बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

आज तीनों बंदर भी हैरान हैं


 उन तीनों  बंदरों  की साख, उनके आदर्श भी तो दाँव पर लगे हुए हैं। इस कठिन समय में उन्हें राह दिखाने  वाले गांधी भी तो नहीं रहे।  पर यदि होते तो क्या आज के हैवानियत भरे माहौल में जाहिल-जालिम लोग उनकी बात मानते, इसमें भी तो शक है !!!  

मिजारु, मिकाजारु, मजारु, तीन बंदर, पर कितने बुद्धिमान, बुरा कहने, सुनने  और देखने की मनाही करने वाले। गांधीजी को ये इतने भाए और उन्होंने तीनों को ऐसे अपनाया कि  वे गांधीजी के बंदर ही कहलाने लग गए। ये तीनों भी जापान से ऐसे ही भारत नहीं चले आए थे। वे आए थे यहाँ की संस्कृति, यहाँ का ज्ञान, यहाँ का पांडित्य, यहाँ की मर्यादा, यहाँ के सर्व-धर्म समभाव का गुणगान सुन कर। यहाँ की क्षमा शीलता की, मानवता की, भाई-चारे की,  माता-पिता-गुरु जनों के सम्मान की गाथाएं सुन कर। यहाँ के रहवासियों के  प्रकृति-पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम की कहानियां सुन कर।   यहाँ आकर शरण भी ली तो ऐसे इंसान के यहाँ जो सदा  दूसरों के प्रति समर्पित रहा और फिर तीनो  यहीं के हो कर रह गए।

शीर्ष पर पहुँचने  के बाद हर मार्ग अवनति की ओर  ही जाता है। यह उन तीनों ने भी सुन रखा था पर इतनी जल्दी मूल्यों का ह्रास हो जाएगा वह भी भारत में, यह तो किसी ने भी नहीं सोचा था। समय चलायमान है, उसके साथ हर चीज बदलती जाती है। यहाँ भी वैसा ही हुआ, समय बदला, ज़माना बदला, परिस्थितियाँ बदलीं, साथ ही साथ नेता भी बदले और उन्होंने  अपने मतलब के तहत हर चीज की परिभाषा भी बदल डाली।

गांधीजी हमारे मार्गदर्शक रहे, झंझावातों के बावजूद उनके दिखाए रास्ते पर चल कर देश आजाद हुआ। पर अब उनके आदर्शों,  उनकी बातों का लोग अपनी सुविधानुसार उपयोग कर अपना मतलब निकालने में जुटे हुए हैं। बेचारे बंदर भी वैसी ही  कुटिल चालों का शिकार हो गए।  बंदर वही हैं उनकी सीखें भी वही हैं पर कुछ मौका-परस्त, चंट  लोगों ने  उनका अलग अर्थ निकाल कर  आम इंसान की मति  भ्रष्ट करनी  शुरू कर दी  है।  

पहले मजारु  के संकेत का अर्थ बुरा न कहने से लिया जाता था। अब उसका अर्थ निकाला जाता है कि कुछ भी होता रहे, देखते रहो, सुनते रहो पर बोलो मत कुछ भी। लाख अन्याय हो अपना मुंह फेर लो। मजलूमों पर जुल्म होता रहे तुम अनदेखा कर अपनी राह चलते रहो।  एक  चुप हजार नियामत। 

पहले मिजारु  के संकेत का अर्थ समझा जाता था कि बुरा मत देखो। अब उसका अर्थ हो गया है कि कुछ देखो ही  मत। बस बिना सोचे-समझे जो मुंह में आए  बोलते रहो। जितना हो सके दूसरों की बुराई करते हुए हदें पार कर दो।  किसी को नेक नामी मिलते ही उसकी बखिया उधेड़ दो। किसी के अच्छे काम को भी मीन-मेख निकाल कर निकृष्ट सिद्ध कर दो। वादे करो, सब्ज बाग़ दिखाओ और भूल जाओ। 

उसी तरह पहले मिकाजारु  के संकेत का अर्थ बुरा ना सुनने में किया  जाता था पर आज उसके अर्थ का भी  अनर्थ कर दिया गया है। अब उससे यह समझाया जाता है कि अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी मत सुनो। कोइ लाख चिल्लाता रहे तुम अपनी रेवड़ियां बाँटते रहो, जनता के खून-पसीने की कमाई से अपने घर भरते रहो। कोइ विरोध करे तो उसकी ऐसी की तैसी करवा दो। कोइ कुछ भी बोले, कुछ भी कहे तुम अपने कानों पर जूँ मत रेंगने दो।

तीनों बंदर भी  हैरान हैं कि क्या यह वही देश है जिसकी किसी समय संसार भर में तूती बोला करती थी। जो ज्ञान और शिक्षा में जगत-गुरु कहलाता था। जिसके ऋषि-मुनियों के उपदेश दुनिया को राह दिखाते थे।  क्या  हो गया है यहाँ के गुणी जनों को, वीरों को, देश भक्तों को। क्यों मुट्ठी भर पथ भ्रष्ट लोगों के कारनामों पर पूरा देश चुप्पी साधे बैठा है?  क्यों  देश को रसातल की और जाते देख भी आक्रोश नहीं उमड़ता? क्यों महिलाओं की, दलितों की चीखों पर भी कान बंद किए हुए हैं लोग?

औरों की तो क्या कहें उन तीनों की अपनी साख, उनके अपने आदर्श भी तो दाँव पर लगे हुए हैं। इस कठिन समय में उन्हें राह दिखाने  वाले गांधी भी तो नहीं रहे।  पर यदि होते तो क्या आज के हैवानियत भरे माहौल में जाहिल-जालिम लोग उनकी बात मानते, इसमें भी तो शक है !!!  

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

अब तो सब अपना अपना मुँह छिपाये बैठे हैं।

रविकर ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति-
शुभकामनायें भाई जी-

विशिष्ट पोस्ट

रिहन्द नदी और मांड नदी का उद्गम हुआ है। इसे छत्तीसगढ़ का तिब्बत भी कहा जाता है क्योंकि जब 1962 में चीन से डर कर तिब्बती शरणार्थी के रूप में आ...