इंसान के सभ्य होते ही शायद लडाई-झगडे भी शुरू हो गये थे। जर-जमीन-जोरु के लिए छोटे-मोटे झगडों से लेकर बडी-बडी लडाईयां होती रही हैं और होती रहेंगी। अब तो हर देश के पास अपनी सेना है। पर शुरु में ऐसा नहीं होता था, जनबल की कमी को देखते हुए लोग बाहर से पेशेवर लडाकों को धन इत्यादि का प्रलोभन दे अपनी तरफ से लडवाते थे। वैसे भी लडाई-झगडा, खून-खराबा सब के बस की बात नहीं होती इसीलिए खुंखार प्रकृति के लोग अपने लाभ के लिए इस पेशे को अपनाते थे। पहले जनहानि तो होती थी पर उतनी नहीं क्योंकि राजा या सेनापति के मरने या समर्पण करते ही युद्ध समाप्त माना जाता था। फिर कुछ जातियां ऐसी थीं जो व्यापार को ज्यादा तरजीह देती थीं और उनमें लडाई करने की मानसिकता का अभाव था, पर उन्हें भी अपनी रक्षा के लिए भाडे के सैनिकों की आवश्यकता पडती ही रहती थी। इन्हीं भाडे के सैनिकों को आज "मर्सनरि" कहा जाता है।
मर्सनरि उस भाडे के सैनिक को कहते हैं जो सेना में भर्ती हो किसी युद्ध में सिर्फ अपने लाभ और पैसों के लिए भाग लेता है। उसको कोई मतलब नहीं होता कि कौन, किससे और क्यूं लड रहा है। जरूरी नहीं होता कि एक संघर्ष खत्म होने पर वह उसी पक्ष का हो कर रहे, धनबल के जरिए कोई भी उसकी सेवाएं प्राप्त कर सकता है।
पर अनिवार्य ना होते हुए भी जो सेना में भर्ती होते हैं वह मर्सनरि नहीं कहलाते, भले ही उन्हें उनकी बहादुरी के लिए पारितोषिक या धन मिलता हो, क्योंकि वे अपने पक्ष, समाज या देश के प्रति समर्पित होते हैं।
1977 की जेनेवा मिटिंग में 1949 के प्रलेख में संशोधन करते हुए मर्सनरि को फिर परिभाषित करते हुए बताया गया कि यदि कोई युद्ध में सिर्फ अपने लाभ के लिए भाग लेने का इच्छुक हो, या उसे किसी भी पक्ष द्वारा अपनी तरफ से युद्ध में भाग लेने पर बहुत ज्यादा धन की पेशकश, अपने 'रैंक' से भी ज्यादा की गयी हो वही मर्सनरि कहलाता है। इससे यही पता चलता है कि मर्सनरि सिर्फ अपने लाभ और पैसे के लिए लडने वाला भाडे का लडाका होता है। इनका कोई आदर्श नहीं होता ये सिर्फ पैसों के लिए युद्ध में भाग लेते हैं। इन्हें लूटपाट और खून-खराबे में ही आनंद मिलता है। इसीलिए इसे अच्छे अर्थों में ना लेकर नकारात्मक रूप में ही लिया जाता है। वैसे भाडे के सैनिकों को भी जीवन में अच्छे पद और गौरव पाने के अवसर मिले हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी का अंत आते-आते दुनिया के प्राय: सभी देशों द्वारा अपनी सेनाओं का गठन करने के कारण इनकी मांग में कमी आयी है। पर इसमें भी कुछ अपवाद हैं। जैसे हमारी सेना में "गोरखा ब्रिगेड" को मर्सनरि नहीं कहा और माना जाता।
दुनिया में भाडे के सैनिकों की जरूरत बनी ही रही। अफ्रिका, अंगोला, कांगो में उनका जम कर प्रयोग किया गया। विभिन्न जगहों में इनको विभिन्न नामों से संबोधित किया जाता रहा है जैसे 'सोल्जर आफ फारचून,' 'डाग्स आफ वार' या 'हीरो आफ वार' इत्यादि।
भारत में ऐसे सैनिकों को सेना में लेने का सदा ही चलन रहा है। मुगल काल में तो मनसबदारी प्रथा शुरू कर दी गयी थी जिससे लम्बे युद्ध में कभी सैनिकों का अभाव ना हो सके।
वैसे आज भी भाडे के सैनिकों के बारे में खबरें आती ही रहती हैं। अमेरिका की एक पत्रिका "सोलज़रस आफ़ फारचून" में मर्सनरि के लिए विज्ञापन निकलते ही रहते हैं। जरा उनकी बानगी देखीये "ज्वाइन द आर्मी, ट्रेवल टू डिस्टेंट लैंड्स, मीट इंटेरेस्टिंग पिपल एंड किल देम"। और हजारों लोग जाते भी हैं जिनकी नीति लाभ और लोभ में पड कर कुछ भी करना सही होता है। इन्हें केंद्र में रख बहुत सारी फिल्में भी बन चुकी हैं और लोगों द्वारा सराही भी गयी हैं.
3 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया!
घातक रोचकता का विज्ञापन...
दुनिया को रास्ता बताने वाले यही तो हैं.
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