मंगलवार, 14 फ़रवरी 2012

ऐसा होता है वेलेंटाइन

 गुलेरीजी के शब्दों मे ही, अमृतसर के तांगेवालों की चाकू से भी तेज धार की जबान, दोनों बच्चों की चुहल, खंदक की असलियत, लड़ाई की विभीषिका, सूबेदारनी की याचिका, लहना की तुरंत-बुद्धि और फिर धीरे-धीरे करीब आती मौत के साये में स्मृति के उभरते चित्र, वह सब बिना पढे महसूस करना मुश्किल है।

आज वेलेंटाइन दिवस है। इसे प्रेम दिवस के रूप में भी खूब प्रचारित किया गया है। पश्चिम से आए इस उत्सव ने भारतीय युवाओं को खूब लुभाया है। सब इसे अपने-अपने अर्थ लगा, अपनी-अपनी समझ के अनुसार अपने-अपने तरीके से मनाने की कोशिश करते हैं। पर कितनों में अपने प्रिय के प्रति सच्चे प्रेम या त्याग की भावना रहती है? वर्षों पहले श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरीजी की अमर कहानी "उसने कहा था" उसी प्रेम की पवित्रता और गहराई के कारण खुद और अपने लेखक को अमर कर गयी है।  

पहली बार बचपन में जब "उसने कहा था" कहानी को पढा और फिर फिल्म भी देखी तो ना कुछ महसूस हुआ था नाहीं उसकी गहराई समझ में आई थी, सब सर के ऊपर से गुजर गया था। पढाई के दौरान इस कहानी के कोर्स में होने के कारण फिर बहुत बार इसे पढने का मौका मिला तब जाकर समझ में आया कि कैसे और क्यूं इस एक कहानी से ही गुलेरीजी अमर हो गये। लगता नहीं कि आज के अधिकांश युवा इससे परीचित होंगे। पहले तो कोर्स वगैरह में भी यह होती थी। पर धीरे-धीरे सब कुछ बदल ही तो रहा है। इस अमर कहानी का सार देने की कोशिश करता हूं।

अमृतसर में अपने मामा के घर आए दस-ग्यारह साल के लहनासिंह का बाज़ार में अक्सर एक सात-आठ साल की लडकी से सामना हो जाता है। ऐसे ही छेड़-छाड़ के चलते लहना उससे पूछता रहता है "तेरी कुड़माई (सगाई)हो गयी" और लड़की "धत्" कह कर भाग जाती है। पर एक दिन वह बालसुलभ खुशी से जवाब देती है "हां, हो गयी। देखता नहीं मेरा यह रेशमी सालू"।

वह तो चली जाती है, पर लहना पर निराशा छा जाती है। दुख और क्रोध एक साथ हावी हो बहुतों से लड़वा, भिड़वा, गाली खिलवा कर ही उसे घर पहुंचवाते हैं।

पच्चीस साल बीत जाते हैं। फौज में लहना सिंह जमादार हो जाता है। उसका अपनी बटालियन के सूबेदार हज़ारा
सिंह के साथ अच्छा दोस्ताना है। एक ही तरफ के रहनेवाले हैं। हज़ारा सिंह का बेटा बोधा सिंह भी इनके साथ उसी मोर्चे पर तैनात है। कुछ दिनों पहले छुट्टियों में ये घर गये थे। तभी पहला विश्वयुद्ध शुरु हो जाता है। सबकी छुट्टियां रद्द हो जाती हैं। हज़ारा सिंह खबर भेजता है, लहना सिंह को कि मेरे घर आ जाना, साथ ही चलेंगे। लहना वहां पहुंचता है तो सूबेदार कहता है कि सूबेदारनी से मिल ले, वह तुझे जानती है। लहना पहले कभी यहां आया नहीं था, चकित रह जाता है कि वह मुझे कैसे जानती होगी। दरवाजे पर जा मत्था टेकता है। आशीष मिलती है। फिर सूबेदारनी पूछती है "पहचाना नहीं?  मैं तो देखते ही पहचान गयी थी....तेरी कुड़माई हो गयी.......धत्.....अमृतसर"

सब याद आ जाता है लहना को। सूबेदारनी रोने लगती है। बताती है कि चार बच्चों में अकेला बोधा बचा है। अब दोनों लाम पर जा रहे हैं। जैसे तुमने एक बार मुझे तांगे के नीचे आने से बचाया था, वैसे ही इन दोनों की रक्षा करना। तुमसे विनती है।

मोर्चे पर बर्फबारी के बीच बोधा सिंह बिमार पड़ जाता है। खंदक में भी पानी भरने लगता है। लहना किसी तरह बोधे को सूखे में सुलाने की कोशिश करता रहता है। अपने गर्म कपड़े भी बहाने से उसे पहना खुद किसी तरह गुजारा करता है। इसी बीच जर्मन धोखे से हज़ारा सिंह को दूसरी जगह भेज खंदक पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं पर लहना सिंह की चतुराई से हज़ारा सिंह की जान और खंदक दोनों बच जाते हैं। पर वह खुद बुरी तरह घायल होने पर भी चिकित्सा के लिये बाप-बेटे को पहले भेज देता है, हज़ारा सिंह से यह कहते हुए कि घर चिठ्ठी लिखो तो सूबेदारनी से कह देना उसने जो कहा था मैने पूरा कर दिया है। उनके जाने के बाद वह अपने प्राण त्याग देता है।

यह तो कहानी का सार है। पर बिना इसे खुद पढे इसकी मार्मिकता नहीं समझी जा सकती।  गुलेरीजी के शब्दों मे ही, अमृतसर के तांगेवालों की चाकू से भी तेज धार की जबान, दोनों बच्चों की चुहल, खंदक की असलियत, लड़ाई की विभीषिका, सूबेदारनी की याचिका, लहना की तुरंत-बुद्धि और फिर धीरे-धीरे करीब आती मौत के साये में स्मृति के उभरते चित्र, वह सब बिना पढे महसूस करना मुश्किल है।

यदि कभी भी मौका मिले तो इसी नाम पर बनी पुरानी "उसने कहा था" फिल्म देखने से ना चूकें।  जिसमें स्व. सुनील दत्त और नंदा ने काम किया था।

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

गुलेरीजी की पूरी कहानी ही वैलेन्टाइन है..

P.N. Subramanian ने कहा…

लम्बे समय के बाद पुनः कहानी का सार पढ़कर अच्छा लगा. बहुत बहुत आभार.

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