ? तो सबने जवाब दिया, हाँ अंकल चल रहे हैं। यह पूछने पर कि सब तैयारी हो गयी ? आशा थी कि वे कहेंगे, हाँ, अंकल, बस कुछ देर में फ्रेश हो कर फिर पढने जुट जाएंगे। पर उनमें से एक बच्चे का जवाब सुन दंग रह जाना पड़ा, उसका कहना था, अंकल काहे को टेंशन लें, पास तो हो ही जाना है।
आज पहली मार्च है। अभी कुछ ही देर में संध्या के पांच बजा चाहते हैं। घर के सामने वाली गली में दोपहर बाद से कुछ बच्चे क्रिकेट खेलने में मशगूल थे। कुछ अपेक्षाकृत छोटे, हाथों में पानी भरी पिचकारियां लिए मस्ती कर रहे थे। अभी-अभी ही स्कूलों में परीक्षाएं शुरू हुई हैं और कुछ अगली पांच को शुरू होने वाली हैं। पर लग नहीं रहा था कि इनको या इनके अभिभावकों को होने वाली परीक्षा की किसी तरह की चिंता हो ! ऐसे ही पता नहीं क्यों, शायद कौतुहलवश मैं उन छोटे-बड़े बच्चों के पास गया और पूछा, अरे ! तुम लोगों के पेपर नहीं हैं ?
सबने जवाब दिया, हाँ अंकल चल रहे हैं।
मैंने कहा तो, सब तैयारी हो गयी है ?
मुझे आशा थी कि वे कहेंगे, हाँ, अंकल, बस कुछ देर में फ्रेश हो कर फिर जुट जाएंगे।
पर उनमें से एक बच्चे का जवाब सुन मैं दंग रह गया, उसका कहना था, अंकल काहे को टेंशन लें, पास तो हो ही जाना है।
ज्ञातव्य है कि पिछली सरकार के शिक्षा मंत्री महोदय ने आठवीं कक्षा तक किसी भी छात्र को फेल ना करने का निर्देश जारी किया था। उस निर्देश की अच्छाई या बुराई का विश्लेषण तो समय करेगा, पर उसका बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है इसकी मीमांसा के साथ-साथ बच्चों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए परीक्षा के दिनों को निश्चित करने पर भी विचार होना चाहिए। बात परीक्षा-फल के लिए डर या चिंता पैदा करवाने की नहीं है। बात है बच्चों को और ख़ासकर उनके अभिभावकों को शिक्षा के प्रति जागरूक, जिम्मेदार और उसको गंभीरता से लेने की। सिर्फ सीढ़ी दर सीढ़ी की तरह कक्षा बदलते रहने से डिग्री जरूर मिल जाती है पर लियाकत, जिसकी आने वाली जिंदगी में सदा जरुरत पड़ती है, नदारद रहती है।
वैसे तो हमारे देश में साल भर उत्सव और त्यौहार चलते रहते हैं। पर इनमें कुछ बहुत ही प्रमुख होते हैं, जैसे होली और दीपावली। इनमें भी होली कुछ ज्यादा ही मौज-मस्ती वाला उत्सव है। तो परीक्षा की समय-सारिणी बनाने वाले महानुभाव क्यों नहीं इस बात को मद्देनजर रख इन दिनों होने वाले इम्तिहानों की रूप-रेखा निर्धारित करते ? क्यों इस उत्सव को परीक्षा की तारीखों में शामिल कर लिया जाता है ? जैसे इस साल होली छ: मार्च को पड़नी थी तो परीक्षाएं दो दिन बाद भी शुरू की जा सकती थीं। मान लेते हैं कि संचालन करने वालों की अपनी बाध्यताएं होती हैं, पर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, उनसे क्यों आशा की जाए कि वे अपना स्वभाव बदल हमारे अनुरूप हो जाएं। ऐसा भी तो सकता है कि महाविद्यालयों, विश्व विद्यालयों की परीक्षाएं ली जाएं और बच्चों की त्यौहार रहित दिनों में। लेकिन, परन्तु तो बहुत हैं पर दिनों-दिन छिनती और छिझती मासूमियत भी तो जरुरी है।
3 टिप्पणियां:
वाजिब सवाल उठाया है आपने।
19 साल पहले मेरी दसवीं की परीक्षा भी होली के दिन से ही शुरू हुई थी. क्या संयोग है की वह भी 6 मार्च ही था.
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