मंगलवार, 28 जून 2011

लोभ का फल तो बुरा ही होता है.

लालच या लोभ कैसा भी हो, किसी भी वस्तु के लिए हो बुरा ही होता है। इसी के अंतर्गत संचय की प्रवृत्ति भी आती है।

बहुत पहले कहीं पढी एक कहानी याद आ गयी आज के कर्णधारों की मनोवृत्ति देख कर।
एक बार भीषण अकाल पड़ने से सारे जीव-जंतु बेहाल हो गये। शहर, गांव, जंगल सभी उसकी चपेट में आ गये। खाने और पीने के पानी का घोर संकट आ पड़ा। ऐसे ही एक जंगल में दो सियार रहते थे। उनमें से एक बुजुर्ग था दूसरा जवान। अपनी उम्र की तरह ही उनकी आदतें भी थीं। बुजुर्ग अपने साथ जिंदगी भर का अनुभव लिए चलता था तो जवान सिर्फ आज में विश्वास करता था। दोनों में एक बात समान थी दोनों परले दर्जे के लालची थे। एक दिन वे भोजन-पानी की तलाश में गांव की तरफ निकल गये भोजन की तलाश में। भाग्य से उन्हें वहां एक मुर्गियों का दड़बा मिल गया।

दोनों ने अंदर घुस कर अपना पेट भरना शुरु कर दिया। कुछ देर बाद बुजुर्ग ने छोटे को कहा कि ज्यादा ना खा कर कुछ कल के लिए भी बचा कर रख लेते हैं। पर छोटा तो मानो सब आज ही हड़प कर जाना चाहता था। वह बोला कल किसने देखा है मैं तो आज ही इतना खा लूंगा कि चार दिनों का कोटा पूरा हो जाए। दोनों ने अपने मन की की।

छोटे ने इतना खा लिया कि रात में उसका पेट जवाब दे गया और उसकी मौत हो गयी। लालच का मारा दूसरा फिर दूसरे दिन दड़बे में पहुंचा तो घात लगाए बैठे दड़बे के मालिक किसान ने उसका काम तमाम कर दिया।

रविवार, 26 जून 2011

इधर बहुत मजाक उड़ चुका है मेरा, अब शायद ही आपके लिए कुछ बचा हो उडाने को !!!

बहुत हो गया !! जिसे देखो वही मुझे देख खींसे निपोर रहा है। अरे हो जाती है गलती। सभी से होती है। मुझसे भी हो गयी होगी। पर सही बताऊं इधर पांच-छह महीने में दो-दो बार "ब्लंड़र-मिस्टेक" होने से खूब मजाक उड़ रहा है। इतना उड़ चुका है कि आपके उड़ाने के लिए शायद ही कुछ बचा हो। फिर भी देख लीजिए शायद कुछ हाथ लग ही जाए।

इधर दो-तीन सालों से स्कूल में अवकाश घोषित होते ही श्रीमतीजी पुत्र प्रेम के वशीभूत हो बिना एक दिन गवांए दिल्ली रवाना हो जाती हैं। फिर वहां से आकाशवाणी की तरह थोड़े-थोड़े अंतराल पर हिदायतें प्रसारित होती रहती हैं कि, कैसे-कैसे ध्यान रखना है खाने-पीने, आने-जाने, बंद-खोलने इत्यादि-इत्यादि का। जब कहो कि इतनी चिंता है तो 'पहलाई' मत किया करो तो रटा-रटाया जवाब होता है बच्चों के ख्याल का, जो अब उतने बच्चे भी नहीं रह गये हैं पर बच्चे तो बच्चे ही होते हैं। पर ये दोनों माँ के पूत "टू मच" हैं। अभी अगली लौटती बाद में है दोबारा जाने की तारीख ये पहले ही पुख्ता कर देते हैं।

तो जनाब, पिछली दिवाली पर मुझे भी वहां पहुंचना था। अब उन्हीं दिनों कुछ तबीयत भी खराब हो गयी दुश्मनों की। अब चलने के अंतिम क्षणों तक हिदायतें प्रसारित होती रहीं। मैंने भी पूरी तरह चाक-चौबंद हो कर पूरी एहतियात बरत कर हर वस्तु को उसका यथायोग्य स्थान तथा मान प्रदान कर ही प्रस्थान किया। बस एक छोटी सी गफलत हो गयी कि आल्मारियों को ताला लगा चाबियां वहीं बिस्तर पर ही छोड़ दीं। यह कोई बड़ी बात नहीं होती यदि घर का काम करने वाली आया का मेरे जाने के बाद भी देखभाल के लिए घर आना-जाना ना होता। अब कोई कितना भी ईमानदार क्यों ना हो पर तांक-झांक का मौका तो नहीं ही चूकता। इस घटना को महीनों हो गये पर अभी भी यह बात चटखारे ले-लेकर सुनी सुनाई जाती ही थी कि फिर गर्मियों की छुट्टियां आ गयीं, फिर वैसा ही मंचन हुआ, फिर हिदायतों को सर माथे पर रख, घर बंद कर इस बार बड़े विश्वास के साथ अपन भी फिर दिल्ली चले गये। इस बार चाबियों पर ही ज्यादा ध्यान केंद्रित रखा, जैसे सप्लिमेंट्री आने के बाद एक बच्चा उसकी होने वाली परीक्षा का ध्यान रखता है। पर होनी को कौन टाल सका है। जिसके भाग्य में "यश" लिखा हो उसे मिलता जरूर है।

अभी आठ-दस दिन ही हुए थे वहां पहुंचे कि रायपुर से पड़ोसी का फोन आ गया कि तेज हवा के कारण आपकी किचन की बाल्कनी का दरवाजा खुल गया है। उन्हींने ही किसी तरह कुछ अटका कर उसे बंद रखा। मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि जब मैं "सब कुछ अच्छी तरह देख-भाल" कर चला था तो यह मुआ खुला कैसे रह गया। दरवाजा खुद तो बंद हो गया पर मसाला दे गया मुहोँ को खुलने का। बात अभी खत्म कहां हुई, कहते हैं ना कि भगवान जो करता है वह अच्छाई के लिए ही करता है।

वापस आने की निश्चित तारीख पर सब ठीक-ठाक, देख-भाल कर अपन ने रायपुर का रुख कर लिया। शहडोल-अनूपपुर के आस-पास घर की चाबी का ख्याल आया। खोज शुरु हुई। अटैची वगैरह सारे उलट-पलट कर देख डाले पर जिसे नहीं मिलना है वह कहां मिलता है। मेरे हिसाब से मैंने जाते ही चाबियां इन्हें दे दी थीं, क्योंकि मैं कभी यह सब झंझट नहीं पालता। श्रीमतीजी का कहना था कि वाद-विवाद की जड़ मेरे पास ही रही थी। एक दूसरे पर दोषारोपण करने के बाद दिल्ली फोन लगाने के बाद ये 'मूजियां' वहीं तशरीफ रखे मिलीं।

अब जो होना था वह तो हो गया पर यह कहावत बिल्कुल सच निकली कि "भगवान जो करता है वह अच्छे के लिए ही करता है।" अब देखिए वही दरवाजा जो खुला रह गया था और सिर्फ अटका कर के रखा गया था वही काम आया। थोड़ा जोखिम जरूर था पर उधर से ही अंदर जा दूसरी चाबियां ले घर को खोलना संभव हो पाया।

सब ठीक-ठाक हो गया। जिंदगी वापस अपने पुराने रवैये पर आ गयी। पर मेरी "मखौलियाई पतंग" को तो और ऊंचा आसमान ना मिल गया। अभी कुछ दिनों तक लगातार और फिर मौके-बेमौके रहेगा "तेरी ही चर्चा, तेरा ही जलवा"।

गुरुवार, 23 जून 2011

ऐसा क्यूं बच्चन साहब ?

यह ठीक है कि हर आदमी के अपने विचार, अपनी सोच होती है जिसे जाहिर करने की उसे पूरी आजादी भी होती है। पर कुछ हस्तियों पर दुनिया की सदा नज़र बनी रहती है, इसीलिए उन्हें हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ता है। पर बच्चन साहब से इन दिनों यह क्या हो रहा है ?
"नो आयडिया" !!!

जैसे-जैसे इंसान की उम्र बढती है उसमें एक तरह की परिपक्वता आने लगती है। उसके सोच, विचार, आहार-व्यवहार सब मे एक बदलाव आता चला जाता है। लोगों की भी उससे अपेक्षाएं बढ जाती हैं। वे भी अपेक्षा रखने लगते हैं कि उसके जीवन भर के अनुभव उनका मार्गदर्शन करें। सदियों से ऐसा होता भी चला आ रहा है। ये अपेक्षाएं तब और भी बढ जाती हैं जब सामने वाला अपने जीवनकाल में ही किंवदंती बन गया हो और उसकी ख्याति देश में ही नहीं विदेशों में भी अपनी सुरभी बिखेर रही हो। ऐसा भी नहीं है कि बढती उम्र की सच्चाई को सब हजम कर पा लेते हों, ऐसे भी बहुत से उदाहरण हमारे चारों ओर बिखरे पडे हैं जो अपनी हरकतों से उपहास या आलोचना का विषय बन जाते रहे हैं।


यह सारी भूमिका इसलिए है क्योंकि अपनी सैंकड़ों करोड़ की आबादी में मतैक्य तो हो ही नहीं सकता यानि "मुंड़े-मुंड़े मतरिभिन्ना"। यह जाहिर है कि मेरे विचारों से बहुतेरे लोग इत्तेफाक नहीं रख कुछ अलग तरह की सोच रखते होंगे। मेरी किसी की भी भावना को ठेस पहुंचाने या किसी की छवि को धुमिल करने का नाही प्रयास है नाही इच्छा। फिर भी पिछले दिनों से एक विचार मन में घुमड़ रहा था जिसने एक दो दिन पहले की खबरों से और गहन रूप ले लिया।


मैं बात कर रहा हूं इस सदी के महानायक, अपने समय में लाखों लोगों के ह्रदय पर राज करने वाले अमिताभ बच्चन की। मुझे भी उन्होंने आकर्षित कर रखा था अपनी कुछ फिल्मों में के उम्दा अभिनय से ज्यादा, हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर अपनी मजबूत पकड़ और पहाड़ जैसी विपत्तियों के बावजूद मैदान में डटे रहने के कारण। जबकि उनके संगी-साथियों-रिश्तेदारों ने उन्हें अपने आप को दिवालिया घोषित करने की सलाह दे दी थी।


पर पिछले कुछ दिनों ऐसी बातें हुई हैं जो उनकी छवि को कुछ तो धुमिल करती ही है। पहली है उनके अपने घर की तरफ से पेश की जाने वाली फिल्म, जिसका शीर्षक रखा गया है #बुढ्ढा_होगा_तेरा_बाप। फिल्मी जगत में एक से एक फुहड़ लोग और उनके द्वारा निर्मित कुड़े की भरमार है। ऐसे-वैसे निर्माता निम्नस्तरीय, बेसिर-पैर की फिल्में बनाते रहे हैं और रहेंगे। पर जब एक सुसंस्कृत इंसान, जिसका नाम ही सभ्यता का प्रतीक माना जाता हो, जिसका अभिनय लोगों को पाठ्यक्रम की तरह राह दिखाता हो, जिसकी चाल-ढाल, बोल-चाल, रहन-सहन सब कुछ गरिमा का "ओरा" ओढे रहता हो, उसकी क्या मजबूरी थी इस तरह की फिल्म खुद बनाने की। यह मान भी लिया जाए कि चलो अपने चाहने वालों के मनोरंजन के लिए कोई कुछ भी कर सकता है, तो भी इस तरह के सडक छाप शीर्षक से तो बचना ही चाहिए था। जो किसी भी तरह उनके कद को बढाने में किसी भी तरह सहायक नहीं हो सकता।
दूसरे, एक-दो दिन पहले उनके ट्वीट ने अचंभित कर दिया जब उन्होंने अपने दादा बनने का ऐलान अपने ब्लाग पर किया। ऐसा लगा कि कोई ऐसी अनहोनी पहली बार होने जा रही है जिसकी किसी को उम्मीद ही नहीं थी। किसी भी परिवार में किसी नये सदस्य का आना प्रभू की नेमत होता है। घर-परिवार फूला नहीं समाता। बच्चन परिवार कोई अपवाद नहीं है। यह भी सही है कि वे अपने परिवार को लेकर बहुत 'पोसेसिव' हैं, पर जिस तरह की प्रतिक्रिया बच्चन साहब की थी वह कुछ बचकानी और अतीरेक लिए हुए थी। ये अलग बात है कि इस पर भी उन्हें एक हजार तीन सौ पैंतीस टिप्पणीयां मिलेंगी। वह तो वैसे भी तैयार रहती हैं जब वह लिख देते हैं कि सुबह उठते ही मुझे आज छींक आ गयी। यह सब कुछ ज्यादा ही सालता है जब वर्षों से आपके मन में उनकी एक अलग तरह की तस्वीर घर बनाए बैठी हो। इस उम्र में ऐसा क्यूं हो रहा है ?


अब आप यह मत कहिएगा "नो आइडिया"

सोमवार, 20 जून 2011

हमारे रिश्ते अंकल-आंटी पर ही खत्म नहीं हो जाते

बाज़ार की ताकतों को अपना और अपनी कंपनी  का पेट भरने के लिए सदा बिरयानी की जरूरत होती है। जिसके लिए वे दुनिया भर में मुर्गों की तलाश करती रहतीं हैं।

वर्षों पहले एक क्रीम ने भारतीय युवतियों को गोरा बनाने का बीड़ा उठाया था। आज भी वह काम बदस्तूर जारी है। पर व्यवसाय में उतार-चढाव तो आते ही हैं। कुछ दिनों पहले जब बिक्री का ग्राफ तेजी से नीचे आने लगा  तो निर्माताओं को पुरुषों का भी ध्यान आया क्योंकि पुरुष भी तो "रब्ब की मातमपुर्सी" करने थोड़े ही पैदा हुए हैं तो एक 'बड़े मुंह वाले' के मुंह से युवकों को धिक्कारा गया   "छी: औरतों वाली क्रीम लगाता है!!!    अरे मर्द बन, यह लगा। पर शायद 'फार्मुला' उतना कारगर नहीं रहा। सो फिर लड़कियों को निशाना बनाया गया क्योंकि शायद वे उन्हें कुछ ज्यादा बेवकूफ टाईप की लगी होंगी। युवतियों को समझाया गया कि क्रीम रोज लगानी है नहीं तो निखार नहीं आता। पर जब बिक्री उससे भी बढती नहीं दिखी तो अब विज्ञापन में क्रीम को दिन में दो बार लगाने पर जोर दिया जाने लगा है। यह तो था नारी की सुंदर दिखने की आदिम चाहत को अपनी तिजोरी भरने का माध्यम बनाने वाली कुटिल चाल का एक उदाहरण।

बाजार को तो अपने से मतलब है। उसे तो अपने और अपने परिवार वालों के पेट में बिरयानी ड़ालनी ही है जिसके लिए वह दुनिया भर में मुर्गे ढूंढता रहता है। इसी कवायद में उसे भारतियों की भावनात्मक कमजोरी का भी एहसास हो गया। बस अपने उत्पादों को "गिफ्ट" का नाम दे उसने साल के दिनों को तरह-तरह की संज्ञाओं के नाम के "रैपरों" में लपेट-लपेट कर हमारे सामने पेश कर दिया। पहले फरवरी में लाया गया "प्रेम दिवस"। इस दिवस ने कंपनियों के दिन बहुरा ड़ाले। बस सिलसिला चल निकला। आने लगे, माता, पिता, भाई, बहन के लिए निर्धारित दिन। हम भी पूर्व और पश्चिम की संस्कृति के भेद को जाने बगैर जुट गये बाजार का पेट भरने। हम भूल गये कि हमारे यहां पश्चिमी सभ्यता के कुछ शहरों या घरों में हावी हो जाने के बावजूद अभी भी संयुक्त परिवारों का चलन है। जिसकी धूरी हमारे माँ-बाप हैं। उनका वरद-हस्त अभी भी रोज हमारे घर से काम पर निकलते समय हमारी रक्षा हेतु हमारा मस्तक स्पर्श करता है। जब तक लौट कर ना आ जाएं उनकी आंखें दरवाजे से हटती नहीं हैं। सारा परिवार छोटे-छोटे मनमुटावों के बावजूद एक-दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखता है। इसके विपरीत योरोप में अधिकांश परिवार एकल होते हैं। ऊपर से तलाक और बहूविवाह रिश्तों को जटिल बना देते हैं। फिर जीवन की आपाधापी में संवेदनाएं भी लुप्त होती चली गयी हैं। ऐसे माहौल में किसी एक रिश्ते को साल का एक दिन समर्पित कर उनका उसे जीवंत बनाए रखने की कोशिश करना समझ में आता है।

पर बाज़ार को किसी नाते-रिश्ते-अपनेपन से कोई मतलब नहीं होता उसे एक ही चीज दिखती है और वह है पैसा। जिसे पाने, अपने पास बनाए रखने के लिए रोज तरह-तरह के तरीके ईजाद किए जाते हैं। उसी ऊपर कही गयी गोरे-पन को बढाने वाली क्रीम की तरह। फिर हमारे देश का बाज़ार तो असीम संभावनाओं से भरा पड़ा है। यहां रिश्ते अंकल-आंटी पर ही खत्म नहीं हो जाते। यहां तो मामा-मामी, चाचा-चाची, मौसा-मौसी, बुआ-फूफा, बहन-जीजा, भाई-भाभी। फिर चचेरे, ममेरे, मौसेरे रिश्तों की ना खत्म होने वाली श्रृंखला है। उसके बाद भी हमारा प्रेम खत्म कहां हो जाता है वह तो सदा प्रवाहमान रहता है जिसमें गोते लगाते रहते हैं, दोस्त और उनके परिवार, पड़ोसी, नौकर-चाकर। फिर हम अपने पालतुओं को थोड़े ही ना भूल जाएंगे। यानि हम अनंत हमारा बाज़ार अनंता।

यह तो वह सब है जो दिखता है। बाज़ार को तो हमसे ज्यादा समझ है। पता नहीं वह कैसे-कैसे, ऐसे-वैसे दिन दिखलाएगा जिनके लिए साल के दिन भी शायद कम पड़ जाएं। फिर भी कोई बात नहीं, घंटे, मिनट तो बाकी रहेंगे ही ना हमारे "चौघड़िये" की तरह। आप तो बस तैयार रहें दिन का नाम तय होने और अपनी जेब ढीली करने के लिए।

शनिवार, 18 जून 2011

'माया' महा ठगिनी।

माया, सामने वाला इकट्ठा करते-करते ऊपर वाले को प्यारा हो जाता है और वह नीचे किसी और को प्यारी हो जाती है !!!

परिवर्तन समय की मांग है। सब समय के साथ बदलता रहता है। चाहे अच्छा हो या बुरा स्थायी कहां रह पाता है कुछ भी। राम-राज था कभी तो कंस का भी समय रहा है। मुगलों के नगाड़े शांत हुए तो अंग्रेजों की तूती बोलने लगी। नेहरू-गांधी आए, जाना उनको भी पड़ा। जाना एक शाश्वत सत्य है। बच्चा दुनिया में आता है तो यह कोई नहीं कह सकता कि वह नेता बनेगा, डाक्टर, इंजीनियर या गिरहकट पर यह सबको मालुम होता है कि वह एक दिन जाएगा जरूर। पर फिर भी अपना अगाड़ी-पिछाड़ी सुधारने की कोशिश सदा होती रही है। नश्वरता को जानते हुए भी कभी संचय की प्रवृत्ति खत्म नहीं हो पाई। फिर चाहे वह नेता बन अपने को जनता का सेवक कहे, चाहे संत बन अपने को अवतार घोषित करे, चाहे गुरु बन मार्ग-दर्शन का स्वांग करे। कहते हैं हिमालय की दुर्गम चोटियों की कंदराओं में आज भी संत-महात्मा तपस्या लीन हैं, जग की भलाई के लिए। शायद तभी दुनिया टिकी भी हुई है। पर उन दसियों बाबाओं का क्या जो रोज ढेरों मेक-अप पोत तरह-तरह की भाव-भगिंमाओं में अवतरित हो लोगों की भावनाओं से खेलते हैं। अपने भक्तों के वर्तमान-भविष्य को सुधारने का दावा करने वाले ये सब के सब एकाधिक 'फार्म हाऊसों' मनों सोने-चांदी, करोडों की नगदी के स्वामी होते हैं। क्या इन "सर्वकाल दर्शियों" को अपना हश्र पता होता है।

पहले के जमाने में राजा-महाराजा भेष बदल कर अपनी रियाया के सुख-दुख का पता लगाने निकला करते थे। मंशा यही होती थी कि यदि प्रजा सुखी संतुष्ट रहेगी तो उनका राज भी उतना ही स्थायी होगा। समय बदला सोच बदली। आज भी लोग भेष बदल कर निकलते हैं, भेष चाहे जिसका भी धरा हो मंशा एक ही रहती है, सिर्फ अपने लिए "माया" का इंतजाम करना। पर माया महा-ठगिनी, कब किसी की हुई है। सामने वाला इकट्ठा करते-करते ऊपर वाले को प्यारा हो जाता है और वह नीचे किसी और को प्यारी हो जाती है।

अभी आज ही कुछ दिनों पहले-गोलोक वासी हुए एक संत जी की कुटिया ने मनों आभुषण और नगदी उगली है। यह उस अकूत धन के अलावा है जिसे दुनिया जानती है।


वैसे ही अंदर-बाहर,  देश-विदेश में ऐसे-वैसे-कैसे  धन के ढेर मिट्टी की तरह पड़े हैं।   जिनका कोई हिसाब नहीं है। हिसाब मांगने वालों का  हिसाब-किताब   बराबर कर दिया जाता है।   यह भी सत्य है कि जमाखोरों को कब ढाई गज का कपड़ा लपेट चल देना पड़ेगा वे भी नहीं जानते। पर यह इस देश की बदनसीबी है कि इसकी बागडोर ऐसे हाथों में है जिनके राज में अनाज सड जाता है पर गरीब के पेट में नहीं पहुंचने दिया जाता। धन इतना है कि कोई गिनने लगे तो उम्र बीत जाए पर  निर्धन को जीवन यापन  करने से बेहतर मौत को  गले  लगाना आसान लगता है।
बस यही बात आशा-भरोसा दिलाए रहती है कि हर चीज का अंत होता है।  हर काली रात की उजली सुबह होती है। कभी तो ऐसा प्रभात होगा, कभी तो ऐसा सबेरा आएगा !!! 

गुरुवार, 16 जून 2011

यह बता तू कितने दिन रह सकता है बिना खाए ?

पिछले दिनों बाबा और संतों का अभियान चाहे सफल ना हो पाया हो पर उससे सियासती दलों की पोल जरूर खुल कर जनता के सामने आ गयी है। भले ही यह सब पहले की तरह भुला ही दिया जाने वाला हो।


देश के उत्तरी भाग में कुछ दिनों से तरह-तरह की घटनाएं मंचित होती रही हैं। उनको लेकर जनता-जनार्दन में जोश भी अपने चरम पर रहा। अन्नाजी ने अपनी भूमिका से आंधी का आह्वान किया ही था कि बाबा रामदेव ने तूफान का माहौल रच ड़ाला। यह इतना सजीव था कि आड़े-टेढे, छोटे-बड़े पांवों पर किसी तरह टिकी, घुन खाई सियासी कुर्सी और उस पर आसीन सभी को अपने अस्तित्व की चिंता ने घेर लिया। तभी अपने आकाओं की नज़रों में काजल बनने मौका देख बहुत सारी बैसाखियां दौड़ पड़ीं कुर्सी को घेर इस आपदा से बचाने के लिए।
अब कुर्सी रूपी एक अनार, उस पर लदने की फिराक में सैकड़ों बिमार। समय और दस्तूर देख भा.ज.पा. ने भी अपना दांव खेल दिया। पर राजनीति का ऊंट कब किधर बैठ जाएगा क्या पता चलता है। वैसे भी कर्ता के मन कुछ होता है और दाता कुछ और ही सोचे बैठा होता है। तो रामदेव बाबा को मोहरा बना खेला गया भाजपाई दांव तब उल्टा पड़ गया जब हिमाचल के उसी अस्पताल में 115 दिनों से अनशन कर रहे संत निगमानंद जी की मृत्यु हो गयी। अब इसका जवाब वहां की सरकार के पास नहीं है कि भ्रष्टाचार के विरोध में खड़े होने का दिखावा करने वाली सरकार ने निगमानंद की इतने लंबे समय से चली आ रही मांगों की ओर क्यों ध्यान नहीं दिया।
अब ध्यान तो तब दिया जाता है जब कि समस्याओं को सुलझाने की नीयत हो। इधर तो सारा खेल एक-दूसरे की टांग को लेकर था कि हाथ में आए, खींचें और लपक लें आसन।
दलों की गिद्ध-दृष्टि रहती है, देश के कोने-कोने में होने वाले धरनों, विरोधों, हड़तालों, अनशनों इत्यादि पर कि इन सब को भेड़ रूपी जनता का कितना समर्थन मिल रहा है, उस आंदोलन का विरोधी दल पर क्या असर पड़ने जा रहा है और उसका क्या फायदा उठाया जा सकता है। बस हवा को पक्ष में देखते ही बेशर्मों की तरह वहां अपनी उपस्थिति जताने जा पहुंचते हैं। चाहे वहां बेइज्जत होने का खतरा ही क्यूं ना मंड़रा रहा हो।


ऐसा ही कुछ पिछले दिनों भी देखने में आया जब कांग्रेस देश में उठे इस भीषण ज्वार में बूरी तरह डूबते-उतराते अवसाद की सीमा में पहुंच गयी थी। मशीनरी का हर पुर्जा अलग-थलग पड़ा कुछ का कुछ "कहे-करे" जा रहा था। कंट्रोल मजबूर था। पर शायद कुछ अच्छे कर्मों का फल बाकी था, तभी उसी ज्वार की एक तीव्र लहर ने उसे किनारे पर ला पटका।


उधर भा.ज.पा. उसी ज्वार की एक ऊंची लहर पर सवार थी और किनारे लगना चाहती थी कि पतवार पकड़े नाविक की गलती से नाव बीच में ही उलट गयी।


इधर जनता जो भ्रष्टाचार रूपी तमाशे से खुश हो खुशहाली के सपने देखने लगी थी, उसका ध्यान बटाने के लिए एक अबूझ पहेली उसके सामने रख दी गयी कि बताओ जब निगमानंद 115 दिन तक अनशन कर सकते हैं। एक आम नेता भी भूख-हड़ताल पर 20-25 दिन निकाल देता है तो योग को लेकर बड़े-बड़े दावे करने वाले योग-गुरु का आसन नौ दिन में ही क्यों डोल गया?


सौ पचास को लगा कि, हां भाई, बात तो ठीक है !! अब जनता तो जनता ही होती है। जहां कुछ को लगा तो बाकी भी भेड़ की तरह लग गये लाइन में, बिना सवाल करने वाले से पूछे कि पहले यह बता कि तू कितने दिन रह सकता है बिना खाए ?


पर पूछे कौन? यदि पहली चोरी पर ही माँ का थप्पड़ पड़ गया होता तो बेटा बड़ा हो कर चोर ना बनाता

बुधवार, 15 जून 2011

मैं हिमांचल की राजकुमारी "मनाली" बोल रही हूं।


प्रकृति ने अपना खजाना मुक्त हस्त से मुझ पर लुटाया है, बर्फीले पर्वत शिखर उनकी ढ़लानों पर सेवों के बागीचे, सीढ़ी नुमा खेत, खिलौने की तरह के घर और यहां के सीधे-साधे वाशिंदे आपको मोह ना लें तो कहिएगा। 

मेरे परिवार हिमाचल में आपका स्वागत है। मेरे परिवार के सारे सदस्य बहुत सुंदर, शांत और आथित्य प्रेमी हैं। मेरे सबसे बड़े भाई शिमले को हिमाचल की राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। हम भाई बहन एक से बढ़ कर एक खूबियों के मालिक हैं। मैं और मेरा भाई कुल्लू दोनों जुड़वां हैं। एक राज की बात बताती हूं। कुल्लू थोड़े पूराने विचारों का है। इसीलिए उसकी सारी पूरानी बस्तियां, मंदिर, मोहल्ले वैसे के वैसे ही हैं। पर मेरे बार-बार टोकते रहने पर अब धीरे-धीरे बदलना शुरु कर रहा है। जिसके फलस्वरूप उसे एक फ्लाई-ओवर का पुरस्कार मिला है इससे पीक सीजन में, अखाड़ा बाजार पर लगने वाले घंटों के जाम से यात्रियों को राहत भी मिल गयी है। उसकी बनिस्पत मैं आधुनिक विचारों की हूं। इसी कारण पर्यटक अब मेरे पास आना ज्यादा पसंद करते हैं।

पर इस आधुनिकता का खामियाजा भी मुझे भुगतना पड़ा था, सालों पहले, जब हिप्पी समुदाय के लोगों ने मेरे यहां जमावड़ा डाल, चरस गांजे का अड़्ड़ा बना कर दुनिया भर में मुझे बदनाम कर दिया था। बड़ी मुश्किलों के बाद धीरे-धीरे फिर मैंने अपना गौरव प्राप्त कर लिया है।

कुल्लू से मेरी दूरी 40 किमी की है। व्यास, जिसे नद होने का गौरव प्राप्त है, के दोनों किनारों पर बने सुंदर सड़क मार्ग यात्रियों को मुझ तक पहुंचाते हैं। व्यास के दोनों ओर सैकड़ों गांव बसे हुए हैं पर ठीक बीस किमी पर एक कस्बा पतली कुहल है,

जो आस-पास के गांवों की जरूरतों को पूरा करता है। इसी के पास नग्गर नामक स्थान पर विश्व प्रसिद्ध रशियन चित्रकार ‘निकोलस रोरिक’ की आर्ट गैलरी है। रोरिक हिंदी फिल्म जगत की पहली सुपर-स्टार तथा पहले दादा साहब फाल्के पुरस्कार की विजेता देविका रानी के पति थे। पतली कुहल में सरकारी मछली पालन केन्द्र भी है। पर जैसे-जैसे लोगों की आवाजाही बढ़ रही है वैसे-वैसे मेरा प्राकृतिक सौंदर्य भी खतरे में पड़ता जा रहा है। मेरे माल रोड से पांच-सात किमी पहले से ही होटलों की कतारें शुरु हो जाती हैं। जिनकी सारी गंदगी व्यास को भी दुषित बना


रही है। यह एक अलग विषय है। अभी आप अपना मूड और छुट्टियां खराब ना कर मेरी अच्छाईयों की तरफ ही ध्यान दें। जहां माल रोड खत्म होता है वहीं से एक सीधी चढ़ाई आप को हिडम्बा माता के मंदिर तक ले जाती है, घबड़ाने की बात नहीं है वहां तक आप अपनी गाड़ी से आराम से पहुंच सकते हैं। इस जगह पहले घना जंगल था पर उसे अब व्यवस्थित कर पुरातत्व विभाग को सौंप दिया गया है। इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी। नीचे मुख्य मार्ग, व्यास को पार कर दूसरे किनारे से आने वाले रास्ते से

मिल लाहौल-स्पिति, जो एशिया का सबसे बड़ा बर्फिला रेगिस्तान है, की ओर बढ़ जाता है। इसी पर मेरे माल रोड से एक-ड़ेढ़ किमी की दूरी से एक सड़क उपर उठती चली जाती है महर्षि वशिष्ठ के आश्रम की ओर। यहां उनका प्राचीन मंदिर है। अब कुछ सालों पहले एक राम मंदिर का भी निर्माण हो गया है। यहां एक गर्म पानी का सोता भी है, जिसमें नहाने वालों के चर्म रोगों को मैंने ठीक होते देखा है। जो इस पानी में प्रचूर मात्रा में सल्फर की उपस्थिति से संभव है। पर यहां भी बढ़ती आबादी का दवाब साफ दिखाई पड़ने लगा है। यह सुंदर रमणीक स्थान अब दुकानों घरों से पट गया है। फिर भी प्रकृति ने अपना खजाना मुक्त हस्त से मुझ पर लुटाया है। अभी भी और जगहों की बनिस्पत आप मुझे निसर्ग के ज्यादा पास पाएंगें। बर्फीले पर्वत शिखर उनकी ढ़लानों पर सेवों के बागीचे, सीढ़ी नुमा खेत, खिलौने की तरह के घर और यहां के सीधे-साधे वाशिंदे आपको मोह ना लें तो कहिएगा। अभी भी यहां के हवा-पानी तथा लोगों के दिलों पर बाहरी सभ्यता की बुराईयां पूरी तरह से हावी नहीं हो पायी

हैं। हम अपने नाम "देव भूमी" को अभी भी सार्थक करते हैं। मेरे छोटे भाई-बहन, मंडी, धर्मशाला, मैक्लाडगंज, सुंदर नगर आदि प्रकृति ने अपने हाथों से गढे हैं। जिनका निश्छल सौंदर्य किसी का भी पहली नज़र में मन मोह लेता है। उन पर अभी बढती आवा-जावी का भी असर नहीं पड़ा है। जिसे आप खुद महसूस कर पाएंगे।


अपने बारे में तो कोई भी कहने से नहीं थकता। हो सकता है कि पढ़ने से आप बोर भी हो जायें। पर यह मेरा दावा है कि एक बार यदि आप मेरे पास आयेंगें तो फिर मुझे भूल नहीं पायेंगें। अब तो मुझ तक पहुंचने के लिए हर तरह की सुविधा भी उपलब्ध है।

तो कब आ रहे हैं ? मैं इंतजार में हूं.

सोमवार, 13 जून 2011

हमारे मामले में तो भगवान भी लाचार हैं।

खबर विश्वसनीय सूत्रों से ही मिली थी, पर विश्वास नही हो पाया था कि ऐसा भी हो सकता है। खबर आपके सामने है और फ़ैसला आपके हाथ में। हर बारहवें साल सावन के महीने मे मेघा नक्षत्र के उदय होने के पूर्व एक मुहूर्त बनता है जिसमे प्रभू का दरबार धरती वासियों के लिए कुछ देर के लिये खोला जाता है। इसका पता अभी-अभी 2G की बखिया उधेड़ते समय अचानक ही साईंस दानों को लगा था। आनन-फानन में देशों में विचार-विमर्श हुआ, और तय पाया गया कि इस मौके का पूरा लाभ उठाना चाहिए। कमेटी बनी जिसने लाटरी सिस्टम लागू कर दिया। पहली बारी में भारत, अमेरीका तथा जापान के तीन नुमांईदों को उपर जाने का वीसा मिला। तीनों को एक जैसा ही सवाल पूछने की इजाजत थी। पहले अमेरीकन ने पूछा कि मेरे देश से भ्रष्टाचार कब खत्म होगा, प्रभू ने जवाब दिया कि सौ साल लगेंगे। अमेरीकन की आंखों मे आंसू आ गये। फिर यही सवाल जापानी ने भी किया उसको उत्तर मिला कि अभी पचास साल लगेंगे। जापानी भी उदास हो गया कि उसके देश को आदर्श बनने मे अभी समय लगेगा। अंत मे भारतवासी ने जब वही सवाल पूछा तो पहले तो प्रभू चुप रहे फिर उदास स्वर में धीरे-धीरे बोले कि, इस भूमि से पता नहीं मुझे इतना लगाव क्यूं है? जितना मैं इसका ध्यान रखता हूं उतनी ही मुझे निराशा होने लगी है। अब तो वहां के लोग भी कहने लगे हैं कि यह देश "भगवान के भरोसे ही चल रहा है।" इतना कह वे फ़ूट-फ़ूट कर रो पड़े।

अब आज के जमाने मे कौन ऐसी बात पर विश्वास करता है। पर यह खबर सोलह आने? मेरा मतलब है सौ पैसे सच है। विश्वास ना हो तो अंतर-जाल पर रशिया की अखबारों की खबर पढ लें।

शनिवार, 11 जून 2011

नींद दो ही तरह की होती है, अल्प निद्रा और चिर निद्रा।

नींद शरीर के लिए उतनी ही जरूरी है जितना कि खानापीना या और कुछ। यह यदि पूरी ना हो तो इस शरीर रूपी मशीन को "ऐंड़-बैंड़' होते ज्यादा देर नहीं लगती। दो-तीन दिन के रतजगे के बाद ही सरदर्द, बेचैनी, घबराहट, भ्रम जैसी परेशानियां सामने आने लगती हैं। पूछ कर देखिए उन से जो अनिद्रा से ग्रसित हैं तथा जिन्हें रोज नींद की गोलियों से ललचा-ललचा कर उसे बुलाना पड़ता है। जोसोवत है वो खोवत है, जो जागत है वो पावत है" या "तूने रात बिताई सोय कर दिवस बितायो खाय, कबीरा जन्म अमोल है कौड़ी बदले जाय", जैसी नसीहतों और उपदेशों में नींद की (भले ही उपमा देकर समय की कीमत समझाई गयी हो) चाहे जितनी भी भर्त्सना की गयी हो पर सत्य यही है कि नींद शरीर की अहम आवश्यकता है। भले ही इसमें इंसान के जीवन का एक-तिहाई भाग बेहोशी में ही निकल जाता हो।


इसी खुदा की नेमत को हमारे पास पहुंचाने के एवज में सैंकड़ों कंपनियां लाखों-करोंड़ों का वारा-न्यारा करने में लगी हुई हैं। पर जिन्हें इसका वरदान प्राप्त है उन्हें किसी ताम-झाम की जरूरत नहीं पड़ती। न उन्हें गद्दा चाहिए ना तकिया, न उन्हें रोशनी या अंधकार से मतलब होता है ना जगह से ना जमीन से ना बिस्तर से मना चादर से वे तो जहां चाहे लुढक कर अपनी जरूरत पूरी कर लेते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि "भूख ना देखे बासी भात और नींद ना देखे टूटी खाट", मजाक नहीं सच कह रहा हूं आप भी देख लीजिए :

वैज्ञानिकों ने नींद के बहुत से प्रकार बताए हैं पर असल में यह दो ही तरह की होती है।
पहली अल्प निद्रा, जो हमें रोज आती है और उसी दौरान शरीर कुछ घंटों में रोजमर्रा की टूट-फूट, कमी-बेसी की भरपाई कर दूसरे दिन के लिए तरोताजा हो जाता है।
दूसरी होती है चिर-निद्रा, इसमें शरीर के अंदर की कमियों को ही नहीं पूरे खाके, ढांचे को ही बदल कर एक नये शरीर की नींव रखी जाती है इस कायनात के अस्तित्व को बनाए व चलायमान रखने में योगदान देते रहने के लिए।
पहली आए या ना आए पर दूसरी से जीव कभी वंचित नहीं होता।

यदि आपको सुख की, चैन की, गहरी प्राकृतिक नींद आती है तो उसके लिए भगवान का शुक्रिया अदा जरूर करें। क्योंकि सर्व-सुलभ चीज की कीमत हम समझ नहीं पाते।

शुक्रवार, 10 जून 2011

जहां चाह है वहां राह है


मनुष्य प्रकृति का वह अजूबा है जिसे कोई भी रुकावट रोक नहीं सकती। उसके धड़ के ऊपर स्थित कारखाने में छोटी से छोटी अड़चनों से लेकर बड़ी से बड़ी मुश्किलों के हल निरंतर निकलते रहते हैं।
विश्वास ना हो तो देख लें -




















सोमवार, 6 जून 2011

आज मन बहुत व्यथित है, अपने आप को जान कर !!!

आज मन बहुत व्यथित है। बाबा रामदेव के हश्र को देख कर नहीं अपनी औकात को देख कर। दो दिन से टीवी, अखबार, रिसाले, ब्लाग किसी पर भी नजर दौड़ा लीजिए, अपनी सच्चाई मुंह बाए खड़ी नजर आ रही है। शीशे में अपना अक्स साफ दिखाई दे रहा है। इन सब ने हमारी सारी असलियत खोल कर रख दी है। जता दिया है कि हम वो हैं, जिन्हें दिखावे की, वह भी झूठी, चिंता रहती है, देश-जहान की। पर कुछ कर गुजरने का मौका आने पर हम बगलें झांकने लगते हैं।

हम वो हैं जो दूसरे को मान-सम्मान मिलता देख जल-भुन-कुढ कर उसकी बुराईयां खोजने लगते हैं।

हम वो हैं जो पीठ पीछे तो नेता-अभिनेता,मंत्री-संत्री को गलियाते रहते हैं पर जब वह सामने आ जाता है तो साष्टांग पसरने में भी गुरेज नहीं करते।

हम वो हैं जो सत्ताधारियों की नीतियों, फैसलों, हठधर्मिता से परेशान हैं त्रस्त हैं। अपने को अक्लमंद समझ सबकी छीछालेदर करते हैं पर जब मौका आता है तो फिर वही ढाक के तीन पात। उन्हीं की जी-हजूरी में पहुंच जातै हैं।

हम वो हैं जो भ्रष्टाचार पर बढ-चढ कर बोलते हैं। इस पर उस पर इल्जाम लगाते हैं पर जब 100-50 रुपये मे खुद को कोई सहूलियत मिलने लगती है तो सारी नैतिकता-वैतिकता भूल उसे जायज समझ लपक लेते हैं।

हम वो हैं जो खुद कुछ नहीं करते, हिम्मत ही नहीं है, पर जब दूसरा कोई राजबल, बाहूबल, धनबल के खिलाफ खड़ा होने का साहस करता है तो उस की टांग खिंचने से बाज नहीं आते।

हम वो हैं जो दूसरे पर अत्याचार होते देख उसका साथ देने के बजाए खिड़की बंद कर घर में दुबक जाते हैं। शुक्र मनाते हैं कि हम बचे हुए हैं पर यह नहीं सोच पाते कि कब तक।

हम वो भी हैं जो अन्याय देख विचलित होते हैं, कसमसाते हैं, कुढते हैं पर कुछ कर पाने में अपने को असहाय, लाचार पा चुप हो बैठे रह जाते हैं

यह इस देश का दुर्भाग्य रहा है, सदा से कि बार-बार, हर बार आताताईयों के अत्याचार के विरुद्ध, चाहे वह देसी रहा हो या विदेशी, कुछ मुट्ठी भर जांबाजों ने ही सर उठा उन्हें ललकारा, उनका विरोध किया और शहादत को गले लगाया। बाकि करोंड़ों लोग अपनी जान बचाते हुए तमाशाई बने रहे।

कल की काली रात को क्या हुआ, एक आदमी ने आवाज उठाई तो सैंकड़ों उंगलियां उसी की ओर विरोध दर्शाते उठ गयीं या उठवा दी गयीं और उसे ही कठघरे में खड़ा करवा दिया गया। सारे माजरे को देख बहुत पहले कहीं पढी एक लघु कथा याद आ रही है -

एक ट्रेन के डिब्बे में कुछ बदमाश घुस कर लूट-खसोट करने लगे। गिनती के उन छह-सात लोगों का सामना करने की डिब्बे के लोगों मे से किसी ने भी हिम्मत नहीं दिखाई। तभी टायलेट से एक सैनिक निकला। वहां की हालत देख उसने बदमाशों को ललकारा और उनसे भिड़ गया। पर अकेला कब तक लड़ता कुछ देर में गुंडों ने उसे उठा कर गाड़ी के बाहर फेंक दिया और चेन खींच कर फरार हो गये। गाड़ी रुकी पीछे जा कर देखा गया तो उस साहसी जवान की लाश ही मिली।

कुछ देर बाद गाड़ी चली। यात्री आपस में बतियाने लगे घटी घटना को लेकर। उन्हीं मे से एक बोला, बेवकूफ था। चला था हीरो बनने। बेकार में जान गवांई। चुप-चाप पड़ा रहता उसका क्या जा रहा था। हम भी तो बैठे ही थे।

शनिवार, 4 जून 2011

जब समय आने पर वह अपना मुंह उठा चल देती है तो हमें क्या कि उस पर क्या गुजरेगी !

रक्त, हड्डी, मांस-मज्जा, नस-नाड़ियों, विभिन्न अंगों, हवा, पानी इत्यादि के अलावा भी मेरे अंदर कुछ है। यह सदा से ही मुझे लगता रहा है। जो मेरे साथ हंसता है, गाता है, खुश होता है, दुखी होता है यानि मेरा सहभागी है। मुझे यह भी लगता है कि यह जो भी है हर जीव में होता होगा, ” कुछेक” को छोड़ कर। अब यह होता है या होती है इसका पता नहीं चल पाया है सो लिंग निर्धारण भी नहीं हो सका है। आगे इसे “ती” मान कर चर्चा जारी रखते हैं।
अब जाहिर है कि अपने अंदर कुछ हो तो उसके बारे में जानने की उत्सुकता तो होगी ही। इसी के कारणवश कुछ खुद के प्रयत्नों और इधर-उधर पूछने, पता करने पर अलग-अलग ग्रंथों, विभिन्न श्रेणियों के लोगों, महानुभावों ने अपने-अपने “सटीक” ज्ञान से मेरे सूखे बगिया रूपी ज्ञान को हरा-भरा करने की कोशिश की। जो लब्बो-लुआब सामने आया वह कुछ इस तरह का है।

संत, महात्मा, योगी, ऋषि-मुनि, ज्ञानी लोग इसे ”आत्मा” की संज्ञा देते हैं। डाक्टर, चिकित्सक, शायर आदि इसे “दिल” कहते हैं और आम जन इसे “मन” के नाम से जानते हैं। ये सारे के सारे लोग अपनी-अपनी दी गयी संज्ञाओं को महिमा मंडित करने में जुटे रहते हैं।

इनमें डाक्टरों इत्यादि को छोड़ ही दें क्योंकि उनके लिए यह शरीर का एक आवश्यक अवयव मात्र है, जिसके बिना शरीर का चलना नामुमकिन है।

आम इंसान का यह मन भी कुछ अजीब चीज है। वह सोचता कुछ है तो होता कुछ है। वह चाहता कुछ है तो मिलता कुछ है। वह अपनी करना चाहता है पर करने वाले को करना कुछ और ही पड़ता है। इसी उहा-पोह में बचपन-जवानी-बुढापा बिता कल था आज फ्रेम में कैद हो दिवार पर टंग जाता है।

सबसे ज्यादा खींचा-तानी, वाद-विवाद, सवाल-जवाब होते रहे थे, होते रहे हैं तथा होते रहेंगे “आत्मा” को लेकर। ऋषि-मुनियों, साधू-संतों, आधुनिक मजमे-बाज गुरुओं आदि सब का ही यही कहना है कि यह जो आत्मा है वह अजर-अमर है। उस पर कोई व्याधि, सुख-दुख नहीं व्यापता। आग, हवा, पानी, अस्त्र-शस्त्र का उस पर कोई असर नहीं होता। ठीक है भाई, आप सब ज्ञानी हैं सत्य ही कहते होंगे। पर जब वह इतनी सशक्त है तो शरीर रूपी सहारे, आसरे, आधार के अंदर सुरक्षित रहते हुए उसकी शक्ति क्षीण क्यों हो जाती है? और "घर" से बाहर आते ही इतनी शक्तिशाली कैसे हो जाती है? जिस शरीर में 100-50 सालों तक डेरा डाले पड़ी रहती है उसी के खत्म होते समय निर्मोही की तरह दुम झाड़ के अपना रास्ता कैसे अख्तियार कर लेती है?
इधर वह इंसान, जिसे पता नहीं कैसे-कैसे उल्टे-सीधे विशेषणों से “अलंकृत” किया जाता रहा है, जो किसी कुत्ते-बिल्ली, तोता-मैना को दो-तीन साल के लिए भी पाल लेता है तो उसकी जुदाई में दिनों हफ्तों उदास, भावुक बना रहता है क्योंकि उसमें प्रेम की भावना होती है। जो शायद आत्मा में नहीं पाई जाती। तभी तो शरीर के खत्म होते ही उसे त्याग अपनी राह चल देती है। चलो त्याग दिया तो त्याग दिया, सही भी है खुद क्यों जलें या दफन हों किसी के साथ। पर फिर सवाल यह उठता है कि जब वह इतनी ही वितरागी है तो फिर शरीर द्वारा किए गये पाप-पुण्य का लेखा-जोखा उसे क्यों भुगतना पड़ता है। आवास से निकलने के बाद क्यों उसे आग, पानी, अस्त्रों-शस्त्रों से तकलीफ होने लगती है। चलो होती भी है तो उसके त्यागे हुए चोले को धारण करने वाले को क्यों डराया-धमकाया जाता है कि मरने के बाद ऊपर जाने पर ऐसा होगा, वैसा होगा। अरे होगा तो हो। जो हमारे अंदर वर्षों रह कर भी हमारी नहीं रही, जो हमारे खत्म होने पर मुंह उठा कर चल दी तो यदि उसे कुछ होता है हमें क्यों डराते हो और हम भी क्यों डरें ? वैसे भी इन डराऊ उपदेशों का असर हम पर क्यों और कैसे होगा जब हम, हम ही नहीं रहेंगे?

ऐसे सवाल अपनी अक्ल-मंदी में तेजी लाने के लिए कोई ना कोई तो पूछेगा ही। उसे अलग-अलग तरह-तरह के जवाब भी मिलेंगे। पर साथ ही यह भी सच है कि जवाब देने वाला अपने तथाकथित उपदेशों से सामने वाले को कितना भी प्रभावित कर ले पर खुद उसे भी मालुम नहीं होता कि वह जो बोल रहा है वह कितना सच है।
इधर फिर मुझे लग रहा है कि मेरे अंदर कोई है जो मेरे साथ मेरा सहभागी है। कौन है वह ?

शुक्रवार, 3 जून 2011

कांग्रेस डरती नहीं है, इसका अर्थ आप क्या लगाएंगे ?

एक हैं दिग्विजय सिंह। बड़े कांग्रेसी नेता हैं। कई बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियां निभा चुके हैं। बड़े-बड़े बयान देते रहते हैं। बड़े-बड़े बयानों से बड़ी-बड़ी परेशानियां खडी होती रही हैं। अभी पिछले दिनों ओसामा के पीछे "जी" लगा कर बड़ी-बड़ी खबरों में छाए रहे थे। पार्टी के और बड़े-बड़े लोगों ने समझाया, कुछ देर शांत रहे पर कल फिर वैसा ही कुछ बोल गए।
बाबा रामदेव के जटिल आसनों से घबडा कर उन्होंने क्या कहा देखिए - " कांग्रेस बाबा से नहीं डरती। नहीं तो उन्हें अब तक जेल पहुंचा दिया होता। डर नहीं है, तभी तो खुला छोड़ा है।"
इसका एक अर्थ यह नहीं लगता कि जिससे भी कांग्रेस डरती है उसे जेल में बंद करवा देती है ?
अब ऐसे शब्द निकल जाते हैं कि निकाले जाते हैं यह भी शोध का विषय हो सकता है।

गुरुवार, 2 जून 2011

मैं तो चूक गया था आप मत चूकिएगा

खाने-पीने के मामले में पंजाबियों का स्थान काफी ऊपर माना जाता है। पेट को इसके लिए चाहे अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ती हो पर जीभ इसका नाम सुनते ही "पानी-पानी" हो जाती है। उसमें भी अमृतसर के भोज्य-पदार्थ तो सारे देश में मशहूर हैं। पर यह बदकिस्मती ही रही कि वर्षों से वहां के लजीज व्यंजनों का नाम तथा उत्पादन केंद्रों को याद रखने के बावजूद "कड़ाही के पास से भूखे वापस" आ गये। बड़े दिनों के बाद पंजाब यात्रा का मौका मिला था पर समय की कमी के कारण उसका फायदा, खाने के लिहाज से, नहीं उठा पाए हम सब और "नियामतों" के पास तक भी नहीं पहुंच सके। क्योंकि लंका में तो सब दस हाथ के पर रावण की तो अलग ही बात थी। वैसे ही अमृतसर में भोजनालय तो बेशुमार हैं पर "सिरमौर" को तो खोजना ही पड़ता है।

खैर पर यदि आपका जाना हो तो कुछ "भोजन गाईड" बता रहा हूं चूकिएगा नहीं रसास्वादन से। आप एक बार आकर यहां के ढाबों का स्वाद जीभ को ले लेने भर दें, मजाल है कभी वह इस स्वाद को भूल पाए। बात चाहे पीढियों से चले आ रहे 'केसर के ढाबे' की हो चाहे 'भ्राबां के ढाबे' की, इनके भरवां पराठे, दाल और मोटी मलाई वाला दही कितना भी खालें पेट भर जाता है पर मन नहीं। सारा खेल धीमी आंच और शुद्ध घी का होता है। यह इनकी ईमानदारी की ही बरकत है कि मंहगाई के इस जमाने में जबकि यह ग्राहक से कुछ भी वसूल सकते हैं, ये सिर्फ जायज कीमतों पर ही लोगों का पेट भरने का व्रत ले अपना काम करते जाते हैं।

अमृतसर की बात हो और यहां के कुलचों का जिक्र ना हो यह कैसे हो सकता है। यहां के कुलचे जब देशी घी में नहा कर निकलते हैं तो उनका रूप-रंग तथा उनमें भरे गये अनारदाने और किसमिस का स्वाद बड़े-बड़े उपवासियों को अपना उपवास तोड़ने पर मजबूर कर देते हैं। इन कुलचों का अभिन्न अंग होते हैं मसालेदार चने। जिनको बनाने का तरीका जानने के लिये देश के बड़े-बड़े पंचतारा होटलों के शेफ भी लालायित रहते हैं।

पूरे खाने की बात हो या चाट पकौड़ी की अमृतसर किसी बात में पीछे नहीं है। यहां के 'बृजवासी चाट भंडार' की आलू की टिक्की का जायका इसको बनते देख ही मुंह में पानी ला देता है। सादी आलू की टिक्की हो या सोयाबीन की पिठ्ठी से भरी दही, सोंठ और हरी चटनी के साथ या पनीर वाली, मिलती बहुत से शहरों में हैं पर इनके जैसा स्वाद अन्यत्र दुर्लभ है। एक बात और जब कभी भी आप यहां आयें तो पनीर की भुजिया खाना तथा पेड़ा ड़लवा कर लस्सी पीना ना भूलें। इसके अलावा आप यहां का स्वाद अपने साथ बांध कर भी ले जा सकते हैं। यहां की आलूबुखारा भरी बड़ियां या अनारदाने वाले पापड़, ये घर पर भी आपको अपनी यात्रा का स्वाद दिलवाते रहेंगे।

ऐसा नहीं है कि यहां सिर्फ शाकाहारी भोजन ही मिलता है। सुना है यहां का मांसाहार लोगों को लखनवी या हैदराबादी स्वाद भूलने पर मजबूर कर देता है। ऐसे रेस्त्रांओं पर जुटी भीड़ इस बात की साक्षी रहती है।

तो कब जा रहे हैं अमृतसर बताईएगा।

विशिष्ट पोस्ट

"मोबिकेट" यानी मोबाइल शिष्टाचार

आज मोबाइल शिष्टाचार पर बात करना  करना ठीक ऐसा ही है जैसे किसी कॉलेज के छात्र को पांचवीं क्लास का कोर्स समझाया जा रहा हो ! अधिकाँश लोग इन सब ...