मंगलवार, 29 जुलाई 2025

एक कांवड़ यात्रा दक्षिण में भी

कांवड़ सांसारिक उत्तरदायित्व का प्रतीक है। शिव जी ने हलाहल पान कर सृष्टि की रक्षा की थी और भगवान कार्तिकेय ने देवताओं के सेनापति के रूप में संसार विरोधी ताकतों का शमन कर जगत को भय मुक्त किया था ! शिव और मुरुगन यानी पिता-पुत्र की उपासना से संबंधित ये दोनों यात्राऐं जहां देश की एकजुटता को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही साथ सनातन की विशालता और व्यापकता का भी एहसास दिला जाती हैं.........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

सावन के पवित्र महीने में उत्तर भारत में हर साल शिव भक्त पदयात्रा कर, सुदूर स्थानों से नदियों का जल ला कर शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं ! इस पारंपरिक यात्रा को कांवड़ यात्रा कहा जाता है। बांस की बनी जिस बंहगी के दोनों सिरों पर जलपात्र लटका कर लाया जाता है उसे कांवड़ कहते हैं ! 

कावड़ी यात्रा 
धर उत्तर भारत से बहुत दूर तमिलनाडु में भी इसी से मिलती-जुलती एक यात्रा निकलती है ! इसमें भगवान शिव और माता पार्वती के बड़े पुत्र कार्तिकेय, जिन्हें वहां मुरुगन और अयप्पा भी कहा जाता है, उनसे जुड़े त्योहार थाईपुसम में इनके भक्त कांवड़ समान कावडी, जिसे छत्रिस भी कहते हैं, अपने कंधों पर उठाकर चलते हैं। कावडी‌ मोर पंखों, फूलों तथा अन्य चीजों से सुसज्जित होती है, पर कांवड़ की तरह इसमें पानी के मटके नहीं टंगे होते। 

दक्षिण के कावड़िए 
कार्तिकेय जी की पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिलनाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल प्रवासी रहते हैं, वहां भी इनकी बहुत मान्यता है ! तमिल भाषा में इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित किया जाता है। तमिलनाडु में पलानी शहर में शिवगिरी पर्वत नामक दो पहाड़ियों की ऊंची चोटी पर मौजूद भगवान मुरुगन का प्रमुख मंदिर है, जिसे पंचामृत का पर्याय माना जाता है, ऐसी मान्यता है कि मूल मूर्ति बोग सिद्धर द्वारा जहरीली जड़ी-बूटियों का उपयोग करके बनाई गई है।

पलानी में थाईपुसम उत्सव 
र साल हजारों भक्त पवित्र थाईपुसम उत्सव के दौरान विशेष रूप से छत्रिस उठा कर, नाचते-गाते, 'वेल वेल शक्ति वेल' का जाप करते पलानी मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं। कुछ भक्त कावंड़ के रूप में दूध का एक बर्तन लेकर भी चलते हैं। 

श्रद्धा व विश्वास  

थाईपुसम त्योहार भगवान मुरुगन के प्रति समर्पण का उत्सव है ! इस त्योहार में सबसे कठिन तपस्या वाल कांवड़ है। वाल कांवड़ लगभग दो मीटर लंबा और मोर पंखों से सजा हुआ होता है। इसे भक्त अपनी शरीर से जोड़ लेते हैं। ये भक्त भगवान की भक्ति में इतने लीन रहते हैं कि इन्हें किसी भी तरह की दर्द, तकलीफ का अहसास तक नहीं होता। वहीं इस क्रिया में ना हीं खून निकलता है और ना हीं बाद में शरीर पर कोई निशान बचा रहता है !


आस्था व समर्पण 

कांवड़ सांसारिक उत्तरदायित्व का प्रतीक है। शिव जी ने हलाहल पी कर सृष्टि की रक्षा की थी और भगवान कार्तिकेय ने देवताओं के सेनापति के रूप में संसार विरोधी ताकतों का शमन कर जगत को भय मुक्त किया था ! शिव और मुरुगन यानी पिता-पुत्र की उपासना से संबंधित ये दोनों यात्राऐं जहां देश की एकजुटता को तो दर्शाती ही हैं, साथ ही साथ सनातन की विशालता और व्यापकता का भी एहसास दिला जाती हैं !

@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से 

मंगलवार, 22 जुलाई 2025

उपेक्षित जन्मस्थली, रानी लक्ष्मीबाई की

जो स्थान या स्मारक प्रत्येक भारतीय के लिए एक तीर्थ के समान होना चाहिए, उसी क्षेत्र की जानकारी विदेश तो क्या देश के भी ज्यादातर लोगों को नहीं है ! हम में से अधिकांश लोग रानी का संबंध सिर्फ झाँसी से जोड़ कर ही देखते हैं ! इसीलिए ज्यादातर पर्यटक बनारस के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों और घाटों का अवलोकन कर वापस लौट जाते हैं ! इसका कारण भी है, उन्हें इस जगह की पूरी जानकारी ही उपलब्ध नहीं हो पाती, नाहीं करवाने की कोई चेष्टा ही की जाती है.........!

#हिन्दी_ब्लागिंग 

झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, जिसके नाम से देश का बच्चा बच्चा परिचित है ! एक ऐसी वीरांगना, जिसने मात्र 23 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से मोर्चा लिया और अपना लोहा मनवाया ! 1857 के स्वाधीनता संग्राम का विवरण जिसके उल्लेख के बिना अधूरा है, उस महान हस्ती का जन्म गंगा तट पर स्थित शिव जी की प्रिय पौराणिक नगरी काशी में हुआ था, जिसे संसार की सबसे पुरानी नगरी और आज बनारस के नाम से भी जाना जाता है !
फ़र्रूख़ाबाद के महल में उपलब्ध रानी लक्ष्मीबाई का चित्र
क्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1835 (स्मारक में दी गई जानकारी के अनुसार) को वाराणसी में हुआ था। उनका बचपन का नाम मणिकर्णिका था लेकिन प्यार से उन्हें मनु कह कर बुलाया जाता था। जो समय के साथ आगे चल कर झाँसी की रानी के नाम से विश्वविख्यात हुईं और उसी नाम से देश में भी उन्हें जाना जाने लगा ! उनके बारे में ऐसा कुछ भी नहीं है जो देश-वासियों को ज्ञात ना हो ! परंतु बनारस में स्थित उनकी जन्मस्थली के बारे में विदेश की तो छोड़ें देश के लोगों को भी पूरी जानकारी नहीं है ! 
जन्मस्थली में अश्वारूढ़ प्रतिमा 
क्ष्मीबाई जी की माता के देहावसान के बाद उनके पिता मोरो पंत जी उन्हें अपने साथ मराठा शासक बाजीराव के दरबार में ले गए। वहीं उनका लालन-पालन हुआ। तब लक्ष्मीबाई की उम्र तकरीबन चार साल की थी ! उसके बाद से ही उनका वापस वाराणसी लौटना नहीं हो पाया ! रानी लक्ष्मी बाई की जन्म-स्थली बनारस के भदैनी क्षेत्र में स्थित है ! यहीं उनके नाम का एक स्मारक बना उन्हें समर्पित किया गया है ! 


पर विडंबना है कि जो स्थान या स्मारक प्रत्येक भारतीय के लिए एक तीर्थ के समान होना चाहिए, उसी क्षेत्र की जानकारी विदेश तो क्या देश के भी ज्यादातर लोगों को नहीं है ! हम में से अधिकांश लोग रानी का संबंध सिर्फ झाँसी से जोड़ कर ही देखते हैं ! इसीलिए ज्यादातर पर्यटक बनारस के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों और घाटों का अवलोकन कर वापस लौट जाते हैं ! इसका कारण भी है, उन्हें इस जगह की पूरी जानकारी ही उपलब्ध नहीं हो पाती, नाहीं करवाने की कोई चेष्टा ही की जाती है ! 

स्कूल की ईमारत का पृष्ठ भाग 
उस पर चिंता का विषय यह भी है कि जन्म-स्थली का रख-रखाव भी समुचित तौर पर नहीं होता है ! बगीचा झाड़-झंखाड़ों से भरा हुआ है ! लॉन की घास की कटाई कई-कई दिनों तक नहीं होती लगती ! क्यारियां बेतरतीब हैं ! हालांकि रानी का जीवन परिचय दीवारों पर बहुत सुन्दर तरीके से उकेरा गया है, पर इतनी बड़ी हस्ती को एक छोटी सी जगह में समेट कर रख दिया गया है ! कृतियाँ बहुत सुन्दर व कलात्मक हैं, पर दीवारों पर काई की कालिख भी उभरने लगी है ! कहीं कहीं टाइलें भी दरकने लगी हैं ! उनकी और भी देख-भाल की जरुरत है, जो बिना समय गंवाए होनी चाहिए ! बगल की ईमारत में शायद स्कूल खुल गया है, जहां से बच्चों का शोरगुल यहां के माहौल की शांति में खलल डालता है ! स्थानीय युवाओं के लिए यह निर्जन स्थान उनके खाली समय को व्यतीत करने का जरिया सा बन गया है ! देश की इस धरोहर को संरक्षित कर और भव्य बना प्रचारित करने की अति आवश्यकता है !

भित्तिचित्र 
स्वतंत्रता के बाद देश के विभिन्न भागों में जहां तरह-तरह के नेताओं की स्मृतियों में अनेक स्मारक और भव्य संरचनाएं बनाई गईं, वहीं वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई का जन्मस्थान, उनकी मृत्यु के 167 वर्ष बाद भी एक उपेक्षित स्थल की तरह ही है। स्थानीय निवासियों को भी इस बारे में आवाज उठानी चाहिए और प्रदेश सरकार को भी धर्मिक पर्यटन क्षेत्र की उन्नति के साथ-साथ इस ऐतिहासिक धरोहर के संरक्षण के लिए उचित कार्यवाही करनी चाहिए ! 
  
@रानी लक्ष्मीबाई का चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से    

गुरुवार, 17 जुलाई 2025

सीधी पर अबूझ, शिवशक्ति रेखा

हमारे देश की मिटटी के कण-कण में धार्मिकता व्याप्त है ! जल-थल-पवन-गगन सभी जगहों पर देवत्व की रहस्यमय पर अलौकिक उपस्थिति महसूस की जाती है ! ऐसी ही एक रहस्यमय उपस्थिति है, शिवशक्ति रेखा ! यह कोई भौगोलिक रेखा नहीं है, पर यदि उत्तर के उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ मंदिर से सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु में स्थित रामेश्वरम तक 79* देशांतर की एक रेखा की कल्पना की जाए तो आश्चर्यजनक रूप से उस पर शिव जी के सात मंदिर एक सीध में बने नजर आते हैं, जो सिर्फ संयोग नहीं है.................!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 

जब-जब अपने देश की वे उपलब्धियां जिन्हें हमारे विद्वानों ने प्राचीन काल में ही हासिल कर लिया था, सामने आती हैं तो गर्व से पूरी देह उमग उठती है ! पर इसके साथ ही जब उन मुठ्ठी भर लोगों की कारस्तानियां उजागर होती हैं, जिन्होंने षड्यंत्रवश, अपने छद्म इतिहास में उन खूबियों को स्थान ना दे या उन्हें कल्पित बता, देश के जनमानस को गुमराह किया, हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा रचित ग्रंथों को झुठला कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गलत जानकारियां दीं, तब ऐसा आक्रोश उमड़ता है कि ऐसी हरकत करने वालों को तो सरे राह दंडित किया जाना चाहिए ! दंड भी ऐसा कि उनकी पीढ़ियां याद रखें !

शिव और शक्ति 
हमारे ऋषि-मुनि तो ज्ञान का सागर रहे हैं ! उन्हीं का प्रताप है कि हम दुनिया के सिरमौर रहे ! क्या-क्या खोजें उन्होंने नहीं कीं ! यदि सबका विवरण लिखने बैठें तो पूरा ग्रंथ बन जाएगा ! अभी सावन का पावन समय चल रहा है और यह माह शिव जी को समर्पित है तो आज उन्हीं से संबंधित एक अद्भुत, अद्वितीय, अनोखी, शिवशक्ति रेखा की बात ! जिसका विस्तार उत्तराखंड के केदारनाथ ज्योतिर्लिंग से लेकर दक्षिण के रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग तक एक सीध में करीब 2382 कि.मी. तक माना जाता है।  

नम: शिवाय 
भारत एक ऐसा देश है जिसकी मिटटी के कण-कण में धार्मिकता व्याप्त है ! जल-थल-पवन-गगन सभी जगहों पर देवत्व की रहस्यमय पर अलौकिक उपस्थिति महसूस की जाती है ! ऐसी ही एक रहस्यमय उपस्थिति है यह शिवशक्ति रेखा ! यह कोई भौगोलिक रेखा नहीं है पर यदि उत्तर के उत्तराखंड में स्थित केदारनाथ मंदिर से सुदूर दक्षिण के तमिलनाडु में स्थित रामेश्वरम तक 79* देशांतर की एक रेखा की कल्पना की जाए तो आश्चर्यजनक रूप से उस पर शिव जी के सात मंदिर एक सीध में बने नजर आते हैं। इन सातों मंदिरों मंदिरों की स्थिति एक सीधी रेखा पर होना महज संयोग नहीं है, यह रेखा यह दर्शाती है कि भारत के ऋषियों-मुनियों, गणितज्ञों तथा वास्तुकारों के पास ज्योतिष, खगोल विज्ञान और ऊर्जा सिद्धांतों का अद्भुत ज्ञान था।  

शिवशक्ति रेखा 
शास्त्रों के अनुसार इस रेखा पर स्थित सात प्राचीन मंदिरों में दो ज्योतिर्लिंगों के अलावा जो पांच मंदिर हैं वे पंचभूत यानी प्रकृति के पांच मूल तत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश का प्रतिनिधित्व करते हैं ! जिनमें श्रीकालाहस्ती शिव मंदिर जल, एकाम्बेश्वरनाथ मंदिर अग्नि, अरुणाचलेश्वर मंदिर वायु, जम्बूकेश्वर मंदिर पृथ्वी और थिल्लई नटराज मंदिर आकाश के प्रतीक हैं ! इन पंचभूत मंदिरों के साथ-साथ केदारनाथ और रामेश्वरम जैसे पवित्र ज्योतिर्लिंगों का इस सीधी रेखा पर होना इस रेखा को और भी रहस्यमय बनाता है।एक आश्चर्य की बात और भी है कि भले ही उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर उस रेखा पर नहीं है पर उसकी उपस्थिति इन सातों मंदिरों के ठीक मध्य में बनती है !

महाकालेश्वर 
वैज्ञानिकों के अनुसार, यह अक्ष रेखा पृथ्वी के चुंबकीय या ऊर्जात्मक केंद्रों के निकट हो सकती है। ऐसा माना जाता है कि इसीलिए इन मंदिरों की स्थापना ऋषियों और सिद्ध योगियों द्वारा यहां की गई, जिन्होंने पृथ्वी की ऊर्जा रेखाओं को ध्यान में रखकर इन्हें स्थापित किया। शिव शक्ति अक्ष रेखा एक ऊर्जावान रेखा के समान है, जहां शिव की चेतना और शक्ति एकाकार होती है। 

पंचभूत 
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि प्राचीन काल में जब जगहों को जानने का या दिशा बोध का कोई सुगम उपाय नहीं था, तब इन मंदिरों को एक सीध में इसीलिए बनाया गया था, जिससे दर्शनार्थी बिना मार्ग भटके, एक ही दिशा में चलते हुए ज्यादा से ज्यादा मंदिरों के दर्शन कर सकें ! वैसे यह तर्क सही नहीं लगता क्योंकि हमारे देश में कई ऐसी विलक्षण, रहस्यमयी बातें हैं, जिन्हें समझ पाना लगभग नामुमकिन है। उन्हीं में से एक है शिव शक्ति रेखा, गहन रहस्यों से भरी हुई ! भले ही हम  उसका रहस्य अभी ना समझ पा रहे हों पर हमें उस पर, उसकी विलक्षणता पर गर्व तो होना ही चाहिए !  

 ।। ॐ नम: शिवाय ।। 

@चित्र तथा संदर्भ हेतु अंतर्जाल का आभार 

सोमवार, 7 जुलाई 2025

कांवड़ यात्रा, सृष्टि रूपी शिव की आराधना

इस पवित्र पर कठिन यात्रा में भाग लेने वाले कांवड़िए अपनी पूरी यात्रा के दौरान नंगे पांव, बिना कावंड को नीचे रखे, अपने आराध्य को खुश करने के लिए सात्विक जीवन शैली अपनाए रखते हैं ! यात्रा में तामसिक भोजन, दुर्व्यवहार, कदाचार पूर्णतया निषेद्ध होता है ! यहां तक कि एक-दूसरे का नाम तक नहीं लेते ! सब ''बोल बम'' हो जाते हैं ! शिवमय हो जाते हैं ! उनके बीच का फर्क मिट जाता है ! आपसी एकता, सहयोग, समानता की भावना मजबूत होती है ! पहचान, जाति, वर्ग सब तिरोहित हो जाते हैं ! हर कांवड़िया एक दूसरे का भाई बन जाता है...........!   

#हिन्दी_ब्लागिंग 

हर साल सावन के पवित्र महीने में शिव भक्त पदयात्रा कर, सुदूर स्थानों से नदियों का जल ला कर अपने निवास के पास के शिव मंदिर में स्थित शिवलिंग का इस माह की चतुर्दशी के दिन जलाभिषेक करते हैं ! कंधे पर जल ला कर भगवान शिव को चढ़ाने की पारम्परिक यात्रा को कांवड़ यात्रा बोला जाता है। कांवड़ का मूल शब्द कांवर है जिसका अर्थ कंधा होता है ! बांस की बनी जिस बंहगी के दोनों सिरों पर जलपात्र लटका कर लाया जाता है उसे कांवड़ तथा जल लाने वाले भक्तों को कांवड़िया कहा जाता है ! इस पूरी यात्रा में कांवड़ को भूमि पर नहीं रखा जाता है ! मुख्यता यह यात्रा हरिद्वार से शुरू होती है ! इस साल यह यात्रा ग्यारह जुलाई से प्रारम्भ हो कर नौ अगस्त तक चलेगी !   

हर की पौड़ी, हरिद्वार 
मारे ग्रंथों में कांवड़ यात्रा का संबंध सागर-मंथन से जोड़ा गया है। उस महा-उपक्रम में जब विष निकला और उसकी ज्वाला से सारी दुनिया में त्राहि-त्राहि मच गई, तब शिव जी ने उस गरल का पान किया लेकिन उसकी गर्मी उन्हें भी परेशान करने लगी, तब उस ज्वाला को शांत करने के लिए उनका गंगा जल से अभिषेक किया गया जिससे विष की दग्धता कम हुई ! तबसे यह परम्परा चली आ रही है ! कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए है।

यात्रा विश्राम 
मारे शास्त्रों के अनुसार जब दोनों पात्रों में जल भर कर उन्हें कांवड़ में श्रद्धा और विधि पूर्वक सजा-संवार तथा पूजित कर स्थापित कर दिया जाता है तो शिव जी कांवड़ में तथा ब्रह्मा तथा विष्णु जी दोनों घटों में समाहित हो जाते हैं ! ऐसे में भक्त कांवड़िए को कांवड़ के माध्यम से ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों की कृपा एक साथ प्राप्त हो जाती है ! कांवड़िया, शिवयोगी के समान हो जाता है जो मन, वाणी, कर्म से किसी भी प्राणी का अहित नहीं करता, सब में एकमात्र सदाशिव का ही दर्शन करता है। कांवड़ यात्रा शिव भक्ति का एक रास्ता तो है ही साथ ही व्यक्तिगत विकास में भी सहायक है ! 

हर-हर महादेव 
इस पवित्र पर कठिन यात्रा में भाग लेने वाले कांवड़िए अपनी पूरी यात्रा के दौरान नंगे पांव, बिना कावंड को नीचे रखे, अपने आराध्य को खुश करने के लिए सात्विक जीवन शैली अपनाए रखते हैं ! यात्रा में तामसिक भोजन, दुर्व्यवहार, कदाचार पूर्णतया निषेद्ध होता है ! यहां तक कि एक-दूसरे का नाम तक नहीं लेते ! सब ''बोल बम'' हो जाते हैं ! शिवमय हो जाते हैं ! उनके बीच का फर्क मिट जाता है ! आपसी एकता, सहयोग, समानता की भावना मजबूत होती है ! पहचान, जाति, वर्ग सब तिरोहित हो जाते हैं ! हर कांवड़िया एक दूसरे का भाई बन जाता है !

बम-बम भोले 
इस यात्रा में भाग लेने वाले सभी कांवड़ियों के अपने-अपने संकल्प होते हैं ! उन्हीं में से कुछ ऐसे होते हैं, जो जल भरने के बाद अगले 24 घंटे के अंदर उसे भोलेनाथ पर चढ़ाने का संकल्प लिए दौड़ते हुए शिवालयों तक पहुंच कर शिवलिंगों पर यह जल अर्पित करते हैं, उन्हें 'डाकबम' कहते हैं ! उनके लिए कुछ अलग सुविधाएं और इंतजाम भी किए जाते हैं !

गंतव्य के पहले रुकना नहीं 

ऐसे ही एक शिव भक्त आशीष उपाध्याय का नाम शीर्ष कांवड़ियों में दर्ज है, जिन्होंने 22 जुलाई 2016 को हरिद्वार से जल लेकर 18 दिनों की पैदल यात्रा के पश्चात लगभग 1032 किलोमीटर की यात्रा संपन्न कर बनारस में भगवान भोलेनाथ का जलाभिषेक किया था ! यह आज तक की सबसे लंबी कांवड़ यात्रा में शामिल है !

भक्ति की शक्ति 
प्रतीकात्मक तौर पर कांवड यात्रा का संदेश यही है कि प्रत्येक इंसान जल बचाकर और नदियों के पानी का उपयोग कर अपने खेत खलिहानों की सिंचाई करें और अपने निवास स्थान पर पशु पक्षियों और पर्यावरण को पानी उपलब्ध कराए तो प्रकृति की तरह उदार शिव सहज ही प्रसन्न होंगे। 

@सभी चित्र और संदर्भ अंतर्जाल के सौजन्य से 

विशिष्ट पोस्ट

शौक या अत्याचार 😢

कभी  आपने पिजंड़े में   कैद जानवरों  के  चेहरों को ध्यान से देखा है  ? जहां  हर जीव के  चेहरे पर छटपटाहट, बेबसी, निराशा, उदासी, थकावट,  उकताह...