इसी कारण नारी और पुरुष दोनों में अपने को ज्यादा आकर्षक दिखाने या लगने की होड़ शुरू हो गयी होगी और इस तरह ईजाद हुई होगी तरह-तरह की श्रृंगारिक विधियों की जिसमें अंतत: बाजी मारी होगी नारी ने सोलह श्रृंगार कर के जिनका उल्लेख शास्त्रों में उपलब्ध है। शायद ही किसी और देश में नारी के श्रृंगार का इतना वृहद विवरण और कला का विवरण मिलता हो।
श्रृंगारिक ऋतु ने दस्तक दे दी है। हालांकि देश के उपरी भागों में अभी भी शीत पालथी जमाए बैठा है पर वह भी जानता है कि चला-चली की बेला आ गयी है। क्योंकि वासंती बयार ने धीरे-धीरे बहना शुरू कर दिया है। साल का यह समय सबसे सुहाना होता है जब शीत की सुषुप्तावस्था से प्रकृति अंगड़ाई ले आलस्य त्याग अपना मोहक रूप धारण करने लगती है। यही वह समय है जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट के बीच आगमन होता है बसंत का। इसे ऋतुओं का राजा माना गया है अर्थात ऋतुराज। आदिकाल से कवि आकंठ श्रृंगार रस में डूब कर अपनी रचनाओं में इसका वर्णन करते आए हैं। क्योंकि इस ऋतु में वह सब कुछ है जिसकी चाहत इंसान को रहती है। इसमें फूल सिर्फ खिलते हैं, झडते नहीं। बयार बासंती हो जाती है। धरा धानी चुनरी ओढ़ अपने सर्वोत्तम निखार से जीवन का बोध कराती है। जीव-जगत में उल्लास छा जाता है। जिंदगी से मोह उत्पन्न होने लगता है, जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है। इसीलिए इस समय को मधुमास का नाम दिया गया है। जब सर्वत्र माधुर्य और सौंदर्य का बोलबाला हो जाता है। "हल्की सी शोखी, हल्का सा नशा है, मिल गयी हो भंग जैसे पूरी बयार में" बसंत के आते ही टहनियों में कोंपलें फूटने लगती हैं। वृक्ष नये पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते हैं। वायु के नर्म-नर्म झोंकों से फल-फूल, लताएं-गुल्म, पेड-पौधे सभी जैसे मस्ती में झूमने लगते हैं। इसी समय आम की मंजरियों में भी बौर आने लगते हैं जैसे ऋतुओं के राजा ने फलों के राजा को दावत दी हो। लगता है जैसे सारी प्रकृति अपने श्रृंगार पर उतारू हो गयी हो।
पूरी कायनात को सजा-धजा देख कर ही शायद मनुष्य को भी अपने श्रृंगार की सुध आई होगी। क्योंकि आकर्षक जीवन ही सार्थक है और आकर्षण सौंदर्य में है और सौंदर्य को बढ़ाने में श्रृंगार की महती भूमिका होती है। इसी कारण नारी और पुरुष दोनों में अपने को ज्यादा आकर्षक दिखाने या लगने की होड़ शुरू हो गयी होगी और इस तरह ईजाद हुई होगी तरह-तरह की श्रृंगारिक विधियों की जिसमें अंतत: बाजी मारी होगी नारी ने सोलह श्रृंगार कर के जिनका उल्लेख शास्त्रों में उपलब्ध है। शायद ही किसी और देश में नारी के श्रृंगार की कला का इतना वृहद विवरण मिलता हो। इन सोलह विधियों की कई सूचियां हैं पर सबसे लोकप्रिय बल्लभ देव की सुभाषितवली मानी जाती है। जिसके अनुसार सोलह श्रृंगार इस प्रकार हैं :-
1 :- स्नान। 2 :- वस्त्र। 3 :- हार। 4 :- तिलक। 5 :- काजल। 6 :- कुंडल. 7 :- नाक का लौंग.
8 :- केश सज्जा। 9 :- कंचुक। 10 :- नुपुर। 11 :- सुगंध। 12 :- कंकण। 13 :- महावर। 14 :- मेखला। 15 :- पान और 16 :- कर दर्पण।
मूलत: यही सोलह श्रृंगार हैं पर कहीं-कहीं इनमे थोडा सा फेर बदल मिल जाता है। जैसे स्नान के पूर्व उबटन या केश सज्जा में फूल इत्यादि का उपयोग आदि।
यह ध्रुव सत्य है कि आयु के साथ-साथ शरीर और सौंदर्य का क्षरण होता है पर मानव की प्रवृति है युवावस्था को बांध कर रखने की. जिसमे वह पूरी तरह से तो नहीं पर आंशिक रूप से इन विधियों को अपना कुछ सफलता तो पा ही लेता है। हालांकि सौंदर्य वह नहीं है जो बाहर से थोपा जाए. असली सौंदर्य तो मानव के भीतर ही रह कर अपना आभास देता रहता है।
श्रृंगारिक ऋतु ने दस्तक दे दी है। हालांकि देश के उपरी भागों में अभी भी शीत पालथी जमाए बैठा है पर वह भी जानता है कि चला-चली की बेला आ गयी है। क्योंकि वासंती बयार ने धीरे-धीरे बहना शुरू कर दिया है। साल का यह समय सबसे सुहाना होता है जब शीत की सुषुप्तावस्था से प्रकृति अंगड़ाई ले आलस्य त्याग अपना मोहक रूप धारण करने लगती है। यही वह समय है जब शीत ऋतु के मंद पडने और ग्रीष्म के आने की आहट के बीच आगमन होता है बसंत का। इसे ऋतुओं का राजा माना गया है अर्थात ऋतुराज। आदिकाल से कवि आकंठ श्रृंगार रस में डूब कर अपनी रचनाओं में इसका वर्णन करते आए हैं। क्योंकि इस ऋतु में वह सब कुछ है जिसकी चाहत इंसान को रहती है। इसमें फूल सिर्फ खिलते हैं, झडते नहीं। बयार बासंती हो जाती है। धरा धानी चुनरी ओढ़ अपने सर्वोत्तम निखार से जीवन का बोध कराती है। जीव-जगत में उल्लास छा जाता है। जिंदगी से मोह उत्पन्न होने लगता है, जीवन में मस्ती का रंग घुलने लगता है। इसीलिए इस समय को मधुमास का नाम दिया गया है। जब सर्वत्र माधुर्य और सौंदर्य का बोलबाला हो जाता है। "हल्की सी शोखी, हल्का सा नशा है, मिल गयी हो भंग जैसे पूरी बयार में" बसंत के आते ही टहनियों में कोंपलें फूटने लगती हैं। वृक्ष नये पत्तों के स्वागत की तैयारियां करने लगते हैं। वायु के नर्म-नर्म झोंकों से फल-फूल, लताएं-गुल्म, पेड-पौधे सभी जैसे मस्ती में झूमने लगते हैं। इसी समय आम की मंजरियों में भी बौर आने लगते हैं जैसे ऋतुओं के राजा ने फलों के राजा को दावत दी हो। लगता है जैसे सारी प्रकृति अपने श्रृंगार पर उतारू हो गयी हो।
पूरी कायनात को सजा-धजा देख कर ही शायद मनुष्य को भी अपने श्रृंगार की सुध आई होगी। क्योंकि आकर्षक जीवन ही सार्थक है और आकर्षण सौंदर्य में है और सौंदर्य को बढ़ाने में श्रृंगार की महती भूमिका होती है। इसी कारण नारी और पुरुष दोनों में अपने को ज्यादा आकर्षक दिखाने या लगने की होड़ शुरू हो गयी होगी और इस तरह ईजाद हुई होगी तरह-तरह की श्रृंगारिक विधियों की जिसमें अंतत: बाजी मारी होगी नारी ने सोलह श्रृंगार कर के जिनका उल्लेख शास्त्रों में उपलब्ध है। शायद ही किसी और देश में नारी के श्रृंगार की कला का इतना वृहद विवरण मिलता हो। इन सोलह विधियों की कई सूचियां हैं पर सबसे लोकप्रिय बल्लभ देव की सुभाषितवली मानी जाती है। जिसके अनुसार सोलह श्रृंगार इस प्रकार हैं :-
1 :- स्नान। 2 :- वस्त्र। 3 :- हार। 4 :- तिलक। 5 :- काजल। 6 :- कुंडल. 7 :- नाक का लौंग.
8 :- केश सज्जा। 9 :- कंचुक। 10 :- नुपुर। 11 :- सुगंध। 12 :- कंकण। 13 :- महावर। 14 :- मेखला। 15 :- पान और 16 :- कर दर्पण।
मूलत: यही सोलह श्रृंगार हैं पर कहीं-कहीं इनमे थोडा सा फेर बदल मिल जाता है। जैसे स्नान के पूर्व उबटन या केश सज्जा में फूल इत्यादि का उपयोग आदि।
यह ध्रुव सत्य है कि आयु के साथ-साथ शरीर और सौंदर्य का क्षरण होता है पर मानव की प्रवृति है युवावस्था को बांध कर रखने की. जिसमे वह पूरी तरह से तो नहीं पर आंशिक रूप से इन विधियों को अपना कुछ सफलता तो पा ही लेता है। हालांकि सौंदर्य वह नहीं है जो बाहर से थोपा जाए. असली सौंदर्य तो मानव के भीतर ही रह कर अपना आभास देता रहता है।
4 टिप्पणियां:
सुन्दर प्रस्तुति...
आपका मैं अपने ब्लॉग ललित वाणी पर हार्दिक स्वागत करता हूँ ..एक बार यहाँ भी आयें और अवलोकन करें, धन्यवाद।
जब प्रकृति में असीम सौन्दर्य छिपा है तो शरीर क्यों न धारण करे उसे।
अंगशुचिमज्जन, अमलवासन, यावक, केश रचन, श्रृंगारिक अर्पण, भाल तिलक, चिबुक तिल, कुंकुमकरण, अरगजा, भूषण, पुषसज्जन, सुगन्धि करण, मुखराग, दन्तरंजन , अधरराग, कज्जलनयन.....
सिंगारिक कबित अस जस, गौरस की तासीर ।
जोरन देइ सार मिले तोरन मिलइ पनीर ।१२२९।
भावार्थ : -- श्रृंगार रस युक्त काव्य की अनुभूति ऐसी होती है, जैसे गौरस का स्वभाव होता है । यदि उसे योग दें तो मक्खन मिलता है, और वियोग दें तो पनीर मिलता है ॥
सुन्दर लेख... सादर
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