ललित जी की उम्दा कविता पढी तो अपनी यह पुरानी पोस्ट याद आ गयी
एक गांव के बाहर एक घना वट वृक्ष था। जिसकी जड़ों में एक दो फुटिया पत्थर खड़ा था। उसी पत्थर और पेड़ की जड़ के बीच एक श्वान परिवार मजे से रहता आ रहा था।
एक दिन महिलाओं का सामान बेचने वाले एक व्यापारी ने थकान के कारण दोपहर को उस पेड़ के नीचे शरण ली और अपनी गठरी उसी पत्थर के सहारे टिका दी। सुस्ताने के बाद उसने अपना सामान उठाया और अपनी राह चला गया। उसकी गठरी शायद ढीली थी सो उसमें रखे सिंदूर की पुडिया में से थोड़ा सिंदुर उस पत्थर पर गिर गया। सबेरे कुछ गांव वालों ने पत्थर पर गिरे रंग को देखा तो उस पर कुछ फूल चढा दिये। इस तरह अब रोज उस पत्थर का जलाभिषेक होने लगा, फूल मालायें चढने लगीं, दिया-बत्ती होने लग गयी । लोग आ-आकर मिन्नतें मांगने लगे। दो चार की कामनायें समयानुसार प्राकृतिक रूप से पूरी हो गयीं तो उन्होंने इसे पत्थर का चमत्कार समझ उस जगह को और प्रसिद्ध कर दिया। अब लोग दूर-दूर से वहां अपनी कामना पूर्ती के लिये आने लग गये। एक दिन एक परिवार अपने बच्चे की बिमारी के ठीक हो जाने के बाद वहां चढावा चढा धूम-धाम से पूजा कर गया।
यह सब कर्म-कांड श्वान परिवार का सबसे छोटा सदस्य भी देखा करता था। दैव योग से एक दिन वह बिमार हो गया। तकलीफ जब ज्यादा बढ गयी तो उसने उस पत्थर को इंगित कर अपनी मां से कहा, मां तुम भी इन से मेरे ठीक होने की प्रार्थना करो। ये तो सब को ठीक कर देते हैं। मां ने बात अनसुनी कर दी। पर जब श्वान पुत्र बार-बार जिद करने लगा तो मजबूर हो कर मां को कहना पड़ा कि बेटा ये हमारी बात नहीं सुनेंगें। पुत्र चकित हो बोला कि जब ये इंसान के बच्चे को ठीक कर सकते हैं तो मुझे क्यों नहीं ?
हार कर मां को सच बताना पड़ा, बेटा जब यहाँ यह सब कुछ नहीं होता था तब तुम्हारे पिता जी ने इसे अपनी "प्रकृति की पुकार" से इतनी बार धोया है कि अब तो मुझे यहाँ रहते हुए भी डर लगता है।
श्वान पुत्र कुछ समझा कुछ नहीं समझा, पर चुप हो गया।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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6 टिप्पणियां:
इसी प्रकार कई खँडहर शक्तिपीठ बन गए हैं.
बहुत सुंदर कथा जी शिक्षा लेने वाली, वेसे यही श्वान पुत्र कल दिल्ली के नये एयर पोर्ट पर घुम रहा था क्या?
हा हा हा
कल मैने आपको चकमा देने के मुड से लिख दिया था। क्योंकि एक पोस्ट के बाद आपकी तुरंत दुसरी आ गयी थी।
एक गंभीर विषय को आपने नीतिकथा के माध्यम से चित्रित किया है। आज भारत में यही हो रहा है। कल मै एक फ़ोटो खींच कर लाता हूँ और एक दास्तान सुनाता हूँ।
आभार
बहुत सही कथा सुनाई..बेचार श्वान पुत्र..अपने पिता की करनी का परिणाम भुगतेगा. :)
नाज़ायज़ ज़मीन हड़पना हो, एक्ठो पत्थर लाल रँग से पोत कर रख दीजिये ।
यदि सामर्थ्य हो तो एक जगराता भी वहाँ करवा दीजिये ।
पत्थरों की भी एक वैल्यू है जी, अपने देश में ।
:) :) अंधविश्वास की पोल खोलती सुन्दर कथा ..
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