गुरुवार, 17 जुलाई 2008

सुंदरवन में इंसानी जिंदगी

संसार में सुंदरवन अकेली जगह है, जो करीब 500 शेरों (बाघों) का आश्रय स्थल है। एक ही स्थान पर शायद ही इतने शेर कहीं और पाए जाते हों। पर यहां इंसान भी बसते हैं,  जो मजबूर हैं, यहां रहने के लिए, दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए।                

संसार में सुंदरवन अकेली जगह है, जहां शेर लगातार आदमी का शिकार करते रहतें हैं। हर साल करीब 50 से 60 लोग यहां शेरों के मुंह का निवाला बन जाते हैं। वहां के लोग किन परस्थितियों में जी रहे हैं इसका रत्ती भर अंदाज भी बाहर की दुनिया को नही है। यहां आकर तो लगता है कि जानवर ही नहीं आदमी को भी बचाने, संरक्षण देने की जरूरत है।
             
सुंदरवन करीब 500 शेरों (बाघों) का आश्रय स्थल है। एक ही स्थान पर शायद ही इतने शेर कहीं और पाए जाते हों। पर यहां इंसान भी बसते हैं,  जो मजबूर हैं, यहां रहने के लिए, दहशत भरी जिंदगी जीने के लिए।  रोजी-रोटी, परिवार को पालने की जिम्मेदारी जो है सर पर। समुद्र के पास होने के कारण यहां ज्वार-भाटा काफी भयंकर रूप से उठता है जिससे शेरों को अपना शिकार खोजने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती है। दूसरी तरफ यहां रहने वाले लोगों का जीवनयापन नदी से प्राप्त होने वाली मछलियों और जंगल की वनोत्पजों पर निर्भर करता है। इसीलिए जंगलों से आना-जाना उनकी मजबूरी है जिसका  फ़ायदा यहां के वनराज को मिलता है। वैसे भी जंगली जानवरों के शिकार की बनिस्पत मानव को अपना भोजन बनाना बहुत आसान है, इसीलिए यहां के शेर आसानी से मनुष्य भक्षी बन जाते हैं। पानी के पास रहते-रहते ये अच्छे तैराक भी हो गए हैं। जिससे ये इतने निडर हो गए हैं कि मौका पाते ही नाव में सवार मछुआरों पर भी हमला करने से नहीं झिझकते।

सरकार ने और यहां के रहवासियों ने अपने-अपने स्तर पर इस आपदा से बचने के लिए कुछ इंतजाम किए भी हैं, जिससे हमले से मरने वालों की संख्या में कमी भी आई है। शेर हरदम मनुष्य पर पीछे से हमला करता है, खासकर रीढ़ की हड्डी पर।  इसीलिए सरकारी कर्मचारी कमर से लेकर गरदन तक का एक मोटा पैड सा पहने रहते हैं जिससे काफी हद तक हमले की गंभीरता कम हो जाती है। यहां के लोग जंगल में या नौका में आते-जाते समय अपने चहरे के पीछे, गरदन के ऊपर एक मुखौटा लगा कर चलते हैं। जिससे शेर को लगे कि सामने वाला मुझे देख रहा है, पर वह ज्यादा देर
धोखे में नहीं रहता और हमला कर देता है। इसके अलावा यहां के निवासी पूजा-पाठ में भी बहुत विश्वास करते हैं इसीलिए अपने रोजगार पर निकलने के पहले वनदेवी जिसे स्थानीय भाषा में "बोनदेवी" कहते हैं (बंगला भाषा में 'वन' का उच्चारण 'बोन' होता है ) की पूजा-अर्चना कर निकलते हैं। पर कहीं न कहीं, कभी न कभी भिड़ंत हो ही जाती है। दोनों की मजबूरी है, कोई भी पक्ष अपनी रिहाइश छोड़ और कहीं जा नहीं सकता। शेरोन पर तो यह एक तरह से दोहरी मार है।  इनकी प्रजाति पर पहले से ही "पोचरों"  से   खतरा बना  हुआ था,  उस पर अब  एक और गंभीर समस्या

बढ़ती जा रही है। धीरे-धीरे यहां के मनुष्यों और शेरों में एक अघोषित युद्ध शुरू हो चुका है। जैसे ही कोई मानव शेर का शिकार करता है वैसे ही शेर से बदला लेने की कोशिशें शुरू हो जाती हैं। यह बात दोनों ही पक्षों के लिए घातक हैं। इस आपसी भिड़ंत को ख़त्म या कम करने के लिए अभी तक आजमाए गए उपायों का बहुत ही कम असर हुआ है।  फिर भी कुछ न कुछ उपाय किए ही जा रहे हैं जैसे घने जंगल में तार का घेराव या फिर शेरों को उनके भोजन के लिए जानवरों की उपलब्धता इत्यादि। पर पूर्णतया कारगर कोई उपाय अभी सामने नहीं आया है।   

2 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

सही बात है ऐसे हादसो से सबक लेना चाहिए ताकि जानवरो के साथसाथ इन्सानों की जान बचाने की भी कोशिश की जानी चाहिए।

Udan Tashtari ने कहा…

दोनों स्थितियाँ ही विकट हैं. एक तरफ मानव और दूसरी तरफ विलुप्त होती जीव प्रजाति-सामन्जस्यपूर्ण हल की दरकार है.

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