आज मन बहुत व्यथित है। बाबा रामदेव के हश्र को देख कर नहीं अपनी औकात को देख कर। दो दिन से टीवी, अखबार, रिसाले, ब्लाग किसी पर भी नजर दौड़ा लीजिए, अपनी सच्चाई मुंह बाए खड़ी नजर आ रही है। शीशे में अपना अक्स साफ दिखाई दे रहा है। इन सब ने हमारी सारी असलियत खोल कर रख दी है। जता दिया है कि हम वो हैं, जिन्हें दिखावे की, वह भी झूठी, चिंता रहती है, देश-जहान की। पर कुछ कर गुजरने का मौका आने पर हम बगलें झांकने लगते हैं।
हम वो हैं जो दूसरे को मान-सम्मान मिलता देख जल-भुन-कुढ कर उसकी बुराईयां खोजने लगते हैं।
हम वो हैं जो पीठ पीछे तो नेता-अभिनेता,मंत्री-संत्री को गलियाते रहते हैं पर जब वह सामने आ जाता है तो साष्टांग पसरने में भी गुरेज नहीं करते।
हम वो हैं जो सत्ताधारियों की नीतियों, फैसलों, हठधर्मिता से परेशान हैं त्रस्त हैं। अपने को अक्लमंद समझ सबकी छीछालेदर करते हैं पर जब मौका आता है तो फिर वही ढाक के तीन पात। उन्हीं की जी-हजूरी में पहुंच जातै हैं।
हम वो हैं जो भ्रष्टाचार पर बढ-चढ कर बोलते हैं। इस पर उस पर इल्जाम लगाते हैं पर जब 100-50 रुपये मे खुद को कोई सहूलियत मिलने लगती है तो सारी नैतिकता-वैतिकता भूल उसे जायज समझ लपक लेते हैं।
हम वो हैं जो खुद कुछ नहीं करते, हिम्मत ही नहीं है, पर जब दूसरा कोई राजबल, बाहूबल, धनबल के खिलाफ खड़ा होने का साहस करता है तो उस की टांग खिंचने से बाज नहीं आते।
हम वो हैं जो दूसरे पर अत्याचार होते देख उसका साथ देने के बजाए खिड़की बंद कर घर में दुबक जाते हैं। शुक्र मनाते हैं कि हम बचे हुए हैं पर यह नहीं सोच पाते कि कब तक।
हम वो भी हैं जो अन्याय देख विचलित होते हैं, कसमसाते हैं, कुढते हैं पर कुछ कर पाने में अपने को असहाय, लाचार पा चुप हो बैठे रह जाते हैं
यह इस देश का दुर्भाग्य रहा है, सदा से कि बार-बार, हर बार आताताईयों के अत्याचार के विरुद्ध, चाहे वह देसी रहा हो या विदेशी, कुछ मुट्ठी भर जांबाजों ने ही सर उठा उन्हें ललकारा, उनका विरोध किया और शहादत को गले लगाया। बाकि करोंड़ों लोग अपनी जान बचाते हुए तमाशाई बने रहे।
कल की काली रात को क्या हुआ, एक आदमी ने आवाज उठाई तो सैंकड़ों उंगलियां उसी की ओर विरोध दर्शाते उठ गयीं या उठवा दी गयीं और उसे ही कठघरे में खड़ा करवा दिया गया। सारे माजरे को देख बहुत पहले कहीं पढी एक लघु कथा याद आ रही है -
एक ट्रेन के डिब्बे में कुछ बदमाश घुस कर लूट-खसोट करने लगे। गिनती के उन छह-सात लोगों का सामना करने की डिब्बे के लोगों मे से किसी ने भी हिम्मत नहीं दिखाई। तभी टायलेट से एक सैनिक निकला। वहां की हालत देख उसने बदमाशों को ललकारा और उनसे भिड़ गया। पर अकेला कब तक लड़ता कुछ देर में गुंडों ने उसे उठा कर गाड़ी के बाहर फेंक दिया और चेन खींच कर फरार हो गये। गाड़ी रुकी पीछे जा कर देखा गया तो उस साहसी जवान की लाश ही मिली।
कुछ देर बाद गाड़ी चली। यात्री आपस में बतियाने लगे घटी घटना को लेकर। उन्हीं मे से एक बोला, बेवकूफ था। चला था हीरो बनने। बेकार में जान गवांई। चुप-चाप पड़ा रहता उसका क्या जा रहा था। हम भी तो बैठे ही थे।
20 टिप्पणियां:
aapke shabd hamen sharmsaar karne me samarth hain
आइना दिखाती हुई पोस्ट!
हममें खुद कुछ करने की तो हिम्मत है ही नहीं, दूसरा लड़ रहा है तो उसी में छिद्र खोज रहे हैं... वाह हम लोग...
गगन शर्मा जी ,
बहुत सटीक प्रस्तुति। दूसरों में दोष देखने की आदत मनुष्य में बरसों पुरानी है।
आपसे सहमत हूँ !
आदरणीय गगन जी,
आज सभी देशप्रेमियों का मन भी व्यथित है. इसका हल यही है कि हम सरकार की जड़ों को मज़बूत करने वाले व्यापारियों का असहयोग करें. उन सभी को पहचानना होगा.
आज़ के समाचारों में मीडिया शीर्षासन करता दिखा, सभी चैनल बाबा के लिये नकारात्मक बोलते दिखे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से जवाब माँग तो लिया है लेकिन वो कोई-न-कोई हथकंडा अपनाकर फिर से इस मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल देगी. काले धन का एक बड़ा मुद्दा फिर से दफ़न कर दिया जायेगा. कुछ जल्द किया जाना बेहद जरूरी है.... मैंने बहुत सोचा कि ब्लॉगजगत कैसे सरकारी भ्रष्ट-तंत्र के खिलाफ कार्य कर सकता है. तब विचार आया कि हम 'अनशन' न सही हम 'असहयोग' जरूर कर सकते हैं और जनता को जागरूक कर सकते हैं असहयोग के लिये. यह असहयोग किस प्रकार का हो.. यह हमें सोचना है.
— जैसे असहयोग हो सकता है... विदेशी कंपनियों के उत्पादों के बहिष्कार का. सरकार मल्टीनेशनल कम्पनियों की भारत में जड़े ज़माना चाहती है. उसकी क्या मंशा है... इसका पता लगाना होगा.
अब तो सरकार के हर कार्य मुझे संदेहास्पद लगते हैं. ये सरकार आम जनता का विश्वास खो चुकी है. मनमोहन भी पुलिसिया कार्यवाई को सही ठहराते दिखे.. उन्हें ८४ के दंगों की याद नहीं आती अब शायद .. जो कांग्रेस द्वारा प्रायोजित थी.
सरकार बाबा के पतंजलि योग पीठ के सभी उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना चाहती है. सभी उत्पाद काफी प्रभावी और गुणवत्ता में उत्कृष्ट हैं, जब मैंने स्वयं इस्तेमाल किये तो लगा कि औषधियाँ ही नहीं अन्य खाद्य पदार्थ भी बेहद प्रभावी हैं.
apni haalat k hum khud hi zimmeddar hai
सांच कहूँ तो मारन धावा,
झूठ कहूं तो जग पतियावा॥
ठगों ने देश को ठग ही लिया :(
बिलकुल सही कह आप ने आम आदमी युही नहीं लुटा जाता उसकी डरपोक होने के कारण ही सभी उसे लुटते है |
शर्मा जी आप का लेख एक आईना हे जो आप ने हम सब को दिखाया हे, ओर इस आईने को देख कर देखे लोग मर्द की ओलाद बनते हे, या फ़िर से हिजडे ही बना रहना पसंद करते हे, जागो जागो फ़िर यह मोका नही आयेगा.... हर कोई जागे फ़िर देखो कोन हमारे मुंह से निबाला छीनता हे, बाबा राम देव ओर अन्ना हजरे ने बिगुल तो बजा दिया अब बढना तो तुम लोगो ने ही हे जागो....
आईना दिखाती पोस्ट ...
आज राजघाट जा कर अपना समर्थन तो दिया ही जा सकता है, ज्यादा कुछ ना सही तो।
शर्मा जी! इतना व्यथित होने से काम नहीं चलने वाला। कुछ करने की आवश्यकता है जिससे ऐसा कोढ़ मिटे। ज़रा इन लाइनों पर गौर करें-
'ज़ुल्मो-सितम को ख़ाक करने के लिए,
लाज़िमी है कुछ हवा की जाय और।
उस लपट की ज़द में तो आएगा ही;
बाबा या नाती या चाहे कोई और।।
एक जब फुंसी हुई ग़ाफ़िल थे हम,
शोर करने से नहीं अब फ़ाइदा।
अब दवा ऐसी हो के पक जाय ज़ल्द;
बस यही है इक कुदरती क़ाइदा।।
वर्ना जब नासूर वो हो जाएगी,
तब नहीं हो पायेगा कोई इलाज।
बदबू फैलेगी हमेशा हर तरफ़;
कोढ़ियों के मिस्ल होगा यह समाज।।'
कुछ देर बाद गाड़ी चली। यात्री आपस में बतियाने लगे घटी घटना को लेकर। उन्हीं मे से एक बोला, बेवकूफ था। चला था हीरो बनने। बेकार में जान गवांई। चुप-चाप पड़ा रहता उसका क्या जा रहा था। हम भी तो बैठे ही थे।
bahut hi pate ki bat kahi aapne!, aaj kam se kam baba ne ye beeda to uthaya janmas ki bat kahi!
sarhtak prastuti ke liye badhai!
गगन जी प्रणाम ..बिलकुल ठीक कहा है आपने !सभी कंगूरे को देखने में परेशान है ! न्यू की ईंट कोई नहीं बनना चाहता ! कुछ संकेत है मेरे बालाजी ब्लॉग पर !आप एक बार नजर दौडाए और बहुमूल्य राय फिर दे !
चन्द्रभूषण जी,
इन फोड़े-फुंसियों पर यदि शुरु से ही ध्यान दिया जाता रहता तो आज ये शरीर रूपी राष्ट्र को विचलित ना कर पातीं। पर अभी भी हालात इतने बुरे नहीं हैं, पर हमें ही कोशिश करनी है कि शरीर को इतना स्वस्थ्य बना दें कि इन रोगों का उस पर कोई असर ही ना हो।
pratul ji se puri tarah sahamat hoon.
आदरणीय गगन शर्मा जी
सादर वंदे मातरम्!
आपने जिस ईमानदारी और मानवीयता से लिखा है … नमन करता हूं ।
हम वो हैं जो भ्रष्टाचार पर बढ-चढ कर बोलते हैं। इस पर उस पर इल्जाम लगाते हैं पर जब 100-50 रुपये मे खुद को कोई सहूलियत मिलने लगती है तो सारी नैतिकता-वैतिकता भूल उसे जायज समझ लपक लेते हैं।
हम वो हैं जो खुद कुछ नहीं करते, हिम्मत ही नहीं है, पर जब दूसरा कोई राजबल, बाहूबल, धनबल के खिलाफ खड़ा होने का साहस करता है तो उस की टांग खिंचने से बाज नहीं आते।
हम वो हैं जो दूसरे पर अत्याचार होते देख उसका साथ देने के बजाए खिड़की बंद कर घर में दुबक जाते हैं। शुक्र मनाते हैं कि हम बचे हुए हैं पर यह नहीं सोच पाते कि कब तक।
हम वो भी हैं जो अन्याय देख विचलित होते हैं, कसमसाते हैं, कुढते हैं पर कुछ कर पाने में अपने को असहाय, लाचार पा चुप हो बैठे रह जाते हैं
आपका आलेख मैं पहले दिन ही देख गया था , लेकिन सच कहूं तो मन बहुत व्यथित था मेरा भी …
पुलिस का दमनचक्र बर्बरता की पराकाष्ठा थी …
जो लोग इस शर्मनाक घटना पर दलगत बयानबाजी से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं , उनसे कहना है -
सोते लोगों पर करे जो गोली बौछार !
छू’कर तुम औलाद को कहो- “भली सरकार”!!
कॉंग्रेस जन और उस जैसे लोगों के अलावा हर आम नागरिक आज स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहा है -
अब तक तो लादेन-इलियास
करते थे छुप-छुप कर वार !
सोए हुओं पर अश्रुगैस
डंडे और गोली बौछार !
बूढ़ों-मांओं-बच्चों पर
पागल कुत्ते पांच हज़ार !
सौ धिक्कार ! सौ धिक्कार !
ऐ दिल्ली वाली सरकार !
पूरी रचना के लिए उपरोक्त लिंक पर पधारिए…
आपका हार्दिक स्वागत है
- राजेन्द्र स्वर्णकार
चंगेजी, हिटलर, माओ नहीं रहे तो........
उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है।
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