प्रेम सदा देने में विश्वास रखता है। त्याग में अपना वजूद खोजता है। पर आज इसका स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। सिर्फ पाना और हर हाल में पाना ही इसका उद्देश्य हो गया है। आज भोग की संस्कृति ने सब को पीछे छोड़ रखा है।
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संत वेलेंटाइन
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फिर एक बार संत वेलेंटाइन का संदेश ले फरवरी का माह आ खड़ा हुआ। बाजारों में, अखबारों में युवाओं में काफी उत्साह उछाल मार रहा है। जो उत्सव कुछ समय पहले एक दिन का होता था उसे बाजार ने अपनी सहूलियत को मद्दे-नजर रख हफ्ते भर का कर दिया। देखा जाए तो हमारे सदियों से चले आ रहे पर्व
"वसंतोत्सव" का भी तो यही संदेश है। हमारी तो प्रथा रही है प्रेम बरसाने की। इंसान की तो छोड़ें हमारे यहाँ तो पशु-पक्षियों से भी नाता जोड़ लिया जाता है। उन्हें भी परिवार का सदस्य मान अपना स्नेह उड़ेल दिया जाता है। जीवंत की बात तो क्या यहां तो पत्थरों और पेड़ों में भी प्राण होना मान उनकी पूजा होती रही है। सारे संसार को प्रेम का संदेश देने वाले को आज प्रेम सीखना पड़ रहा है पश्चिम से। सनातन काल से हमारे देश में रिवाज रहा है, प्रेम का, भाईचारे का, सौहार्द का। पर इसे कभी भुनाया नहीं गया। पर जब आर्थिक उदारीकरण के "बाजार" ने इसे वेलेंटाइन के नाम से जोड़ 'वाया' पश्चिम से प्रेम दिवस के रूप में प्रचारित कर आयात किया तो हमारी आंखें चौंधिया गयीं हमें चारों ओर प्यार ही प्यार नज़र आने लगा। गोया कि "कल जिन्हें हिज्जे ना आते थे, आज वे हमें पढाने चले हैं। खुदा की कुदरत है।"
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वसंतोत्सव |
इस उत्सव ने भारतीय युवाओं को खूब लुभाया है। सब इसे अपने-अपने अर्थ लगा, अपनी-अपनी समझ के अनुसार अपने-अपने तरीके से मनाने की कोशिश करते हैं। लेकिन इस संवेदनहीन और भावनाहीनता के समय में कितनों में अपने प्रिय के प्रति सच्चे प्रेम या त्याग की भावना रहती है? सच तो यह है कि अधिकाँश इसे सिर्फ मौज-मस्ती का जरिया मान आनंद पाने की दौड़ में शामिल होते हैं उन्हें सामाजिक या अपने दायित्व का कोई एहसास नहीं होता। प्रेम सदा देने में विश्वास रखता है। त्याग में अपना वजूद खोजता है। पर आज इसका स्वरूप पूरी तरह बदल चुका है। सिर्फ पाना और हर हाल में पाना ही इसका उद्देश्य हो गया है। आज भोग की संस्कृति ने सब को पीछे छोड़ रखा है। जिस तरह के हालात हैं, मानसिक विकृतियां हैं, दिमागी फितूर है उसके चलते युवाओं को काफी सोच समझ कर अपने कदम उठाने चाहिए। खास कर युवतियों को।
प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं है। पर ये जो व्यवसायिकता है। अंधी दौड़ है या इसी बहाने शक्ति प्रदर्शन है उसे किसी भी हालत में ठीक नहीं कहा जा सकता।
किसी की अच्छाई लेना कोई बुरी बात नहीं है। वह चाहे किसी भी देश, समाज या धर्म से मिलती हो। ठीक है। अच्छा लगता है। दिन हंसी-खुशी में गुजरता है। मन प्रफुल्लित रहता है तो त्यौहार जरूर मनाएं। पर एक सीमा में, बिना भावुकता में बहे। उचित-अनुचित का ख्याल रखते हुए।
2 टिप्पणियां:
काश, प्रेम व्यापार से बचा रहे।
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