अक्सर कहीं ना कहीं पढने को मिल ही जाता है कि फलानी जगह ग्राहकों को छोटे नोटों के अभाव में पूरे पैसे नहीं लौटाए जाते। इसमें छोटे नोटों की किल्लत की मजबूरी हो सकती है पर इसके साथ यह भी सच है कि बहुतेरी जगहों में जानबूझ कर लालच के वशीभूत ऐसी हरकतें होती रहती हैं।
अब छोटे नोटों की बात तो समझ में आती है। एक, दो, पांच के नोट चलन में कम भी हुए हैं। इसी कारण कुछ जगहों पर विवाद की स्थिति बन जाती है, जैसे रेल या बस इत्यादि के किराए दूरी के हिसाब से तय होते हैं और वह किसी भी सम या विषम संख्या में हो सकते हैं इसके चलते चाहते हुए भी हो सकता है कि काउंटर पर बैठा आदमी किल्लत के कारण पूरे पैसे ना लौटा पाता हो। पर है तो यह गलत ही। संबंधित संस्थान की जिम्मेवारी है कि वह अपने ग्राहक से वाजिब कीमत ही ले।
यह जगह है छतीसगढ के डोंगरगढ में प्रसिद्ध तीर्थस्थल माँ बम्लेश्वरीजी का मंदिर। यहां यात्रियों की सहूलियत के लिए सीढियों के साथ साथ "उडन पथ" की सुविधा भी उपलब्ध है। पर उसका किराया कुछ ऐसा निर्धारित किया गया है जो किसी भी नजर से उचित नहीं लगता। आज जब 25 पैसे का सिक्का चलन से बाहर हो चुका है, 50 पैसे का चलन सिर्फ कागजों पर ही दिखाई देता है, 1, 2, 5, की करेंसी मुश्किल से मिलती है तो किस हिसाब से कैसे और क्यों ऐसे किराये का निर्धारण किया जाता है जो बार-बार संशोधित होने के बाद भी रुपये और पैसों में ही निर्धारित होता है।

ये तो हुई मजबूरी या जानबूझ कर पैसा ना लौट सकने की बात। पर छतीसगढ में एक जगह ऐसी भी है जहां किराया ही कुछ इस तरह का निश्चित किया गया है कि उसे ना ठीक लिया जा सकता है नांही दिया। पता नहीं कौन, कैसे, किस तरह इस प्रकार की बेतुकी सूची तैयार करता है और कौन लागू करता है।

यह लापरवाही है, किसी प्रकार की मजबूरी है या भूल है, भूल है तो यह 'ब्लंडर" है। ऐसा तो नहीं कि किसी को अप्रत्यक्ष रूप से फायदा पहुंचाने के लिए इस ओर ध्यान ही नहीं दिया जाता हो?
इस तरह का सटीक किराया तो कोई भी नहीं दे सकता, किसी से कम लेने का सवाल ही पैदा नहीं होता तो जो रकम ली जाती है, "पूर्णांकों" में, उसका फायदा कहां जाता है?
गर्मी के कुछ दिनों को छोड दें तो माँ के दर्शनार्थ यहां स्थानीय और दूसरे प्रदेशों से आने वाले भक्तों की भीड सदा ही उमडी रहती है और अधिकांश लोग"ट्राली" का सहारा लेते हैं तो सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि रोज की बचत का जखीरा कितना बडा होगा।
तो क्या उचित नहीं है कि शासन-प्रशासन इस ओर ध्यान देकर "उडन पथ" के किराए को एक तर्कसंगत और उचित रूप दें जिससे पैसा गलत जगह ना जा सही जगह जमा हो किसी भले काम में उपयोग हो सके।
5 टिप्पणियां:
यह तो इक्कीसवीं सदी का अजूबा लगता है! एकदम अप्रायोगिक! और भरपूर हास्यास्पद.
हा हा, दशमलव में किराया..
बहुत सार्थक प्रस्तुति!
लगता है इनकी मति मारी गयी है.
अचंभा तो इसी बत का है कि भिन्न-भिन्न जगहों से भिन्न-भिन्न तरह के लोग आते हैं पर कोई भी इस पर ध्यान ना दे जो मांगा जाता है दे कर चले जाते हैं। वैसे भी हम धर्मभीरू हैं देवस्थानों में जा कर विवाद करने से डरते हैं। इसी से फायदा उठा कुछ लोग अपनी रोटी सेकते रहते हैं।
एक टिप्पणी भेजें