शनिवार, 26 जुलाई 2008

संवेदनहीन होते हम

कल बेंगलूर और आज अहमदाबाद ----- फिर वही वहशत, वही दरिंदगी, वही हैवनियत, वही बेगुनाहों की लाशें, वही मौत का नंगा नाच। जो मरे और जो सैकडों की तादाद मे घायल हुये, क्या कसूर था उनका। किस खता की सजा उन्हें दी गयी। जिन्होने यह सब किया वे तो जो हैं वो तो दुनिया जानती है। पर दुनिया जो शायद नहीं जानती वो यह है कि हम संवेदनहीन हो गये हैं, कोई व्याधि हमं नहीं व्याप्ति। हमारा विरोध सिर्फ़ चैनल बदल-बदल कर और ज्यादा रोमांचक दृश्य देखने तथा मूंह से अफ़सोसजनक शब्द निकालने तक ही रह गया है। इसी का फ़ायदा उठा रहे हैं ये तथाकथित न्यूज वाले। नकल करने के लिये हमारा आदर्श अमेरिका है। पर उसी अमेरिका मे 9/11 को जब दहशत का ज्वालामुखी फटा था तो वहां पूरा देश गम के बादलों के अंधेरे मे एकजुट हो आंसू बहा रहा था। मनोरंजन तो दूर टी वी पर सिर्फ खबरें थीं सिर्फ खबरें। पर हमारे यहां चैनलों के लिये यही वह समय होता है जब विज्ञापन छप्पर फाड कर और दुगनी तिगुनी कीमतों पर हथियाए जाते हैं। मातमी चेहरों का मुखौटा लगाए सारे न्यूज चैनलों के संवाद दाता हर दो मिनट के बाद हमें पांच मिनट के खुशनुमा विज्ञापनों को झेलने के लिये छोड चल देते हैं। हम भी दो मिनट देख अफसोस के दो शब्द बोल, सरकार के सिर जिम्मेदारी मढ किसी और चैनल की तरफ बढ जाते हैं। क्योंकि संवेदना खत्म हो चुकी है हमारे मे।

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

एक दम सही लिखा।
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