चाहे कोई बंगाली हो, पंजाबी हो, गुजराती हो। उसका प्रदेश चाहे छत्तीसगढ़ हो, उड़ीसा हो या आसाम हो। मानवता या इंसानियत को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आपसी प्रेम के लिए यह कोई बंधन नहीं है।
शर्मा परिवार पर प्रभू की कृपा थी। दोनों बच्चे बड़े हो गये थे। घर की जिम्मेदारियां कुछ कम हुईं तो श्रीमति कदम शर्मा ने बचे समय के सदुपयोग के लिये घर के पास के ही एक स्कूल में शिक्षिका का पद ग्रहण कर लिया। छोटा सा स्कूल था। छोटी-छोटी तनख्वाह थी। पर घर के नजदीक था और कोई मजबूरी नहीं थी। अच्छा था लोगों से मिलना जुलना हो जाता था और प्रकृति प्रदत्त लियाकत का उपयोग भी हो जाता था। तब कहां किसी को पता था कि आने वाले समय के लिये भगवान ने एक द्वार खोल दिया है।
समय अपनी रफ्तार से चलता जा रहा था। बड़ा बेटा कर्मक्षेत्र में उतर चुका था। छोटे ने एम।बी.ए. की तैयारी कर ली थी। तभी परिवार को जबरदस्त आर्थिक नुक्सान ने आ घेरा। सारी जमा-पूंजी पूरक के रूप में निकल गयी। उसी समय पूना के एक संस्थान से छोटे पुत्र को कोर्स के लिये बुलावा आ गया। दौड़-धूप शुरु हो गयी। जिन बैंकों के लुभावने वादों पर विश्वास कर पैसों के लिये निश्चिंत थे, वे सारे खोखले साबित हुए। इस बात को वे लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं जिन्होंने कभी मजबूरी में इन बैंकों का रुख किया होगा।
दिन पर दिन निकलते जा रहे थे। कुछ इंतजाम नहीं हो पा रहा था। ठीक ही कहा गया है कि जब समय विपरीत होता है तो अपना खुद का साया भी साथ नहीं देता। किसी तरह सिर्फ आधी रकम का इंतजाम हो पाया था।
कदमजी अपने स्टाफ रूम में सर झुकाये बैठीं थीं। आंखें आसुंओं से भरी हुई थीं। कल फीस जमा करने का अंतिम दिन था। एक लायक बेटे का भविष्य जोखिम में पड़ता जा रहा था। कुछ भी सूझ नहीं रहा था। सदा हंसता मुस्कुराता हुआ चेहरा कुम्हलाया हुआ था। तभी एक सहकर्मी ने कक्ष में प्रवेश किया। इनकी हालत देख जैसे ही कारण पूछा वैसे ही इनके सब्र का बांध टूट गया। आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। आनन-फानन में सारे साथियों में बात फैल गयी। बात का पता सबको था पर समस्या इतनी विकट होगी किसी को अंदाजा नहीं था।
फिर पता नहीं क्या हुआ। एक घंटे के अंदर कमरे की मेज पर ढाई लाख रुपये पड़े थे। नगद और चेक के रूप में। उस छोटे से स्कूल में काम करने वाले कोई धन्ना सेठ तो थे नहीं, पर दिलों में इंसानियत थी, सहयोग की भावना थी, आपसी प्यार का जज्बा था। सबने अपनी क्षमता के अनुसार जितना भी बन पड़ा सहयोग किया था। कदमजी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे।
फिर किसी तरह तटस्थ हो सारे जने हरकत में आए। दौड़-धूप कर ड्राफ्ट वगैरह बनवाया गया और दूसरे दिन पैसे भेज दिये गये। साथ ही कालेज के प्रिंसीपल साहब को फोन पर इसकी जानकारी दे दी गयी जिससे देर होने पर कोई और अड़चन ना खड़ी हो जाये। सब ठीक हो गया। दाखिला मिल गया।
समय चक्र चलता रहा, वर्षों बीत गये। आज बेटा अपने कर्म क्षेत्र में कार्यरत है। कदमजी के बड़े पुत्र का विवाह भी हो चुका है। सुख-शांति स्थापित है। पर उस समय की याद आते ही उनकी आंखें नम हो जाती हैं, विवशता से नहीं कृतज्ञता से।
मन तो मेरा भी भीग जाता है यह सब सुनाते लिखते, क्योंकि कदमजी मेरी पत्नि हैं।
शर्मा परिवार पर प्रभू की कृपा थी। दोनों बच्चे बड़े हो गये थे। घर की जिम्मेदारियां कुछ कम हुईं तो श्रीमति कदम शर्मा ने बचे समय के सदुपयोग के लिये घर के पास के ही एक स्कूल में शिक्षिका का पद ग्रहण कर लिया। छोटा सा स्कूल था। छोटी-छोटी तनख्वाह थी। पर घर के नजदीक था और कोई मजबूरी नहीं थी। अच्छा था लोगों से मिलना जुलना हो जाता था और प्रकृति प्रदत्त लियाकत का उपयोग भी हो जाता था। तब कहां किसी को पता था कि आने वाले समय के लिये भगवान ने एक द्वार खोल दिया है।
समय अपनी रफ्तार से चलता जा रहा था। बड़ा बेटा कर्मक्षेत्र में उतर चुका था। छोटे ने एम।बी.ए. की तैयारी कर ली थी। तभी परिवार को जबरदस्त आर्थिक नुक्सान ने आ घेरा। सारी जमा-पूंजी पूरक के रूप में निकल गयी। उसी समय पूना के एक संस्थान से छोटे पुत्र को कोर्स के लिये बुलावा आ गया। दौड़-धूप शुरु हो गयी। जिन बैंकों के लुभावने वादों पर विश्वास कर पैसों के लिये निश्चिंत थे, वे सारे खोखले साबित हुए। इस बात को वे लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं जिन्होंने कभी मजबूरी में इन बैंकों का रुख किया होगा।
दिन पर दिन निकलते जा रहे थे। कुछ इंतजाम नहीं हो पा रहा था। ठीक ही कहा गया है कि जब समय विपरीत होता है तो अपना खुद का साया भी साथ नहीं देता। किसी तरह सिर्फ आधी रकम का इंतजाम हो पाया था।
कदमजी अपने स्टाफ रूम में सर झुकाये बैठीं थीं। आंखें आसुंओं से भरी हुई थीं। कल फीस जमा करने का अंतिम दिन था। एक लायक बेटे का भविष्य जोखिम में पड़ता जा रहा था। कुछ भी सूझ नहीं रहा था। सदा हंसता मुस्कुराता हुआ चेहरा कुम्हलाया हुआ था। तभी एक सहकर्मी ने कक्ष में प्रवेश किया। इनकी हालत देख जैसे ही कारण पूछा वैसे ही इनके सब्र का बांध टूट गया। आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। आनन-फानन में सारे साथियों में बात फैल गयी। बात का पता सबको था पर समस्या इतनी विकट होगी किसी को अंदाजा नहीं था।
फिर पता नहीं क्या हुआ। एक घंटे के अंदर कमरे की मेज पर ढाई लाख रुपये पड़े थे। नगद और चेक के रूप में। उस छोटे से स्कूल में काम करने वाले कोई धन्ना सेठ तो थे नहीं, पर दिलों में इंसानियत थी, सहयोग की भावना थी, आपसी प्यार का जज्बा था। सबने अपनी क्षमता के अनुसार जितना भी बन पड़ा सहयोग किया था। कदमजी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। मुंह से बोल नहीं निकल पा रहे थे।
फिर किसी तरह तटस्थ हो सारे जने हरकत में आए। दौड़-धूप कर ड्राफ्ट वगैरह बनवाया गया और दूसरे दिन पैसे भेज दिये गये। साथ ही कालेज के प्रिंसीपल साहब को फोन पर इसकी जानकारी दे दी गयी जिससे देर होने पर कोई और अड़चन ना खड़ी हो जाये। सब ठीक हो गया। दाखिला मिल गया।
समय चक्र चलता रहा, वर्षों बीत गये। आज बेटा अपने कर्म क्षेत्र में कार्यरत है। कदमजी के बड़े पुत्र का विवाह भी हो चुका है। सुख-शांति स्थापित है। पर उस समय की याद आते ही उनकी आंखें नम हो जाती हैं, विवशता से नहीं कृतज्ञता से।
मन तो मेरा भी भीग जाता है यह सब सुनाते लिखते, क्योंकि कदमजी मेरी पत्नि हैं।