इस ब्लॉग में एक छोटी सी कोशिश की गई है कि अपने संस्मरणों के साथ-साथ समाज में चली आ रही मान्यताओं, कथा-कहानियों को, बगैर किसी पूर्वाग्रह के, एक अलग नजरिए से देखने, समझने और सामने लाने की ! इसके साथ ही यह कोशिश भी रहेगी कि कुछ अलग सी, रोचक, अविदित सी जानकारी मिलते ही उसे साझा कर ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जा सके ! अब इसमें इसको सफलता मिले, ना मिले, प्रयास तो सदा जारी रहेगा !
रविवार, 27 जुलाई 2008
तसलीमा के मुखौटे के पीछे का चेहरा
माफी चाहता हूं, इस विषय पर लिखना नहीं चाहता था पर तसलीमा नसरीन का यह रूप उजागर करने से रोक भी तो नहीं पा रहा था खुद को। मेरे जीवन का बडा हिस्सा अपने बंगाल मे बीता है,बहुत नजदीक से जाना है मैने वहां के लोगों को। वहां से जब इस लेखिका का निष्काशन हुआ तो आश्चर्य हुआ था मुझे क्योंकि तसलीमा की जो छवि थी वह एक पुरुष प्रधान समाज से लडती नारी की थी और वहां के वासी अन्याय सहन नही करते, फिर भी किसी ने इस महिला के पक्ष मे आवाज नहीं उठाई। परन्तु दिल्ली से प्रकाशित होने वाली एक प्रतिष्ठित पत्रिका, जिसकी तसलीमा स्तंभ लेखिका हैं, के जुलाई के अंक मे समलैंगिकता के पक्ष मे छपे नसरीन के लेख ने मुझे जोर का झटका और जोर से दे डाला। उनके लेख के कुछ अंश तो यहां लिखे जाने लायक भी नहीं हैं, फिर भी भरसक बचते हुए उन्ही के कुछ शब्दों को उद्धृत कर रहा हूं "समलैगिकों को अब बाहर निकलकर आना होगा। जितने दिनों तक ये लोग घर के अंदर बंद रहेंगे, उतने दिनों तक लोगों को उनके प्रति नफ़रत उगलने मे सहूलियत होगी।" ---"हर इनसान को यह अधिकार है कि वह अपनी कामना पूर्ती के लिये अपना साथी खुद चुने और उसके साथ रहे। मेरे अधिकांश सम* साथी एक साथ रहते हैं और त्याग कर प्यार की कद्र करते हैं।" हमारी अरब पार आबादी मे हर तरह के लोग हैं अच्छाई मे बुराई देखने वाले, बुराई को अच्छाई बताने वाले, भले को बुरा समझने वाले, बुरे को भला बनाने वाले। तो ऐसे देश मे किसी को भी रहना सुहाता है क्योंकि यहां कोई किसी का कत्ल भी कर देता है तो उसे बचाने के लिये सैंकडों हाथ आगे आ जाते हैं। चाहे समाज विरोधी हो या देशद्रोही उसे संरक्षण देने के लिये उसके पीछे लाईन लग जाती है। इसीलिये जितने भी तथाकथित लेखक या पेंटर हैं वह सब वापस आना चाहतें हैं इस सहिष्णु देश मे।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
विशिष्ट पोस्ट
प्रेम, समर्पण, विडंबना
इस युगल के पास दो ऐसी वस्तुएं थीं, जिन पर दोनों को बहुत गर्व था। एक थी जिम की सोने की घड़ी, जो कभी उसके पिता और दादा के पास भी रह चुकी थी और...
-
कल रात अपने एक राजस्थानी मित्र के चिरंजीव की शादी में जाना हुआ था। बातों ही बातों में पता चला कि राजस्थानी भाषा में पति और पत्नी के लिए अलग...
-
शहद, एक हल्का पीलापन लिये हुए बादामी रंग का गाढ़ा तरल पदार्थ है। वैसे इसका रंग-रूप, इसके छत्ते के लगने वाली जगह और आस-पास के फूलों पर ज्याद...
-
आज हम एक कोहेनूर का जिक्र होते ही भावनाओं में खो जाते हैं। तख्ते ताऊस में तो वैसे सैंकड़ों हीरे जड़े हुए थे। हीरे-जवाहरात तो अपनी जगह, उस ...
-
चलती गाड़ी में अपने शरीर का कोई अंग बाहर न निकालें :) 1, ट्रेन में बैठे श्रीमान जी काफी परेशान थे। बार-बार कसमसा कर पहलू बदल रहे थे। चेहरे...
-
हनुमान जी के चिरंजीवी होने के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिए पिदुरु के आदिवासियों की हनु पुस्तिका आजकल " सेतु एशिया" नामक...
-
युवक अपने बच्चे को हिंदी वर्णमाला के अक्षरों से परिचित करवा रहा था। आजकल के अंग्रेजियत के समय में यह एक दुर्लभ वार्तालाप था सो मेरा स...
-
विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा। हमारे तिरंगे के सम्मान में लिखा गया यह गीत जब भी सुनाई देता है, रोम-रोम पुल्कित हो जाता ...
-
"बिजली का तेल" यह क्या होता है ? मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि बिजली के ट्रांस्फार्मरों में जो तेल डाला जाता है वह लगातार ...
-
कहते हैं कि विधि का लेख मिटाए नहीं मिटता। कितनों ने कितनी तरह की कोशीशें की पर हुआ वही जो निर्धारित था। राजा लायस और उसकी पत्नी जोकास्टा। ...
-
अपनी एक पुरानी डायरी मे यह रोचक प्रसंग मिला, कैसा रहा बताइयेगा :- काफी पुरानी बात है। अंग्रेजों का बोलबाला सारे संसार में क्यूं है? क्य...
4 टिप्पणियां:
तस्लीमा के समलैंगिकों के समर्थन मे लिखे गए इस वक्तव्य में आप को क्या बुरा लगा, यह तो आप ने बताया नहीं। यह उस के मुखौटे के पीछे छुपा चेहरा कैसे हुआ। क्या आप के मन में उस के प्रति कोई और इमेज थी। उस का तो चेहरा भी यही है, और मुखौटा भी यही है - आप को बुरा लगे या भला। उस के लेखन का मैं बहुत बड़ा प्रशंसक नहीं हूँ, पर अपने विचारों को समाज के डर के बावजूद सामने रखने के लिए जो हिम्मत चाहिए वह तस्लीमा में है, यह मैं तस्लीम करता हूँ। आप के या मेरे विचार उस के विचारों से भिन्न हैं तो क्या हुआ?
प्रकृति के कुछ नियम हैं कुछ कायदे हैं, उन्हीं पर चलना उनको अपनाए रखने मे ही सृष्टी की भलाई है। सैकडों हजारों तरह के जीव-जंतुओं मे कभी इस तरह की अमर्यादित हरकत ना देखने मे आयी ना सुनने मे। पेड- पौधों मे भी मर्यादित क्रियाएं ही होती हैं। इंसान ही है जो हर मर्यादा को तोडने पर तुला है। आज इंसानों के आपसी सम्बंधों के हिमायती सामने आ रहे हैं, कल एक कदम आगे बढे हुए लोगों के लिये भी जनमत तैयार खडा होगा।
.
शुरुआती दौर की चंद सफलताओं के बाद
जैसे यह औरत जैसे किसी मनोविकृति की
शिकार हो गयी हो ? विवादों से इतना प्रेम
है, कि कुछ भी लिख दे, भरोसा नहीं !
अमर जी,
पूर्णतया सहमत
एक टिप्पणी भेजें