आज हर जगह आक्रोश, अराजकता, द्वेष, असंतोष का बोलबाला है। हर चौथा आदमी किसी न किसी से असहमत लगता है, और अपनी इस असहमती का इजहार बेतुकी हरकतों से कर रहा है। इन सब बातों का असर ब्लाग जगत पर भी साफ दिखाई दे रहा है। जबकी यह एक ऐसा मंच है जहां ब्लागर अपनी सोच को औरों के सामने रखता है। कोई जरूरी नहीं कि सब उससे सहमत हों, पर यदि असहमति है भी तो उसे शालीन शब्दों में जाहिर करना उचित होता है। छिप कर बारूद को तीली दिखा तमाशा देखना कैसी बात है सभी जानते हैं।
यह भी सच है कि कटु वचनों से दिलो-दिमाग तनावग्रस्त हो जाते हैं। ऐसी हरकतें समय-समय पर होती रहती हैं। कौन बच पाया है इनसे, सारे बड़े नामों को इस जद्दोजहद का सामना करना पड़ा है। समीर जी, भटिया जी, शास्त्री जी, द्विवेदी जी, किसको नहीं सहने पड़े ऐसे कटाक्ष। पर इन्होंने सारे प्रसंग को खेल भावना से लिया। ये सब तो स्थापित नाम हैं। मुझ जैसे नवागत को भी शुरु-शुरु में अभद्र भाषा का सामना करना पड़ा था। वह भी एक "पलट टिप्पणी" के रूप में। एक बेनामी भाई को एक ब्लाग पर की गयी मेरी टिप्पणी नागवार गुजरी और वह घर के सारे बर्तन ले मुझ पर चढ बैठे थे। मन तो खराब हुआ कि लो भाई अच्छी जगह है, न मैं तुम्हें जानता हूं ना ही तुम मुझे तो मैंने तुम्हारी कौन सी बकरी चुरा ली जो पिल पड़े। दो-एक दिन दिमाग परेशान रहा फिर अचानक मन प्रफुल्लित हो गया वह कहावत याद कर के कि "विरोध उसीका होता है जो मशहूर होता है" तब से अपन भी अपनी गिनती खुद ही मशहूरों में करने लग पड़े।
मेरे ख्याल से तो ऐसी हरकतों को तूल ही नहीं देना चाहिये। पढिये, किनारे करिये। उस को लेकर यदि हो-हल्ला मचायेंगे तब तो उस भले/भली का मनसूबा ही पूरा करेंगे। उस ओर से चुप्पी साध लें तो वह अपने आप ही बाज आ जायेगा/जायेगी। रही टिप्पणी माडरेशन की बात, वैसे तो यह पूरी तरह ब्लागर के ऊपर निर्भर करता है, फिर भी इसे उपयोग में न लाना ही बेहतर नहीं है? एक तो इससे लगेगा कि उस अनजान प्राणी से हम भयग्रस्त हो गये। बाहर किसीके डर से कोई घर से निकलना तो बंद नहीं करता। दूसरा स्वस्थ आलोचनायें भी शायद इसकी भेंट चढ जायें। क्योंकि हमारी फितरत है कि हम आलोचना कम ही पसंद करते हैं। जो कि लेखन को सुधारने में मदद ही करती हैं।
इसलिए मेरा निवेदन है , मुम्बई टाईगर जी से कि यार दिल पर मत ले। टेंशन लेने का नहीं, देने का।
इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
रविवार, 26 अप्रैल 2009
ताजमहल का नामोनिशान मिट गया होता अगर......
अंग्रेजों ने अपने शासन काल में मनमानी लूट-खसोट की। हमारी बहुमूल्य धरोहरों को अपने देश भेज दिया। हजारों छोटे-मोटे गोरों ने अपने घरों को सजा, सवांर, समृद्ध बना लिया, हमारे बल-बूते पर। पर उनमें कुछ ऐसे लोग भी थे, जिन्होंने अपनी कर्तव्य परायणता के आड़े किसी भी चीज को नहीं आने दिया। ऐसा ही एक नाम है लार्ड कर्जन का। अगर वे नहीं होते तो शायद हमारे गौरवशाली अतीत का बखान करने वाले कयी स्मारक भी शायद न होते। बात कुछ अजीब सी है पर सही है।
समय था 1831 का, दिल्ली और आगरा पर ब्रिटिश फौज ने कब्जा जमा लिया था और शासन था, लार्ड विलियम बैंटिक का। इन शहरों की खूबसूरत इमारतें बैंटिक की आंख की किरकिरी बनी हुई थीं। खासकर ताजमहल। एक योजना के अंतर्गत यह तय किया गया कि दिल्ली के लाल किले और आगरे के ताजमहल को या तो गिरा दिया जाए या बेच दिया जाए। इस आशय की एक खबर बंगाल के एक अखबार 'जान बुल' में 26 जुलाई 1831 के अंक में छपी भी थी। इसमें बताया गया था कि ताज को सरकार की बेचने की मंशा है पर यदि सही कीमत नहीं मिलती तो इसे गिराया भी जा सकता है। इसके पहले आगरा के लाल किले में स्थित संगमरमर के बने नहाने के हौदों को बैंटिक ने निलाम करवाया था, पर उनको तोड़ने में जो खर्च आया था वह उसके मलबे से प्राप्त रकम से काफी ज्यादा था। यह भी एक कारण था ताज के टूटने में होने वाले विलंब का और शासन की झिझक का। इधर अवाम को भी इस सब की खबर लग चुकी थी जिसमें अंग्रेजों की इस तोड़-फोड़ की नीतियों से आक्रोश उभर रहा था। बैंटिक के अधिकारों पर भी सवाल उठने लग गये थे। ब्रिटिश हुकुमत भी सिर्फ ताज के संगमरमर के कारण उसे गिराने के कारण फैलने वाले असंतोष को लेकर सशंकित थी। इसलिए इस घाटे के सौदे से उसने अपना ध्यान धीरे-धीरे हटा लिया। और फिर लार्ड कर्जन के आने के बाद तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। कर्जन एक कर्तव्यनिष्ठ शासक था। जनता के मनोभावों को समझते हुए उसने यहां की सभी गौरवशाली इमारतों के संरक्षण तथा रखरखाव का वादा किया और निभाया। उसके शासन काल में इन प्राचीन इमारतों तथा स्मारकों को संरक्षण तो मिला ही उनका उचित रख-रखाव और देख-रेख भी की जाती रही।
इन सब बातों का खुलासा 7 फरवरी 1900 को एशियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल की सभा में खुद लार्ड कर्जन ने किया था।
समय था 1831 का, दिल्ली और आगरा पर ब्रिटिश फौज ने कब्जा जमा लिया था और शासन था, लार्ड विलियम बैंटिक का। इन शहरों की खूबसूरत इमारतें बैंटिक की आंख की किरकिरी बनी हुई थीं। खासकर ताजमहल। एक योजना के अंतर्गत यह तय किया गया कि दिल्ली के लाल किले और आगरे के ताजमहल को या तो गिरा दिया जाए या बेच दिया जाए। इस आशय की एक खबर बंगाल के एक अखबार 'जान बुल' में 26 जुलाई 1831 के अंक में छपी भी थी। इसमें बताया गया था कि ताज को सरकार की बेचने की मंशा है पर यदि सही कीमत नहीं मिलती तो इसे गिराया भी जा सकता है। इसके पहले आगरा के लाल किले में स्थित संगमरमर के बने नहाने के हौदों को बैंटिक ने निलाम करवाया था, पर उनको तोड़ने में जो खर्च आया था वह उसके मलबे से प्राप्त रकम से काफी ज्यादा था। यह भी एक कारण था ताज के टूटने में होने वाले विलंब का और शासन की झिझक का। इधर अवाम को भी इस सब की खबर लग चुकी थी जिसमें अंग्रेजों की इस तोड़-फोड़ की नीतियों से आक्रोश उभर रहा था। बैंटिक के अधिकारों पर भी सवाल उठने लग गये थे। ब्रिटिश हुकुमत भी सिर्फ ताज के संगमरमर के कारण उसे गिराने के कारण फैलने वाले असंतोष को लेकर सशंकित थी। इसलिए इस घाटे के सौदे से उसने अपना ध्यान धीरे-धीरे हटा लिया। और फिर लार्ड कर्जन के आने के बाद तो सारा परिदृश्य ही बदल गया। कर्जन एक कर्तव्यनिष्ठ शासक था। जनता के मनोभावों को समझते हुए उसने यहां की सभी गौरवशाली इमारतों के संरक्षण तथा रखरखाव का वादा किया और निभाया। उसके शासन काल में इन प्राचीन इमारतों तथा स्मारकों को संरक्षण तो मिला ही उनका उचित रख-रखाव और देख-रेख भी की जाती रही।
इन सब बातों का खुलासा 7 फरवरी 1900 को एशियाटिक सोसायटी आफ बेंगाल की सभा में खुद लार्ड कर्जन ने किया था।
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
जब ईश्वरचंद्र विद्यासागर जी ने चप्पल फेंकी।
फिर एक चप्पल चली। रोज ही कहीं ना कहीं यह पदत्राण थलचर हाथों में आ कर नभचर बन अपने गंत्वय की ओर जाने की नाकाम कोशिश करते नज़र आने लगे हैं। अब यह जनता की दबी भड़ास का नतीजा हैं या प्रायोजित कार्यक्रम, यह खोज का विषय है। पर वर्षों पहले भी एक चप्पल चली थी, वह भी एक ऐसे इंसान के हाथों जो अपने समय के प्रबुद्ध और विद्वान पुरुष थे।
बात ब्रिटिश हुकुमत की है। बंगाल में नील की खेती करनेवाले अंग्रेजों जिन्हें, नील साहब या निलहे साहब भी कहा जाता था, के अत्याचार , जोर-जुल्म की हद पार कर गये थे। लोगों का जीवन नर्क बन गया था। इसी जुल्म के खिलाफ कहीं-कहीं आवाजें भी उठने लगी थीं। ऐसी ही एक आवाज को बुलंदी की ओर ले जाने की कोशीश में थे कलकत्ते के रंगमंच से जुड़े कुछ युवा। ये अपने नाटकों के द्वारा इन अंग्रेजों की बर्बरता का मंचन लोगों के बीच कर विरोध प्रदर्शित करते रहते थे । ऐसे ही एक मंचन के दौरान इन युवकों ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी को भी आमंत्रित किया। उनकी उपस्थिति में युवकों ने इतना सजीव अभिनय किया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गये। खासकर निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने तो अपने चरित्र में प्राण डाल दिये थे। अभिनय इतना सजीव था कि विद्यासागर जी भी अपने पर काबू नहीं रख सके और उन्होंने अपने पैर से चप्पल निकाल कर उस अभिनेता पर दे मारी। सारा सदन भौचक्का रह गया। उस अभिनेता ने विद्यासागर जी के पांव पकड़ लिए और कहा कि मेरा जीवन धन्य हो गया। इस पुरस्कार ने मेरे अभिनय को सार्थक कर दिया। आपके इस प्रहार ने निलहों के साथ-साथ हमारी गुलामी पर भी प्रहार किया है। विद्यासागर जी ने उठ कर युवक को गले से लगा लिया। सारे सदन की आंखें अश्रुपूरित थीं।
बात ब्रिटिश हुकुमत की है। बंगाल में नील की खेती करनेवाले अंग्रेजों जिन्हें, नील साहब या निलहे साहब भी कहा जाता था, के अत्याचार , जोर-जुल्म की हद पार कर गये थे। लोगों का जीवन नर्क बन गया था। इसी जुल्म के खिलाफ कहीं-कहीं आवाजें भी उठने लगी थीं। ऐसी ही एक आवाज को बुलंदी की ओर ले जाने की कोशीश में थे कलकत्ते के रंगमंच से जुड़े कुछ युवा। ये अपने नाटकों के द्वारा इन अंग्रेजों की बर्बरता का मंचन लोगों के बीच कर विरोध प्रदर्शित करते रहते थे । ऐसे ही एक मंचन के दौरान इन युवकों ने ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी को भी आमंत्रित किया। उनकी उपस्थिति में युवकों ने इतना सजीव अभिनय किया कि दर्शकों के रोंगटे खड़े हो गये। खासकर निलहे साहब की भूमिका निभाने वाले युवक ने तो अपने चरित्र में प्राण डाल दिये थे। अभिनय इतना सजीव था कि विद्यासागर जी भी अपने पर काबू नहीं रख सके और उन्होंने अपने पैर से चप्पल निकाल कर उस अभिनेता पर दे मारी। सारा सदन भौचक्का रह गया। उस अभिनेता ने विद्यासागर जी के पांव पकड़ लिए और कहा कि मेरा जीवन धन्य हो गया। इस पुरस्कार ने मेरे अभिनय को सार्थक कर दिया। आपके इस प्रहार ने निलहों के साथ-साथ हमारी गुलामी पर भी प्रहार किया है। विद्यासागर जी ने उठ कर युवक को गले से लगा लिया। सारे सदन की आंखें अश्रुपूरित थीं।
रविवार, 19 अप्रैल 2009
क्या पांडव स्त्री दुर्बलता के शिकार थे ?
यदि निष्पक्षता से देखा जाय, पुस्तकों में वर्णित सिर्फ उनकी अच्छाईयों को ही ना देखा जाए तो उत्तर 'हां' में आता है। शुरु करते हैं द्रोपदी स्वयंवर से। अर्जुन ने अपने कौशल से द्रोपदी को वरा था। पर जब पांडव उसे लेकर कुंती के पास आए तो युधिष्ठिर, जिन्हें धर्म का अवतार कहा जाता है, जिनके बारे में प्रचलित है कि वह कभी झूठ नहीं बोलते थे, तो उन्होंने भले ही मां को चकित करने के लिए ही कहा हो, पर यह क्यों कहा कि हम भिक्षा लाए हैं। जिसे सुन कुंती ने बिना देखे ही अंदर से कह दिया कि आपस में बांट लो। पर जब कुंती को अपनी गलती का एहसास हुआ तो उसने कहा कि यह तो राजकन्या है और राजकन्याएं बंटा नहीं करतीं। यह सुन कर युधिष्ठिर ने मां की बात काटी कि हे माते तुम्हारे कहे वचन झूठ नहीं हो सकते तुम्हारी आज्ञा हमारा धर्म है। कोई ना कोई रास्ता निकालना पड़ेगा। बाकि भाई भी चुप रहे। क्या द्रोपदी के अप्रतिम सौंदर्य से सारे भाईयों के मन विचलित हो दुर्बल नहीं हो गये थे? क्या सभी भाई उसे पाना नहीं चाहते थे? जो अवसर अर्जुन ने उन्हें अनायास उपलब्ध करवा दिया था, उसे खोना क्या उनके लिए संभव था? जबकि मां की दूसरी बात भी उनके लिए उतनी ही महत्वपूर्ण होनी चाहिए थी। उस समय किसी ने द्रोपदी के मन की हालत क्यूं नहीं जाननी चाही, जब कि स्वयंवर कन्या कि इच्छा पर आधारित होता था। उससे किसी ने पूछा, कि अपने से छोटे देवरों को वह कैसे पति मानेगी? परिवार की रक्षा करने वाले भीम को अपना भक्षक कैसे बनने देगी? उसकी देह को तो यंत्र बना दिया गया पर उसका मन ?
ठीक है सबने माँ की आज्ञा शिरोधार्य की पर इतनी नैतिकता तो होनी ही चाहिये थी कि उसे सिर्फ कहने भर को पत्नि मानते। मां ने यह तो नहीं कहा था कि उससे संतान प्राप्त करो। पर द्रोपदी से हरेक भाई ने पुत्र प्राप्त किया। जबकि ग्रन्थों में छोटे भाई की पत्नि को बेटी तथा बड़े भाई की पत्नि को मां का स्थान प्राप्त है। जाहिर है कि द्रोपदी के अप्सरा जैसे सौंदर्य ने पांडवों की नैतिकता को भुला दिया था। अब इस बंटवारे की गुत्थी को सुलझाने के लिए नारद मुनि की सहायता ली गयी। उनके कथनानुसार द्रोपदी का एक-एक भाई के पास एक साल तक रहना निश्चित किया गया जैसे वह इंसान ना हो कोई जींस हो। उस दौरान यदि कोई और भाई उसके कक्ष में आ जाता है तो उसे बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वनगमन करना होगा। इस नियम का परिस्थितिवश शिकार बना अर्जुन। पर अपने वनवास के दौरान इस नियम का पालन नहीं कर सका।
तीर्थाटन के दौरान हरिद्वार में नाग कन्या ऊलूपी उस पर आसक्त हो गयी, अर्जुन ने अपने नियम की मजबूरी बताई पर ऊलूपी के तर्कों से पराजित हो उसने उससे विवाह कर लिया। दो वर्षों तक नागलोक में रह कर पतित्व का निर्वाह करते हुए उसने ऊलूपी को मातृत्व का सुख प्रदान किया। उसके पश्चात घूमते-घूमते वह मणीपुर पहुंचा। वहां के राजा चित्रवाहन की कन्या, चित्रांगदा, गुणी और अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी थी। उसे देख अर्जुन का मन बेकाबू हो गया। उसने अपना परिचय दे चित्रवाहन से उसकी कन्या का हाथ मांगा। राजा ने उसकी बात मान ली पर एक शर्त रखी कि उनसे होने वाले पुत्र को उसे गोद दे दिया जाएगा। अर्जुन को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। उसने शर्त स्वीकार कर चित्रांगदा से विवाह कर लिया। यहां वह तीन साल तक रहा। फिर उसे नियम की याद आई और उसने मणीपुर छोड़ आगे की यात्रा शुरु की। चलते-चलते वह अपने सखा के यहां द्वारका जा पहुंचा। और इस बार उसकी दृष्टि का शिकार बनी अपने ही सखा की बहन सुभद्रा। पर यहां एक समस्या भी थी। श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम, सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे, जो राजनीतिक रूप से भी पांडवों के अनुकूल नहीं था। कृष्ण पांडवों के हितैषी थे उन्हीं की सलाह पर अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण कर लिया।
इस तरह क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अर्जुन ने वनगमन जरूर किया था, पर शर्तों के अनुसार ना वह ब्रह्मचर्य का पालन कर सका ना एक पत्निनिष्ठ रह सका। स्त्री-दुर्बलता के कारण उसन विवाहेतर संबंध बनाए। उसकी कमजोरी को ढकने के लिये कहा जा सकता है कि समय के साथ वह संबंध राजनीतिक शक्ति ही साबित हुए पर जिसको भगवान का वरदहस्त प्राप्त था, साक्षात प्रभू जिसके हितैषी थे, उसको ऐसे संबंधों की क्या जरूरत थी ?
ठीक है सबने माँ की आज्ञा शिरोधार्य की पर इतनी नैतिकता तो होनी ही चाहिये थी कि उसे सिर्फ कहने भर को पत्नि मानते। मां ने यह तो नहीं कहा था कि उससे संतान प्राप्त करो। पर द्रोपदी से हरेक भाई ने पुत्र प्राप्त किया। जबकि ग्रन्थों में छोटे भाई की पत्नि को बेटी तथा बड़े भाई की पत्नि को मां का स्थान प्राप्त है। जाहिर है कि द्रोपदी के अप्सरा जैसे सौंदर्य ने पांडवों की नैतिकता को भुला दिया था। अब इस बंटवारे की गुत्थी को सुलझाने के लिए नारद मुनि की सहायता ली गयी। उनके कथनानुसार द्रोपदी का एक-एक भाई के पास एक साल तक रहना निश्चित किया गया जैसे वह इंसान ना हो कोई जींस हो। उस दौरान यदि कोई और भाई उसके कक्ष में आ जाता है तो उसे बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वनगमन करना होगा। इस नियम का परिस्थितिवश शिकार बना अर्जुन। पर अपने वनवास के दौरान इस नियम का पालन नहीं कर सका।
तीर्थाटन के दौरान हरिद्वार में नाग कन्या ऊलूपी उस पर आसक्त हो गयी, अर्जुन ने अपने नियम की मजबूरी बताई पर ऊलूपी के तर्कों से पराजित हो उसने उससे विवाह कर लिया। दो वर्षों तक नागलोक में रह कर पतित्व का निर्वाह करते हुए उसने ऊलूपी को मातृत्व का सुख प्रदान किया। उसके पश्चात घूमते-घूमते वह मणीपुर पहुंचा। वहां के राजा चित्रवाहन की कन्या, चित्रांगदा, गुणी और अनुपम सौंदर्य की स्वामिनी थी। उसे देख अर्जुन का मन बेकाबू हो गया। उसने अपना परिचय दे चित्रवाहन से उसकी कन्या का हाथ मांगा। राजा ने उसकी बात मान ली पर एक शर्त रखी कि उनसे होने वाले पुत्र को उसे गोद दे दिया जाएगा। अर्जुन को इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी। उसने शर्त स्वीकार कर चित्रांगदा से विवाह कर लिया। यहां वह तीन साल तक रहा। फिर उसे नियम की याद आई और उसने मणीपुर छोड़ आगे की यात्रा शुरु की। चलते-चलते वह अपने सखा के यहां द्वारका जा पहुंचा। और इस बार उसकी दृष्टि का शिकार बनी अपने ही सखा की बहन सुभद्रा। पर यहां एक समस्या भी थी। श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम, सुभद्रा का विवाह दुर्योधन से करना चाहते थे, जो राजनीतिक रूप से भी पांडवों के अनुकूल नहीं था। कृष्ण पांडवों के हितैषी थे उन्हीं की सलाह पर अर्जुन ने सुभद्रा का अपहरण कर लिया।
इस तरह क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए अर्जुन ने वनगमन जरूर किया था, पर शर्तों के अनुसार ना वह ब्रह्मचर्य का पालन कर सका ना एक पत्निनिष्ठ रह सका। स्त्री-दुर्बलता के कारण उसन विवाहेतर संबंध बनाए। उसकी कमजोरी को ढकने के लिये कहा जा सकता है कि समय के साथ वह संबंध राजनीतिक शक्ति ही साबित हुए पर जिसको भगवान का वरदहस्त प्राप्त था, साक्षात प्रभू जिसके हितैषी थे, उसको ऐसे संबंधों की क्या जरूरत थी ?
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
कैसी रही
पाकिस्तान में अनाज की भारी कमी हो जाने से सरकार ने फरमान निकाला कि अनाज की बर्बादी रोकी जाए। जिनके पास जानवर हैं वे भी उन्हें खिलाने में एहतियात बरतें। नियम का पालन करवाने के लिए सैनिकों की टुकड़ियां घूम-घूम कर जायजा लेने लग गयीं। ऐसे में सैनिकों का दस्ता एक गांव से गुजरा, उन्होंने देखा कि एक आदमी अपने घोड़े को चने खिला रहा है। सैनिक अदालत ने उस पर भारी जुर्माना कर दिया। कुछ दिनों बाद फिर सैनिक उधर से गुजरे उन्होंने फिर गांव वाले को अपने घोड़े को कुछ खिलाते देख पूछा, अब क्या खिला रहे हो? घोड़े वाले ने कहा घास। उस पर फिर जुर्माना ठोक दिया गया। कुछ दिनों बाद फिर सैनिकों ने उसी गांव का मुआयना किया और उस गांव वाले से पूछा आजकल घोड़े को क्या खिलाते हो? गांव वाला बोला हुजूर अब तो घोड़े को मैं पैसे दे देता हूं। उसकी जो इच्छा होती है बाजार जा खुद ही खा आता है।
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
लिंकन ने गीता तो नहीं पढी होगी, पर
अब्राहम लिंकन ने गीता तो नहीं पढी होगी पर उनका जीवन पूरी तरह एक कर्म-योगी का ही रहा। वर्षों-वर्ष असफलताओं के थपेड़े खाने के बावजूद वह इंसान अपने कर्म-पथ से नहीं हटा, अंत में तकदीर को ही झुकना पड़ा उसके सामने।
अब्राहम लिंकन 28-30 सालों तक लगातार असफल होते रहे, जिस काम में हाथ ड़ाला वहीं असफलता हाथ आई। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। लोगों के लिए मिसाल पेश की और असफलता को कभी भी अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। लगे रहे अपने कर्म को पूरा करने में, जिसका फल भी मिला, दुनिया के सर्वोच्च पद के रूप में। उनकी असफलताओं पर नज़र डालें तो हैरानी होती है कि कैसे उन्होंने तनाव को अपने पर हावी नहीं होने दिया होगा। 20-22 साल की आयु में घर की आर्थिक स्थिति संभालने के लिए उन्होंने व्यापार करने की सोची, पर कुछ ही समय में घाटे के कारण सब कुछ बंद करना पड़ा। कुछ दिन इधर-उधर हाथ-पैर मारने के बाद फिर एक बार अपना कारोबार शुरु किया पर फिर असफलता हाथ आयी। 26 साल की उम्र में जिसे चाहते थे और विवाह करने जा रहे थे, उसी लड़की की मौत हो गयी। इससे उनका मानसिक संतुलन बिगड़ गया, पर फिर उन्होंने अपने आप को संभाला और स्पीकर के पद के लिए चुनाव लड़ा पर वहां भी हार का सामना करना पड़ा। 31 साल की उम्र में फिर चुनाव में हार ने पीछा नहीं छोड़ा। 34 साल में कांग्रेस से चुनाव जीतने पर खुशी की एक झलक मिली पर वह भी अगले चुनाव में हार की गमी में बदल गयी। 46 वर्षीय लिंकन ने हार नहीं मानी पर हार भी कहां उनका पीछा छोड़ रही थी फिर सिनेट के चुनाव में पराजय ने अपनी माला उनके गले में डाल दी। अगले साल उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए खड़े हुए पर हार का भूत पीछे लगा ही रहा। अगले दो सालों में फिर सिनेट पद की जोर आजमाईश में सफलता दूर खड़ी मुस्काती रही। पर कब तक भगवान परीक्षा लेता रहता, कब तक असफलता मुंह चिढाती रहती, कब तक जीत आंख-मिचौनी खेलती। दृढ प्रतिज्ञ लिंकन के भाग्य ने पलटा खाया और 51 वर्ष की उम्र में उन्हें राष्ट्रपति के पद के लिए चुन लिया गया। ऐसा नहीं था कि वह वहां चैन की सांस ले पाते हों वहां भी लोग उनकी बुराईयां करते थे। वहां भी उनकी आलोचना होती थी। पर लिंकन ने तनाव-मुक्त रहना सीख लिया था। उन्होंने कहा था कि कोई भी व्यक्ति इतना अच्छा नहीं होता कि वह राष्ट्रपति बने, परंतु किसी ना किसी को तो राष्ट्रपति बनना ही होता है। तो यह तो लिंकन थे जो इतनी असफलताओं का भार उठा सके, पर क्या हर इंसान इतना मजबूत बन सकता है? शायद हां। इसी 'हां' को समझाने के लिए भगवान ने इस धरा पर गीता का संदेश दिया था। क्योंकि वे जानते थे कि इस 'हां' से आम-जन को परिचित करवाने के लिए, उसकी क्षमता को सामने लाने के लिए उसे मार्गदर्शन की जरूरत पड़ेगी।
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
कोहनूर, भारत के बाहर कैसे गया
कोहेनूर जिसका नाम सुनते ही कलेजे में एक टीस उभर आती है। अपनी विरासत को सात समुद्र पार पड़ा देख, उसे वापस न पा सकने की कसक कचोटती रहती है दिलो-दिमाग को। अंग्रेजों ने हमारी सभ्यता, संस्कृति और बौद्धिक सम्पदा को तो हानि पहुंचाई ही साथ ही साथ हमें वर्षों लूट-लूट कर गरीबी के अंधियारे में धक्के खाने के लिए छोड़ दिया। सालों साल हमारा हर रूप से दोहन होता रहा। उसी का एक रूप था कोहनूर का ब्रिटेन पहुंचना। इसकी कीमत का कोई अंदाजा नहीं था। कहते हैं कि एक बार कोशिश की गयी थी इसका मोल आंकने की तो जवाब पाया गया था कि यदि एक ताकतवर इंसान चारों दिशाओं में पत्थर फेंके, फिर उन फेंके गये पत्थरों के बीच की भूमि को सोने से भर दिया जाय तो भी इसके मुल्य की कीमत नहीं मिल पाएगी। हो सकता है कि यह अतिश्योक्ति हो पर इसमें दो राय नहीं है कि यह दुनिया के बेशकिमती हीरों में से एक रहा है।
कोहनूर मुगल शासकों की सम्पत्ति का हिस्सा था। जिसे नादिरशाह ने लूट कर काबुल भिजवा दिया था। जहां से पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह जी ने वहां के शासक शाहशुजा को हरा फिर इसे अपने खजाने में स्थान दिया। पर समय की मार, द्वितीय अंग्रेज-सिक्ख युद्ध में जब पंजाब के राजा दिलीप सिंह को पराजय का सामना करना पड़ा तो राज्य के साथ-साथ यह अनमोल हीरा भी तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी को प्राप्त हो गया। उसे अपने आकाओं को खुश करने और उनकी नज़रें इनायत पाने का एक बेहतरीन मौका हाथ लग गया था। उसने इसे ब्रिटेन की महारानी को सौंपने का निश्चय कर लिया। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका विरोध किया, क्योंकि वह हीरे पर अपना हक समझती थी। पर साम्राज्यवादी डलहौजी को गवारा नहीं था कि ऐसी बेहतरीन वस्तु से इंग्लैंड वंचित रह जाए। उसने चुप-चाप इसे ब्रिटेन भेजने का निश्चय किया और इस षड़यंत्र में उसका साथ दिया लार्ड हाबहाऊस ने। सारा काम गुप्त रूप से किया गया। लाहौर से डलहौजी खुद हीरे को ले बंबई आया। वहां से एक युद्धपोत जिसका नाम 'मिदे' था, के द्वारा कोहनूर को भेजने का प्रबंध किया गया। योजना इतनी गुप्त रखी गयी थी कि जहाज के कप्तान को भी इस बात की जानकारी नहीं दी गयी उसे सिर्फ इतना पता था कि दो आदमियों को इंग्लैंड ले जाना है। पर किसी तरह इस षड़यंत्र की भनक लाहौरवासियों को लग गयी। पर विरोध के स्वर तेज होने के पहले ही जहाज बंदरगाह छोड़ चुका था।
इसे विचित्र संयोग ही कहेंगे कि कोहनूर जहां-जहां भी रहा वहां खून-खराबा या दुख: का भी पदार्पण हुआ। युद्धपोत 'मिदे' जब ब्रिटेन पहुंचा तो महारानी पारिवार में मौत के कारण शोकाग्रस्त थीं। पर इसके बावजूद कोहनूर को पाने का लोभ संवरण नहीं कर पायीं। तीन जुलाई 1850 के दिन सायं ठीक साढे चार बजे यह नायाब और दुर्लभ तोहफा विशिष्ट मेहमानों की उपस्थिति में महारानी को भेंट कर दिया गया। आज भी यह ब्रिटिश राज परिवार की शोभा बढा रहा है।
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
रूमाल, जो कभी संपन्नता और प्रतिष्ठा के प्रतीक थे.
यह सोच कर भी आश्चर्य होता है कि आज हर खासो-आम को उपलब्ध यह चौकोर कपडे का टुकडा किसी जमाने में सिर्फ रसूखवाले और संपन्न लोग ही रख सकते थे। इसका जिक्र ईसा से भी दो सौ साल पहले मिलता है। तब लिनेन के इस सफेद टुकडे को, जो बेशकीमती होता था, सुडेरियम के नाम से जाता था और यह केवल संपन्न लोगों की सम्पत्ति हुआ करता था। धीरे-धीरे आयात बढने से यह जनता के लिए भी सुलभ हो गया। इसके जन्म की भी कयी रोचक कथाएं हैं। मध्य युग में चर्च के अधिकारियों ने नाक बहने पर उसे चर्च की चादरों से या अपने कपड़ों से पोंछने की मनाही कर दी थी। तब चादरों के छोटे-छोटे टुकड़ों के रूप में इसका जन्म हुआ। पर अंग्रेजों के अनुसार इसका आविष्कार रिचर्ड़ द्वितीय (1367-1400) ने किया था। कहते हैं कि रिचर्ड़ सफाई के लिए प्रयुक्त होने वाले भारी-भरकम तौलियों से परेशान था। खासकर जुकाम वगैरह होने पर इतने भारी तौलियों का उपयोग करना दुष्कर हो जाता था। सो उसके दिमाग में एक तरकीब आयी और उसने सुंदर-सुंदर कपड़ों के छोटे-छोटे टुकड़े करवा दिये जो हाथ और नाक साफ करने के काम आने लगे। यही आधुनिक रूमालों के पूर्वज थे। वैसे देखा जाए तो रूमाल को प्रिय बनाने का काम नसवार लेने वालों ने किया होगा जो अपने कपड़ों को दाग-धब्बों से बचाने के लिए किसी छोटे कपड़े का उपयोग करते होंगे।
एक बार अस्तित्व मे आ जाने के बाद इसका उपयोग विभिन्न रूपों में होने लगा। जैसे ईत्र की सुगंध को समोये रखने में, किसी को उपहार स्वरूप देने में, हाथ से कढे रूमाल प्यार के तोहफे के रूप में देने में इत्यादि-इत्यादि। फिर तो कभी यह कोट की शान बना और कभी कुछ उपलब्ध ना होने पर बाज़ार से सौदा-सुलफ बांध लाने का जरिया। जहां मुगलों के जमाने में सौगातें सुंदर नफीस रूमालों से ढक कर भेजी जाती थीं, वहीं एक समय यह कुख्यात डाकूओं का हत्या करने का हथियार भी बना। जब इसके एक सिरे में सिक्का बांध कर राहगीर की हत्या कर दी जाती थी।
तो यह एतिहासिक उठा-पटक वाला, उत्थान-पतन देखने वाला कपड़े का चौकोर टुकड़ा आज हम सब की एक जरूरत बन चुका है। भूल जाएं तो अलग बात है पर इसके बिना बाहर निकलने की सोची भी नहीं जा सकती।
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वकील ने अपने नेता मुवक्किल को ई-मेल भेजा कि सत्य की विजय हो गयी है। तुरंत जवाब आया - हाई कोर्ट में अपील कर दो।
एक बार अस्तित्व मे आ जाने के बाद इसका उपयोग विभिन्न रूपों में होने लगा। जैसे ईत्र की सुगंध को समोये रखने में, किसी को उपहार स्वरूप देने में, हाथ से कढे रूमाल प्यार के तोहफे के रूप में देने में इत्यादि-इत्यादि। फिर तो कभी यह कोट की शान बना और कभी कुछ उपलब्ध ना होने पर बाज़ार से सौदा-सुलफ बांध लाने का जरिया। जहां मुगलों के जमाने में सौगातें सुंदर नफीस रूमालों से ढक कर भेजी जाती थीं, वहीं एक समय यह कुख्यात डाकूओं का हत्या करने का हथियार भी बना। जब इसके एक सिरे में सिक्का बांध कर राहगीर की हत्या कर दी जाती थी।
तो यह एतिहासिक उठा-पटक वाला, उत्थान-पतन देखने वाला कपड़े का चौकोर टुकड़ा आज हम सब की एक जरूरत बन चुका है। भूल जाएं तो अलग बात है पर इसके बिना बाहर निकलने की सोची भी नहीं जा सकती।
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वकील ने अपने नेता मुवक्किल को ई-मेल भेजा कि सत्य की विजय हो गयी है। तुरंत जवाब आया - हाई कोर्ट में अपील कर दो।
सोमवार, 13 अप्रैल 2009
ये पक्षियों की देख-भाल करते हैं
मनुष्यों के लिए तो शहर-शहर, गांव-गांव मे चिकित्सालय खुले होते हैं। बड़े शहरों में जानवरों की सेहत के लिए भी इंतजाम होता है। पर क्या आपने पक्षियों के अस्पताल के बारे में सुना है ?
जी हां! इन मासूम परिंदो के लिए देश का पहला चिकित्सालय दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में स्थित जैन मंदिर में खोला गया था। यहां पर लोग अपने बीमार तथा घायल पक्षियों को ला कर उनका उपचार करवाते हैं। यहां अधिकतर पंख कटे पक्षी लाए जाते हैं। बिल्ली-कुत्ते या बड़े शिकारी पक्षियों के शिकार होने से बचे या पतंग की डोर से घायल परिंदों की यहां बच्चों के समान देख-भाल की जाती है। यहां उनकी मरहम-पट्टी कर उन्हें एंटीबायटिक दवाएं दे कर उनकी जान बचाने की कोशिश की जाती है। यहां की सफाई तथा पक्षियों के आहार का विशेष ध्यान रखा जाता है। घायल पक्षी को अलग पिंजरे में रखा जाता है, जिससे अन्य पक्षी उसे नुकसान ना पहुंचा सकें। कुछ ठीक होने पर उसे एक जाली लगे कमरे में छोड़ दिया जाता है। पूर्ण रूप से ठीक होने पर उसे आजाद कर दिया जाता है।
इसी तरह का एक और अस्पताल जयपुर के सांगानेरी गेट के पास भी है। यहां आर्थिक लाभ की अपेक्षा त्याग की भावना से पूरी निष्ठा के साथ इन मूक, मासूम जीवों की निस्वार्थ सेवा कर उन्हें रोग मुक्त करने की चेष्टा की जाती है। यहां कोई भी अपने पालतु पक्षी का इलाज मुफ्त में करा सकता है।
महान थे वे लोग जिन्होंने इस बारे में सोचा और अपनी सोच को अमली जामा पहनाया। साथ ही धन्य हैं वे लोग जो निस्वार्थ रूप से जुड़े हुए हैं इस परोपकारी काम से।
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ब्लादिमीर इलिस उलयानोव ने अपने करीब ड़ेढ सौ उपनाम रखे। इन्हीं मे से एक उपनाम से वे विश्व्विख्यात भी हुए।
वह उपनाम था "लेनिन"।
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एक समय मैडम क्यूरी को फ्रेंच एकादमी ने अपना सदस्य बनाने से इंकार कर दिया था। कारण था उनका महिला होना।
उसी महिला ने दो-दो बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया और ऐसा करने वाली विश्व की पहली महिला बनीं।
जी हां! इन मासूम परिंदो के लिए देश का पहला चिकित्सालय दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में स्थित जैन मंदिर में खोला गया था। यहां पर लोग अपने बीमार तथा घायल पक्षियों को ला कर उनका उपचार करवाते हैं। यहां अधिकतर पंख कटे पक्षी लाए जाते हैं। बिल्ली-कुत्ते या बड़े शिकारी पक्षियों के शिकार होने से बचे या पतंग की डोर से घायल परिंदों की यहां बच्चों के समान देख-भाल की जाती है। यहां उनकी मरहम-पट्टी कर उन्हें एंटीबायटिक दवाएं दे कर उनकी जान बचाने की कोशिश की जाती है। यहां की सफाई तथा पक्षियों के आहार का विशेष ध्यान रखा जाता है। घायल पक्षी को अलग पिंजरे में रखा जाता है, जिससे अन्य पक्षी उसे नुकसान ना पहुंचा सकें। कुछ ठीक होने पर उसे एक जाली लगे कमरे में छोड़ दिया जाता है। पूर्ण रूप से ठीक होने पर उसे आजाद कर दिया जाता है।
इसी तरह का एक और अस्पताल जयपुर के सांगानेरी गेट के पास भी है। यहां आर्थिक लाभ की अपेक्षा त्याग की भावना से पूरी निष्ठा के साथ इन मूक, मासूम जीवों की निस्वार्थ सेवा कर उन्हें रोग मुक्त करने की चेष्टा की जाती है। यहां कोई भी अपने पालतु पक्षी का इलाज मुफ्त में करा सकता है।
महान थे वे लोग जिन्होंने इस बारे में सोचा और अपनी सोच को अमली जामा पहनाया। साथ ही धन्य हैं वे लोग जो निस्वार्थ रूप से जुड़े हुए हैं इस परोपकारी काम से।
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ब्लादिमीर इलिस उलयानोव ने अपने करीब ड़ेढ सौ उपनाम रखे। इन्हीं मे से एक उपनाम से वे विश्व्विख्यात भी हुए।
वह उपनाम था "लेनिन"।
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एक समय मैडम क्यूरी को फ्रेंच एकादमी ने अपना सदस्य बनाने से इंकार कर दिया था। कारण था उनका महिला होना।
उसी महिला ने दो-दो बार नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया और ऐसा करने वाली विश्व की पहली महिला बनीं।
रविवार, 12 अप्रैल 2009
हिड़िंबा, जो राक्षसी से देवी बन पूजी गयी।
जूए में हार जाने के बाद पांड़व अज्ञातवास भुगत रहे थे। जंगलों में भटकते हुए किसी तरह समय कट रहा था। ऐसे ही एक दिन जब मां कुंती समेत सब थके हारे एक वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे, एक राक्षस, जिसका नाम हिड़िंब था, की नज़र इन पर पड़ी। मानव मांस भक्षण का अवसर देख उसने अपनी बहन हिड़िंबा को इन्हें मार कर लाने का आदेश दिया। हिड़िंबा पांडवों तक आ तो गयी पर भीम का अप्रतिम सौंदर्य और पुरुषोचित रूप देख उस पर मुग्ध हो कर रह गयी। एक अपरचित नारी को सामने देख भीम ने उसका परिचय पूछा तो उसने अपनी कामना के साथ-साथ सब सच-सच बता दिया।
इतने में बहन को गये काफी वक्त हुआ देख वहां हिड़िंब भी आ धमका। बहन को मानवों से बात करता देख वह आग-बबूला हो उठा और उसने इन लोगों पर हमला कर दिया। भीषण युद्ध के बाद हिड़िंब मारा गया।
कुंती हिड़िंबा के व्यवहार से प्रभावित हुई थी। उसने हिड़िंबा का विवाह सशर्त करना स्वीकार कर लिया। शर्तें तीन थीं। पहली हिड़िंबा राक्षसी आचरण का पूरी तरह त्याग कर देगी। दूसरी, भीम दिन भर उसके पास रहेगा पर रात को हर हालत में अपने भाईयों के पास लौट आयेगा। तीसरी और सबसे अहम कि पुत्र प्राप्ति के बाद हिड़िंबा को पति से सदा के लिए अलग होना पड़ेगा। हिडिंबा ने खुशी-खुशी सारी बातें मान लीं। समयानुसार उसको पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसका नाम रखा गया घटोत्कच। जिसने बाद में महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुत्र प्राप्ति के बाद हिड़िंबा ने तपस्विनी की तरह रहते हुए अपना सारा समय अपने पुत्र के भविष्य को संवारने में लगा दिया। अपने सात्विक जीवन और तपोबल से वह जन आस्था का केन्द्र बन एक देवी के रूप में अधिष्ठित हो गयी।
इसी हिड़िंबा देवी का मंदिर हिमाचल के कुल्लू जिले के मनाली नामक स्थान पर स्थित है। कुल्लू शहर से मनाली की दूरी 40की.मी. है। वहां से सड़क मार्ग से 2की.मी. चलने पर आसानी से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। वैसे सीढियों द्वारा भी जाया जा सकता है पर वह काफी श्रमसाध्य सिद्ध होता है। घने देवदार के वृक्षों से घिरे इस स्थान पर पहुंचते ही मन को एक अलौकिक शांति का एहसास होता है। पहले यहां कफी घना जंगल था पर अब इसे सुंदर उपवन का रूप दे दिया गया है। जिसका सारा श्रेय पुरातत्व विभाग को जाता है। यह मंदिर लकड़ी की बनी एक अद्वितीय रचना है। कलाकार ने इस पर अद्भुत कारीगरी कर विलक्षण आकृतियां उकेरी हैं। यहां के निवासियों का अटूट विश्वास है कि मां हिड़िंबा उनकी हर तरह की आपदा, विपदा, अला-बला से रक्षा करती हैं। इनकी पूजा पारंपरिक ढंग से धूमधाम से की जाती है।
यह एक उदाहरण है, कि यदि कोई दृढ प्रतिज्ञ हो तो वह क्या नहीं कर सकता। हिड़िंबा ने राक्षसकुल में जन्म लिया, भीम के संसर्ग से मानवी बनी और फिर अपने तपोबल के कारण देवी होने का गौरव प्राप्त किया।
इतने में बहन को गये काफी वक्त हुआ देख वहां हिड़िंब भी आ धमका। बहन को मानवों से बात करता देख वह आग-बबूला हो उठा और उसने इन लोगों पर हमला कर दिया। भीषण युद्ध के बाद हिड़िंब मारा गया।
कुंती हिड़िंबा के व्यवहार से प्रभावित हुई थी। उसने हिड़िंबा का विवाह सशर्त करना स्वीकार कर लिया। शर्तें तीन थीं। पहली हिड़िंबा राक्षसी आचरण का पूरी तरह त्याग कर देगी। दूसरी, भीम दिन भर उसके पास रहेगा पर रात को हर हालत में अपने भाईयों के पास लौट आयेगा। तीसरी और सबसे अहम कि पुत्र प्राप्ति के बाद हिड़िंबा को पति से सदा के लिए अलग होना पड़ेगा। हिडिंबा ने खुशी-खुशी सारी बातें मान लीं। समयानुसार उसको पुत्र की प्राप्ति हुई। जिसका नाम रखा गया घटोत्कच। जिसने बाद में महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पुत्र प्राप्ति के बाद हिड़िंबा ने तपस्विनी की तरह रहते हुए अपना सारा समय अपने पुत्र के भविष्य को संवारने में लगा दिया। अपने सात्विक जीवन और तपोबल से वह जन आस्था का केन्द्र बन एक देवी के रूप में अधिष्ठित हो गयी।
इसी हिड़िंबा देवी का मंदिर हिमाचल के कुल्लू जिले के मनाली नामक स्थान पर स्थित है। कुल्लू शहर से मनाली की दूरी 40की.मी. है। वहां से सड़क मार्ग से 2की.मी. चलने पर आसानी से मंदिर तक पहुंचा जा सकता है। वैसे सीढियों द्वारा भी जाया जा सकता है पर वह काफी श्रमसाध्य सिद्ध होता है। घने देवदार के वृक्षों से घिरे इस स्थान पर पहुंचते ही मन को एक अलौकिक शांति का एहसास होता है। पहले यहां कफी घना जंगल था पर अब इसे सुंदर उपवन का रूप दे दिया गया है। जिसका सारा श्रेय पुरातत्व विभाग को जाता है। यह मंदिर लकड़ी की बनी एक अद्वितीय रचना है। कलाकार ने इस पर अद्भुत कारीगरी कर विलक्षण आकृतियां उकेरी हैं। यहां के निवासियों का अटूट विश्वास है कि मां हिड़िंबा उनकी हर तरह की आपदा, विपदा, अला-बला से रक्षा करती हैं। इनकी पूजा पारंपरिक ढंग से धूमधाम से की जाती है।
यह एक उदाहरण है, कि यदि कोई दृढ प्रतिज्ञ हो तो वह क्या नहीं कर सकता। हिड़िंबा ने राक्षसकुल में जन्म लिया, भीम के संसर्ग से मानवी बनी और फिर अपने तपोबल के कारण देवी होने का गौरव प्राप्त किया।
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
कुछ इधर की कुछ बहुत उधर की
* मरने के बाद भी वह शासन करता रहा -
* पोपाई द सेलर का जीता जागता रूप -
* शव यात्रा, जो साल भर तक चली -
* खानदानी असर -
* अस्थिर दिमाग का अनोखा उदाहरण -
फ्रेंच कोंगो के कोंडे प्रदेश के शासक, 'कोकोडो, के मरने के बाद उसका शव एक चौकोर कौफीन में तीन साल तक रख छोडा गया था। उसे भोजन और पैसा उपलब्ध कराया जाता रहा था। ऐसा इसलिए की वह आराम से सोच सके की उसे मृत रहना है की नहीं।
नोट :- उसने मृत रहने का ही निर्णय लिया।* पोपाई द सेलर का जीता जागता रूप -
जापान के डाक्टर काकुजी योशीदा ने बच्चों को स्वस्थ रखने का गुर सिखाने के लिए एक अनोखा कारनामा किया। उन्होंने ६ साल में करीब ८२८० पाउंड पालक खाई। तकरीबन तीन पाउंड रोज। उनका कहना था इससे वे खुद को भी स्वस्थ और तरोताजा रख सके थे।
* शव यात्रा, जो साल भर तक चली -
चीन के एक जनरल की शवयात्रा, पेकिंग से चल कर काश्गार, सिंकियांग तक गयी थी। जिनके बीच की दूरी २३०० मील थी। यह यात्रा एक जून १९१२ से शुरू हो कर एक जून १९१३ तक चलती रही थी।
* खानदानी असर -
बीमारी इत्यादि का असर तो सुना है, पीढियों तक चलता है। पर इसको क्या कहेंगे जब वाशिंगटन के रोजलिन इलाके के विलियम लुमस्देंन ने अपना बायाँ हाथ एक एक्सीडेंट में खोया तो वह अपने खानदान की चौथी पीढी का ऐसा सदस्य बन गया। इसके पहले उसके परदादा, दादा और पिता उसी की उम्र में अपना बायाँ हाथ किसी न किसी हादसे में गंवा चुके थे।
* अस्थिर दिमाग का अनोखा उदाहरण -
बेल्जियम की एड्रियेंन कुयोत की २३ सालों में ६५२ बार मंगनी था ५३ बार शादी हुई। पर वह कभी भी स्थिर दिमाग नहीं रह पायी और ओसत हर १२ वें दिन उसने अपना मन बदल कर सम्बन्ध तोड़ लिए।
******इधर खुदा है, उधर खुदा है, सामने खुदा है, पीछे खुदा है, अगल खुदा है, बगल खुदा है। ******
******जहाँ नहीं खुदा है, वहाँ कल खुदेगा। हाय रे मेरा शहर!!!!!!!!!सोमवार, 6 अप्रैल 2009
प्रह्लाद जैसा भाग्य एलेक्सिस का नहीं था
यह कहानी सदियों पहले हमारे देश में घटी, प्रह्लाद की कहानी से मिलती-जुलती है। पर अंत में जहां प्रह्लाद को भगवान का सहारा मिल गया था। वैसा खुशनसीब एलेक्सिस नहीं रहा-------- रूस, जहां हुआ एक तानाशाह, नाम पीटर। आतंक का जीता-जागता रूप। जिसने खुद को ईश्वर घोषित कर रखा था। जिसके शासन काल में हजारों लोगों को अपनी जानें गंवानी पड़ी थीं। जो अपना जरा सा भी विरोध सहन नहीं कर पाता था। उसी पीटर का एकमात्र बेटा था, एलेक्सिस। बाप से बिल्कुल विपरीत, शांत, दयालू, विनम्र था जनता का लाड़ला। देशवासी उसे अपनी जान से भी ज्यादा चाहते थे। और यही कारण था कि पीटर के शंकालू मन में अपने ही बेटे के प्रति ईर्ष्या उत्पन्न होती चली गयी। यहां तक कि वह अपनी पत्नि, यूडेसिआ, से भी घृणा करने लगा जिसने ऐसे पुत्र को जन्म दिया। बात इतनी बिगड़ गयी कि एक दिन एलेक्सिस की अनुपस्थिति में उसने यूड़ेसिया को बंदीगृह में डाल दिया। लौटने पर जब एलेक्सिस को यह पता चला तो वह शोकग्रस्त हो गया। वैसे भी उसे अपने पिता की कार्यप्रणाली से नफरत थी, पर वह अपने पिता को चाहता भी था। इसीलिए वह जनता की भलाई में लगा रहता था, जिससे लोगों में उसके पिता के प्रति नफरत कम हो जाए। पर होता इसका उल्टा ही रहा। वह जनता में लोकप्रिय होता चला गया और पीटर बदनाम। इससे पीटर की क्रोधाग्नि और भड़कती चली गयी। उसे यह सब अपने विरुद्ध षड़यंत्र लगता था। उसके शक को उसके चापलूस दरबारी और हवा देते रहते थे। अंत में पीटर ने एलेक्सिस का महल से बाहर निकलना बंद करवा दिया और धीरे-धीरे उसे मदिरा की लत लगवा दी। यह सब देख पीटर के एक मंत्री ने भविष्य भांप कर अपनी बेटी, कैथरिन, की शादी पीटर से करवा दी जिससे उसके पुत्र को राज मिल सके। कैथरिन बहुत चालाक और महत्वाकांक्षी थी। उसने पीटर को अपने मोह पाश में जल्दि ही फंसा लिया। उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम भी पीटर ही रखा गया। अब एलेक्सिस को अपनी राह से हटाने की कोशिशें तेज हो गयीं। एक बार उसे मदिरा में जहर मिला कर दिया गया पर दैवयोग से वह विषयुक्त मदिरा उसके एक सेवक ने पी ली, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। फिर एक बार एलेक्सिस के कमरे में विस्फोटक पदार्थ रख दिए गये पर इस बार भी बाहर रहने की वजह से वह बच गया। धीरे-धीरे एलेक्सिस को अपने पिता और सौतेली मां के षड़यंत्रों की जानकारी मिलने लगी तो उसने रूस छोड़ने का ही मन बना लिया। उसने अपने इस फैसले की जानकारी अपने पिता को दे कर कहा कि मुझे सिंहासन से कोई लगाव नहीं है, मैं कोई अधिकार भी नहीं चाहता, मुझे सिर्फ यहां से चले जाने की आज्ञा दे दी जाए। परंतु शक्की पीटर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। अत: एक रात एलेक्सिस अपनी पत्नि के साथ महल छोड़ निकल पड़ा और रोम में शरण ली। परंतु वहां भी पीटर ने उसका पीछा नहीं छोड़ा और अपने जासूसों से उसका अपहरण करवा फिर रूस ले आया और बंदीखाने में ड़ाल दिया। इतने से भी उसका मन नहीं भरा और उसने एलेक्सिस को कठोर यातनाएं देनी शुरु कर दीं। पर उसके जिंदा रहने से कैथरिन को अपना भविष्य अंधकारमय लगने लगा था सो उसने पीटर को उकसा कर एलेक्सिस पर राजद्रोह का इल्जाम लगवा उसे मृत्युदंड़ दिलवा दिया। फांसी पर चढते समय एलेक्सिस ने रोते हुए कहा कि मुझे मरने का ना दुख है ना खौफ। मुझे एक ही बात का गम है कि मैं अपने ही पिता को यह विश्वास नहीं दिला पाया कि मैं उनका दुश्मन नहीं हूं।
रविवार, 5 अप्रैल 2009
थका-हारा, लस्त-पस्त कौवा कितने कंकड़ ला सकता था ?
छुटपन से पढ़ते आ रहे हैं की चतुर कौवे ने कंकड़ ला-ला कर घडा भरा और अपनी प्यास बुझाई। पर सोचने की बात है की क्या सचमुच थके-बेहाल कौवे ने इतनी मेहनत की होगी, या कुछ और बात थी। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ था ------------
बात कुछ पुरानी है। कौआ सभी पशु-पक्षियों में चतुर सुजान समझा जाता था। उसकी बुद्धिमत्ता की धाक चारों ओर फैली हुई थी। ऐसे ही वक्त बीतता रहा। समयानुसार गर्मी का मौसम भी आ खड़ा हुआ, अपनी पूरी प्रचंडता के साथ। सारे नदी-नाले -पोखर-तालाब सूख गए। पानी के लिए त्राहि- त्राहि मच गई। ऐसे ही एक दिन हमारा कौवा पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। उसकी जान निकली जा रही थी। पंख जवाब दे रहे थे। कलेजा मुहँ को आ रहा था। तभी अचानक उसकी नजर एक झोंपडी के बाहर पड़े एक घडे पर पड़ी। वह तुरंत वहां गया, उसने घड़े में झांक कर देखा, उसमे पानी तो था पर एक दम तले में। उसकी पहुँच के बाहर। कौवे ने अपनी अक्ल दौडाई और पास पड़े कंकडों को ला-ला कर घडे में डालना शुरू कर दिया। परन्तु एक तो गरमी दुसरे पहले से थक कर बेहाल ऊपर से प्यास। कौवा जल्द ही पस्त पड़ गया । अचानक उसकी नजर झाडी के पीछे खड़ी एक बकरी पर पड़ी जो न जाने कब से इसका क्रिया-कलाप देख रही थी। यदि बकरी ने उसकी नाकामयाबी का ढोल पीट दिया तो ? कौवा यह सोच कर ही काँप उठा। तभी उसके दिमाग का बल्ब जला और उसने अपनी दरियादिली का परिचय देते हुए बकरी से कहा कि कंकड़ डालने से पानी काफी ऊपर आ गया है तुम ज्यादा प्यासी लग रही हो सो पहले तुम पानी पी लो। बकरी कौवे की शुक्रगुजार हो आगे बढ़ी पर घडे से पानी ना पी सकी। कौवे ने फिर राह सुझाई कि तुम अपने सर से टक्कर मार कर घडा उलट दो इससे पानी बाहर आ जायेगा तो फिर तुम पी लेना। बकरी ने कौवे के कहेनुसार घडे को गिरा दिया। घडे का सारा पानी बाहर आ गया, दोनों ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई।
बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है। नहीं तो क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आता है ?
बात कुछ पुरानी है। कौआ सभी पशु-पक्षियों में चतुर सुजान समझा जाता था। उसकी बुद्धिमत्ता की धाक चारों ओर फैली हुई थी। ऐसे ही वक्त बीतता रहा। समयानुसार गर्मी का मौसम भी आ खड़ा हुआ, अपनी पूरी प्रचंडता के साथ। सारे नदी-नाले -पोखर-तालाब सूख गए। पानी के लिए त्राहि- त्राहि मच गई। ऐसे ही एक दिन हमारा कौवा पानी की तलाश में इधर-उधर भटक रहा था। उसकी जान निकली जा रही थी। पंख जवाब दे रहे थे। कलेजा मुहँ को आ रहा था। तभी अचानक उसकी नजर एक झोंपडी के बाहर पड़े एक घडे पर पड़ी। वह तुरंत वहां गया, उसने घड़े में झांक कर देखा, उसमे पानी तो था पर एक दम तले में। उसकी पहुँच के बाहर। कौवे ने अपनी अक्ल दौडाई और पास पड़े कंकडों को ला-ला कर घडे में डालना शुरू कर दिया। परन्तु एक तो गरमी दुसरे पहले से थक कर बेहाल ऊपर से प्यास। कौवा जल्द ही पस्त पड़ गया । अचानक उसकी नजर झाडी के पीछे खड़ी एक बकरी पर पड़ी जो न जाने कब से इसका क्रिया-कलाप देख रही थी। यदि बकरी ने उसकी नाकामयाबी का ढोल पीट दिया तो ? कौवा यह सोच कर ही काँप उठा। तभी उसके दिमाग का बल्ब जला और उसने अपनी दरियादिली का परिचय देते हुए बकरी से कहा कि कंकड़ डालने से पानी काफी ऊपर आ गया है तुम ज्यादा प्यासी लग रही हो सो पहले तुम पानी पी लो। बकरी कौवे की शुक्रगुजार हो आगे बढ़ी पर घडे से पानी ना पी सकी। कौवे ने फिर राह सुझाई कि तुम अपने सर से टक्कर मार कर घडा उलट दो इससे पानी बाहर आ जायेगा तो फिर तुम पी लेना। बकरी ने कौवे के कहेनुसार घडे को गिरा दिया। घडे का सारा पानी बाहर आ गया, दोनों ने पानी पी कर अपनी प्यास बुझाई।
बकरी का मीडिया में काफी दखल था। उसने कौवे की दरियादिली तथा बुद्धिमत्ता का जम कर प्रचार किया। सो आज तक कौवे का गुणगान होता आ रहा है। नहीं तो क्या कभी कंकडों से भी पानी ऊपर आता है ?
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
ऊँट, प्रकृति की एक अजूबी करामात
ऊंट के बारे में हम बचपन से ही पढते-सुनते आए हैं। फिर भी प्रकृति के इस अजीबोगरीब जानवर के बारे में लगता है कि इसे हम पूर्णतया नहीं जान पाए हैं। आईए देखें इसको सूक्ष्मदर्शी से :-
ऊंट के होंठ खरगोश की तरह के होते हैं।
इसके दांत और पेट चूहे से मेल खाते हैं।
इसके पैर हाथी से मिलते-जुलते होते हैं।
इसकी गर्दन हंस जैसी होती है।
इसका खून पक्षियों जैसा होता है और इसका पित्ताशय (gall bladder) नहीं होता।
यह पलकें बंद कर भी देख सकता है।
यह अपने नथुने बालू के बवंडर में बंद कर रह सकता है।
यह अपने पेट और कूबड़ में पानी जमा कर, बिना पानी बहुत दिनों तक रह सकता है। यह तो बहुत से लोगों को मालुम है। पर स्वच्छ जल इसके लिए हानिकारक हो सकता है। इसे खारा पानी ज्यादा पसंद है, यह कम ही लोगों को मालुम होगा।
इसकी पलकों पर मुलायम रेशमी बाल होते हैं जो इसकी आंखों को सूर्य की चकाचौंध से बचाते हैं।
किसी मरे हुए ऊंट को देख कर इसकी हालत बिगड़ जाती है।
कहते हैं कि एक बार पूराने जमाने में कोई व्यापारी इस पर दूध लाद कर ले जा रहा था। इसकी अजीबोगरीब चाल से धचके लग-लग कर दूध, मक्खन में बदल गया। इस तरह मनुष्य के लिए अमृत समान एक पौष्टिक खुराक की ईजाद हुई।
जानवरों के विशेषज्ञ, जिन्होंने अपनी जिंदगी ऊंटों के अध्ययन में गुजार दी, उनका भी मानना है कि वे इस जानवर के बारे में अधिक नहीं जानते। तो फिर हम कहां टिकते हैं।
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
अजब-गजब दुनिया ( - :
हमारी दुनिया अजूबों से भरी पड़ी है। कभी-कभी तो विश्वास ही नहीं होता कि क्या ऐसा भी हो सकता है ? आज बाप-बेटों के कुछ नमूने देखें -
मोरोक्को के शाह, मुलाइ ईस्माइल (1646-1727) के 888 बच्चे थे। उसकी सेना की एक रेजिमेंट थी जिसमें 540 सैनिक थे और वे सारे के सारे उसके बेटे थे।
टर्की के सुल्तान, मुस्तफा IV (1717-1774) के 582 बच्चे थे। सारे के सारे लड़के। सत्रह सालों तक कन्या पाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार साबित हुईं।
सुल्तान अब्दुल हमीद II, (1876-1909) के सिर्फ 500 के करीब बच्चे थे। आश्चर्य इस बात का नहीं है, आश्चर्य इस बात का है कि उसकी 30,000 पत्नियां थीं।
पोलैंड के अगस्ट II और सैक्सोनी (1670-1733) के 355 बच्चे थे, जिनमें 354 नाजायज औलादें थीं। एकमात्र जायज बेटा अगस्ट III था, जो बाद में राजा बना।
फ्रांस में बोरडिक्स के जीन गाई साहब की किस्मत देखिए। उन्होंने 16 बार शादी की। हर बार वधू अपने साथ अपने बच्चों को लाई। अंत में इन्होंने जब सारे बच्चों का हिसाब लगाया तो पाया कि वे 121 बच्चों के सौतेले पिता हैं।
अंत में फ्रांस के ही पुयी-दि-डोम के जैक्स दि थियर्स (1630-1747) की खुशकिस्मति देखिए। इनके 25 लड़के और एक लड़की थी। इनका प्रत्येक बेटा फ्रांस की सेना में कर्नल बना। हरेक ने युद्ध में अपनी-अपनी रेजिमेंट के साथ लड़ते हुए नाम कमाया। युद्ध के बाद लुइस XIV ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दिया जिसमें उल्लेख था कि इन 25 थियर्स भाईयों, जो कि श्रीमान जैक्स थियर्स के बेटे हैं के कारण ही युद्ध जीता जा सका। गर्वोनत जैक्स थियर्स ने 117 साल की उम्र प्राप्त की।
मोरोक्को के शाह, मुलाइ ईस्माइल (1646-1727) के 888 बच्चे थे। उसकी सेना की एक रेजिमेंट थी जिसमें 540 सैनिक थे और वे सारे के सारे उसके बेटे थे।
टर्की के सुल्तान, मुस्तफा IV (1717-1774) के 582 बच्चे थे। सारे के सारे लड़के। सत्रह सालों तक कन्या पाने की उसकी सारी कोशिशें बेकार साबित हुईं।
सुल्तान अब्दुल हमीद II, (1876-1909) के सिर्फ 500 के करीब बच्चे थे। आश्चर्य इस बात का नहीं है, आश्चर्य इस बात का है कि उसकी 30,000 पत्नियां थीं।
पोलैंड के अगस्ट II और सैक्सोनी (1670-1733) के 355 बच्चे थे, जिनमें 354 नाजायज औलादें थीं। एकमात्र जायज बेटा अगस्ट III था, जो बाद में राजा बना।
फ्रांस में बोरडिक्स के जीन गाई साहब की किस्मत देखिए। उन्होंने 16 बार शादी की। हर बार वधू अपने साथ अपने बच्चों को लाई। अंत में इन्होंने जब सारे बच्चों का हिसाब लगाया तो पाया कि वे 121 बच्चों के सौतेले पिता हैं।
अंत में फ्रांस के ही पुयी-दि-डोम के जैक्स दि थियर्स (1630-1747) की खुशकिस्मति देखिए। इनके 25 लड़के और एक लड़की थी। इनका प्रत्येक बेटा फ्रांस की सेना में कर्नल बना। हरेक ने युद्ध में अपनी-अपनी रेजिमेंट के साथ लड़ते हुए नाम कमाया। युद्ध के बाद लुइस XIV ने उन्हें प्रशस्ति पत्र दिया जिसमें उल्लेख था कि इन 25 थियर्स भाईयों, जो कि श्रीमान जैक्स थियर्स के बेटे हैं के कारण ही युद्ध जीता जा सका। गर्वोनत जैक्स थियर्स ने 117 साल की उम्र प्राप्त की।
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