सोमवार, 3 जून 2013

गांव से माँ आई है

गांव से माँ आई है। गर्मी पूरे यौवन पर है। गांव शहर में बहुत फर्क है। पर माँ को यह मालुम नहीं है। माँ तो शहर आई है अपने बेटे, बहू और पोते-पोतियों के पास, प्यार, ममता, स्नेह की गठरी बांधे। माँ को सभी बहुत चाहते हैं पर इस चाहत में भी चिंता छिपी है कि कहीं उन्हें किसी चीज से परेशानी ना हो। खाने-पीने-रहने की कोई कमी नहीं है दोनों जगह पर जहां गांव में लाख कमियों के बावजूद पानी की कोई कमी नहीं है वहीं शहर में पानी मिनटों के हिसाब से आता है और बूदों के हिसाब से खर्च होता है। यही बात दोनों जगहों की चिंता का वायस है। भेजते समय वहां गांव के बेटे-बहू को चिंता थी कि कैसे शहर में माँ तारतम्य बैठा पाएगी, शहर में बेटा-बहू इसलिए परेशान कि यहां कैसे माँ बिना पानी-बिजली के रह पाएगी। पर माँ तो आई है प्रेम लुटाने। उसे नहीं मालुम शहर-गांव का भेद।

पहले ही दिन मां नहाने गयीं। उनके खुद के और उनके बांके बिहारी के स्नान में ही सारे पानी का काम तमाम हो गया। सारे परिवार को गीले कपडे से मुंह-हाथ पोंछ कर रह रहना पडा। माँ तो गांव से आई है। जीवन में बहुत से उतार-चढाव देखे हैं पर पानी की तंगी !!! यह कैसा शहर है जहां लोगों को पानी जैसी चीज नहीं मिलती। जब उन्हें बताया कि यहां पानी बिकता है तो उनकी आंखें इतनी बडी-बडी हो गयीं कि उनमें पानी आ गया।

माँ तो गांव से आई हैं उन्हें नहीं मालुम कि अब शहरों में नदी-तालाब नहीं होते जहां इफरात पानी विद्यमान रहता था कभी। अब तो उसे तरह-तरह से इकट्ठा कर, तरह-तरह का रूप दे तरह-तरह से लोगों से पैसे वसूलने का जरिया बना लिया गया है।

माँ तो गांव से आई है उसे कहां मालुम कि कुदरत की इस अनोखी देन का मनुष्यों ने बेरहमी से दोहन कर इसे अब देशों की आपसी रंजिश का वायस बना दिया है। उसे क्या मालुम कि संसार के वैज्ञानिकों को अब नागरिकों की भूख की नहीं प्यास की चिंता बेचैन किए दे रही है। मां तो गांव से आई है उसे नहीं पता कि लोग अब इसे ताले-चाबी में महफूज रखने को विवश हो गये हैं।

 माँ तो गांव से आई है जहां अभी भी कुछ हद तक इंसानियत, भाईचारा, सौहाद्र बचा हुआ है। उसे नहीं मालुम कि शहर में लोगों की आंख तक का पानी खत्म हो चुका है। इस सूखे ने इंसान के दिलो-दिमाग को इंसानियत, मनुषत्व, नैतिकता जैसे सद्गुणों से विहीन कर उसे पशुओं के समकक्ष ला खडा कर दिया है।

माँ तो गांव से आई है जहां अपने पराए का भेद नहीं होता। बडे-बूढों के संरक्षण में लोग अपने बच्चों को महफूज समझते हैं पर शहर के रसविहीन समाज में कोई कब तथाकथित अपनों की ही वहिशियाना हवस का शिकार हो जाए कोई नहीं जानता।        

ऐसा नहीं है कि बेटा-बहू को मां की कमी नहीं खलती, उन्हें उनका आना-रहना अच्छा नहीं लगता। उन्हें भी मां के सानिध्य की सदा जरूरत रहती है पर वे चाहते हैं कि माँ  इस शुष्क, नीरस, प्रदूषित वातावरण से जितनी जल्दि वापस चली जाए  उतना ही अच्छा।





16 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गाँव छोड़कर नगर बसाया, नगर बस गया खाली खाली।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा आज मंगलवार (04-06-2013) को तुलसी ममता राम से समता सब संसार मंगलवारीय चर्चा --- 1265 में "मयंक का कोना" पर भी है!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

रविकर ने कहा…


बढ़िया -
शुभकामनायें

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, स्नेह बना रहे।

Guzarish ने कहा…

आपकी यह रचना कल बुधवार (05-06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सरिता जी, हार्दिक धन्यवाद

Tamasha-E-Zindagi ने कहा…

अति सुन्दर | आभार

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

दुख तो यह है कि अब गाँव भी वैसे नहीं रहे जैसे थे,हाँ शहर की बातें बेचारी माँ के गले से और भी नहीँ उतरेंगी!

अरुणा ने कहा…

सच कहा गाँव से आई माँ को नहीं पता शहर कैसा होता है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सच तो यह है कि शहर में रहती माँ ऐं भी कहां ताल-मेल बैठा पा रही हैं आज के इस प्रदूषित, संवेदनहीन माहौल से

दिल की आवाज़ ने कहा…

बहुत बढ़िया प्रस्तुति आदरणीय ... बधाई

Unknown ने कहा…

आपकी यह सुन्दर रचना शनिवार 08.06.2013 को निर्झर टाइम्स (http://nirjhar-times.blogspot.in) पर लिंक की गयी है! कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बृजेश जी, हार्दिक धन्यवाद

Chetan ने कहा…

kya hota ja raha hai yah sab?

P.N. Subramanian ने कहा…

सुन्दर पोस्ट. चेन्नई में माताजी गाँव से आयी है और झेल रही है. हम भी साथ दे रहे हैं पिछले ४ माह से.

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


सुन्दर प्रस्तुति !
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