जब भी कभी हवाई यात्रा करनी हो तो मनाएं कि "पैसेज" की तरफ की सीट मिले। रेल यात्रा में चाहे ए सी 3टियर हो या स्लीपर भूल कर भी साईड वाली दो बर्थों का ना सोचें। ऐसा ना हो कि सफर, Suffer बन कर रह जाए।
शशि थुरूर की राजनीति से विदाई उनकी धूमकेतु रूपी चमक से संगी-साथियों की ईर्ष्या के कारण हुई या अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण यह बहस का विषय हो सकता है। पर वह इंसान ऐसा कड़वा सच बोलने पर क्यों मजबूर हुआ उस पर भी ध्यान देना उचित होगा। जिस-जिस ने आज की ललचाती दरों पर हवाई यात्रा की होगी वे भुग्तभोगी जानते ही होंगे कि घरेलू यात्रा के दौरान दो-तीन घंटे किस परिस्थिति में कटते हैं। बंधा हुआ सा बैठा रहता है यात्री। हिलने, ड़ुलने, यात्रा के दौरान एक बार उठने में भी हिचकिचाता हुआ चाहे प्रकृति की पुकार कितनी भी तीव्र हो।
बहुत पहले दूरदर्शन पर एक धारावाहिक आता था "राग दरबारी" उसमें एक बार एक सरकारी आदमी लोगों से परिवार को दो या तीन बच्चों तक सीमित रखने की पैरवी करता है। कथा का नायक उससे पूछता है कि इससे क्या होगा? तो पैरवी करने वाला उसे समझाता है कि मान लो तुमने घर में खीर बनाई, ज्यादा बच्चे होंगे तो खीर की कम मात्रा हिस्से मे आएगी, यदि कम बच्चे होंगे तो वे भरपेट खा सकेंगे। तो नायक पलट कर पूछता है कि खीर ज्यादा बनाने की जुगत क्यों नहीं करते? बच्चों के पीछे क्यों लट्ठ लिए पड़े हो?
अब एक उदाहरण ट्रेन का। पिछले दिनों अपने कार्यकाल मे श्रीमान लालूजी ने स्लीपर और वातानुकूलित डिब्बों में किनारे वाली शायिकाओं की संख्या बढवा कर दो से तीन करवा दी थीं। ना करवाने वाले ने उसमे कभी बैठना था ना करने वालों ने। अपने बेवकूफी भरे निर्णय पर कोई झांकने भी नहीं गया होगा। झूठी प्रशंसा पाने के चक्कर में जो गलत कदम उठाया गया था उस पर विरोध प्रगट करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई थी। कोई यह ना समझा सका था उस भले आदमी को कि ऐसा करने पर यात्रा करने वाले को कितना "सफर" करना पड़ेगा। उस बेढंगे बदलाव के बाद वहां सिर्फ इतनी सी जगह बनती है कि आप अपना बड़ा अटैची रख सकें, ऊंचाई के हिसाब से। खुद तो वहां बैठना तो दूर आप ढंग से लेट कर करवट भी नहीं बदल सकते। भला हो भारत के दक्षिण में रहने वाले लोगों का जिन्होंने सबसे पहले इस फैसले के विरुद्ध आवाज उठाई थी। विरोध का फायदा सिर्फ इतना हुआ कि तीन के बीच से एक शायिका हटवा दी गयी। पर ऊपर वाली अपनी जगह पर कायम है, जिस पर चढने उतरने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। बुजुर्गों और महिलाओं के तो बिल्कुल भी वश की बात नहीं है कि उस पर चढने की सोचें भी। उस शायिका को अपनी जगह ना लाने का कारण उस पर जरूरत से ज्यादा होने वाला खर्च बता रेलवे ने पल्ला झाड़ लिया है। उसका कहना है कि यह "सिस्टम" जिनमें ऐसी शायिकाएं बची हैं उन डिब्बों के कबाड़ होने पर अपने आप खत्म हो जाएगा।
धन्य है हमारी सहनशीलता। पैसा खर्च करने के बाद भी हम जैसे तैसे यात्रा पूरी कर संतुष्ट हो जाते हैं। यह तो गनीमत है कि थरूर ने रेल में यात्रा नहीं की नहीं तो इन डिब्बों में आने-जाने वालों को "लगेज क्लास" कहलाने में देर नहीं लगती।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
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9 टिप्पणियां:
सार्थक लेखन।
nice
मेने भारत मै ऎ सी कलास मै भी सफ़र किया जो मेरे हिसाब से थर्ड कलास से भी गया गुजरा था, अब इस से ज्यादा क्या कहे
बिलकुल सही कह रहे हैं. मुख्य मार्गों से ऐसे डिब्बे हटा दिए गए हैं.
साईड में तीन बर्थ का विचार ही बेमानी था..जाने किसके दिमाग में उपजा होगा.
पढे लिखे मुर्खों की कमी नहीं है
और सलाह देने में क्या जाता है।
ऐसे ही किसी मुर्ख ने सलाह दी होगी
साईड में तीन बर्थ के लिए।
भेड़ बकरी जैसे ठूंसकर ले जाने के लिए।
फ़्लाईट में भी यही हाल है।
एक बार इंडिगो से जाना हो गया
दिल्ली से एर्नाकुलम वाया हैदराबाद
4/30घंटे की फ़्लाईट में गोडे सीधे नहीं हुए
इतना कम गैप था सीटों के बीच।
उसके बाद से आज तक इंडिगो से नहीं गया।
नोट-आपके ब्लाग पर पुरानी पोस्ट दिखाने के लिए ब्लाग अकाईव नहीं है कृपया उसे लगाएं।
आपकी यह पोस्ट मैं ढुंढता रह गया।
जय राम जी की
आपकी पोस्ट ब्लाग4वार्ता में
विद्यार्थियों को मस्ती से पढाएं-बचपन बचाएं-बचपन बचाएं
रचना प्रेक्टिकल प्रॉब्लम के ऊपर प्रकाश डाल्ती हुई बहुत ही सुन्दर्। सफ़र कैसा भी हो हम तो सफ़र याने वन हैज़ टु सफ़र मान के चलते हैं।
सार्थक विचार....विचारणीय पोस्ट
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