सोमवार, 28 अक्टूबर 2024

कक्ख दी वी लोड़ पै जांदी ऐ यानी पड़ सकती है तिनके की भी जरूरत कभी

अल्लादीन के जिन्न को भले ही वापस बोतल में भेजना  बहुत दुष्कर हो, पर बिखरे हुए घरेलू सामान को समेटना उससे भी विकट  समस्या होती है ! ऊपर से सामान  की मालकिन को अपनी हर चीज बेहद जरूरी लगती है, भले ही वर्षों से उसका उपयोग न हुआ हो ! पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड़ जाए ! फिर बाजार दौड़ो ! इसके साथ ही पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड़ पै जांदी ऐ ", अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन कर रह जाता हूँ...........!           

 #हिन्दी_ब्लागिंग

अभी हफ्ता भर पहले पड़ोस में एक गर्ग दंपति रहने आए हैं ! पता चला कि डिब्रूगढ़ से सेवा निवृत्ति के पश्चात यहां आना हुआ है ! किसी नई जगह सामान को टिकाना-जमाना बहुत ही श्रमसाध्य कार्य होता है ! अभी शायद उन्हें घरेलू सहायक भी नहीं मिला था ! दोनों पति-पत्नी के व्यवस्था में जुटे रहने के बावजूद, आते-जाते दिखता रहता था कि इतने दिनों के बाद भी उनका कुछ सामान अभी भी आंगन में वैसे ही बिना खुले, पैक पड़ा हुआ है ! एक-दो बार पड़ोसी धर्म के नाते अपने सहयोग की पेशकश की थी पर उन्होंने आभार मानते हुए, बड़ी शिष्टता से मना कर दिया था ! वैसे भी बिलकुल अनजान लोगों के निजी कामों में दखल देने और लेने में संकोच भी होता ही है ! 
गर्ग परिवार की अवस्था को देख मुझे अपने वो दिन याद आ गए जब वर्षों बाद हमारा दिल्ली लौटना हुआ था ! ढिबरी टाइट हो गई थी, सामान को ठिकाने लगाते-लगाते। दोस्त-मित्रों का जब फोन आता, मेरी खोज-खबर-जानकारियों के लिए और जब उन्हें थकान से हुई अपनी पस्त हालत के बारे में बताता तो वे हंसने लगते कि अरे आप कहां थकते हो ! तो उनसे कहना पड़ता कि भाई शरीर की एक सीमा होती है । अब पहले जैसा तो रहा नहीं ! पर एक बात तो मन को तब गुदगुदा ही जाती थी, जब कोई कहता था कि सर आपको देख कर लगता नहीं कि आप साठ पार कर चुके हो, तो यह बताने पर कि भइए साठ नहीं पैंसठ गुजरे भी एक अरसा हो गया है तो अगले का चेहरा देखने पर मजा तो आता ही था ! ये अलग बात है कि इन बातों को सुनने के चस्के को बरकरार रखने के लिए रोज तकरीबन घंटा भर पसीना बहाना पड़ता था, जो आज भी जारी है ! 

चलिए दोस्त-मित्र तो बाहर के हैं, दूर हैं, पर अपने बच्चे भी अभी तक अपने पापा को बाहुबली ही समझते हैं। कुछ भी हो, पापा हैं ना ! पर अपनी हद मुझे  तो मालुम है ! सो उन दिनों बच्चों के सहयोग के बावजूद कैसे धीरे-धीरे आराम से काम निपटाया था वह भी याद है ! क्योंकि बड़े शहरों में तुरंत कोई घरेलू सहायक तो मिल नहीं जाता और मिल भी जाता है तो दस तरह की सावधानियां बरतनी पड़ती हैं ! सो अपने हाथ ही जगन्नाथ बनाने पड़े थे ! 

देखा जाए तो घर के अंदर सिमटे, व्यवस्थित असबाब के आकार-प्रकार-आयतन का अंदाज नहीं लगता पर जब वह बाहर आकर अंगड़ाइयां लेना शुरू करता है, तो अच्छी भली जगह भी कम पड़ती दिखती है। अल्लादीन के जिन्न को भले ही वापस बोतल में भेजना बहुत दुष्कर हो, पर बिखरे हुए घरेलू सामान को समेटना उससे भी विकट समस्या होती है ! वैसे भी चालीस साल की गृहस्थी में जरूरी के साथ गैरजरूरी वस्तुओं का जुटते चले जाना कोई बड़ी बात नहीं है। पर उठा-पटक के मौके पर लगता है कि जिंदगी में मजाक-मजाक में ही सही, कुछ ज्यादा ही मोह-माया इकठ्ठी कर ली ! ऊपर से सामान की मालकिन को हर चीज बेहद जरूरी लगती है, भले ही सालों से उसका उपयोग न हो रहा हो ! पर उनके अनुसार क्या पता कब किस चीज की जरूरत पड जाए ! फिर पंजाबी का वह मुहावरा सुनाने से भी नहीं चूकतीं कि "कक्ख दी बी लोड पै जांदी ए".  अब उनके इस "कक्ख" के चक्कर में मैं तो चकरघिन्नी बन कर रह जाता हूँ। 

पर सर पर पड़ी को निपटाना भी पड़ता है ! वैसे उन दिनों मैं अकेला ही नहीं था, श्रीमती जी ने भी अपनी हद से ज्यादा ही साथ दिया था ! थकान से दोनों ही लस्त-पस्त हुए थे ! वही हालत आज मैं गर्ग परिवार की देख रहा हूँ ! यह भी जिंदगी के नाटक का एक दृश्य, एक अंक ही तो है !

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