शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

प्रभू की माया कौन समझ पाया

सावन-भादों की एक शाम। आकाश में घने बादल गहराते हुए रौशनी को विदा करने पर आमदा थे। दामिनी एक सिरे से दूसरे सिरे तक लपलपाती हुई माहौल को और भी डरावना बना रही थी। जैसे कभी भी कहीं भी गिर कर तहस-नहस मचा देगी। हवा तूफान का रूप ले चुकी थी।

ऐसे में उस सुनसान इलाके में, एक जर्जर अवस्था में पहुंच चुके खंडहर में, एक आदमी ने दौड़ते हुए आकर शरण ली। तभी दो सहमे हुए मुसाफिरों ने भी बचते बचाते वहां आ कर जरा चैन की सांस भरी। फिर एक व्यापारी अपने सामान को संभालता हुआ आ पहुंचा। धीरे-धीरे वहां सात-आठ लोग अपनी जान बचाने की खातिर इकट्ठा हो गये। बरसात शुरु हो गयी थी। लग रहा था जैसे प्रलय आ गयी हो। इतने में एक फटे हाल बच्चा अपने सूकर के साथ अंदर आ गया। उसके आते ही मौसम ने प्रचंड रूप धारण कर लिया। बादलों की कान फोड़ने वाली आवाज के साथ-साथ ऐसा लगने लगा जैसे बिजली जमीन को छू-छू कर जा रही हो। सबको लगने लगा कि उस अछूत बच्चे के आने से ही प्रकृति का कहर बढ़ा है। यदि यह इस मंदिर में रहेगा तो भगवान के कोप से बिजली जरूर यहीं गिरेगी। इस पर सबने एक जुट हो, उस डरे, सहमे बच्चे को जबर्दस्ती धक्के दे कर बाहर निकाल दिया। रोते हुए बच्चे ने कुछ दूर एक घने पेड़ के नीचे शरण ली।

उसके वहां पहुंचते ही जैसे आसमान फट पड़ा हो, बादलों की गड़गड़ाहट से कान बहरे हो गये। बिजली इतनी जोर से कौंधी कि नजर आना बंद हो गया। एक पल बाद जब कुछ दिखाई पड़ने लगा, तब तक उस खंडहर का नामोनिशान मिट चुका था। प्रकृति भी धीरे-धीरे शांत होने लगी थी।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

प्रकृति सब जानती है, किसे आश्रय दे।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
नमस्कार.
शुभ दिनों की आपको परिवार सहित मंगल कामनाएं

विशिष्ट पोस्ट

प्रेम, समर्पण, विडंबना

इस युगल के पास दो ऐसी  वस्तुएं थीं, जिन पर दोनों को बहुत गर्व था। एक थी जिम की सोने की घड़ी, जो कभी उसके पिता और दादा के पास भी रह चुकी थी और...