सोमवार, 12 अगस्त 2024

सरसों का साग, मक्के की रोटी के लिए तब कई पापड़ बेलने पड़ते थे

सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते !  सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं !  एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! कुछ ही देर में यह अड़ोस-पड़ोस के हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती.............! 

#हिन्दी_ब्लागिंग           

आज बाजार ने हमें जितनी सहूलियतें प्रदान कर दी हैं उनके बारे में 20-25 साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था और इधर आज की पीढ़ी उस समय की होने वाली खरीद-फरोख्त का अंदाज भी नहीं लगा सकती है ! आज तो किसी भी चीज की इच्छा जाहिर कीजिए कुछ ही देर में वह दरवाजे पर हाजिर दिखेगी, पर पहले ऐसा नहीं होता था, तब अपनी इच्छित वस्तु को ढूंढ कर उस तक पहुंचना होता था ! पर उसका भी अपना एक अलग मजा और तसल्ली होती थी ! कभी-कभी वे दिन याद आ जाते हैं ! 

सरसों के पत्ते 
ऐसी ही एक स्मृति को आपके साथ साझा कर रहा हूँ ! बात है सत्तर के दशक की ! पिताजी कोलकाता, तब के कलकत्ता, से करीब 35 किमी दूर, नॉर्थ 24 परगना के एक उपनगर, भाटपारा में स्थित रिलांयस जूट मिल  (इस रिलांयस का उस रिलांयस से कोई भी संबंध कभी नहीं रहा) में कार्यरत थे ! वहां देश के हर हिस्से से आए लोग एक परिवार की तरह रहते थे। कोई भेद-भाव नहीं, जैसे सभी एक ही कुटुंब के सदस्य हों ! एक अजब ही माहौल हुआ करता था जो अखंड भारत की छवि प्रस्तुत करता था !
घर 
अपुन का परिवार ठहरा पंजाबी, सो कभी-कभी पंजाबियत जोर मार कर मक्की की रोटी की मांग कर ही देती थी ! पर सहज उपलब्ध ना होने के कारण, उसे पूरा करना तब उतना सरल नहीं था ! सरसों के साग का जुगाड़ कलकत्ते के सुदूर भवानीपुर इलाके के थोक सब्जी बाजार से करना पड़ता था और मक्की के आटे का इंतजाम खासतौर से अपने लिए मक्की के दानों को पिसवा कर किया जाता था ! मक्के का आटा उतना सर्वसुलभ नहीं होता था ! तो जब कभी इन व्यंजनों की इच्छा ज्यादा जोर मारने लगती, जो सिर्फ हमारे ही नहीं वहां के अधिकांश परिवारों की कामना होती थी, तो उसको फलीभूत करने के लिए मेरे मामाजी सामने आते ! जिनके साथ होता बालक रूपी मैं ! 
साग 
इस नेमत को, जिसके रसास्वादन के लिए कई-कई लोग इंतजार में रहते थे, पाने के लिए अच्छा-खासा उद्यम करना पड़ता था ! मिल के रिहाइशी क्षेत्र से रेलवे स्टेशन, जिसका नाम कांकिनाड़ा था (काकीनाडा नहीं), की दूरी करीब एक किमी होगी, जिसे मौके के अनुसार पैदल या रिक्शे से नापा जाता था ! स्टेशन से कलकत्ते का सियालदह स्टेशन करीब 35 किमी था, बीच में उस समय ग्यारह स्टेशन पड़ते थे ! इस दूरी को पार करने में लोकल ट्रेन तकरीबन घंटे भर का समय ले लेती थी। सियालदह के जन सैलाब को पार कर बाहर आ कर शहर के भवानीपुर इलाके के लिए बस ली जाती थी। फिर बस छोड़ सब्जी बाजार तक जाना पड़ता था। जहां से अपनी इच्छित मात्रा मुताबिक सरसों का साग मिल जाना भी एक उपलब्धि ही होती थी ! फिर उसी क्रम में वापसी होती थी फर्क सिर्फ इतना होता था कि बाजार से सियालदह तक का सफर बस की बजाय टैक्सी पूरा करवाती थी और स्टेशन से मिल के अंदर घर तक रिक्शा !
मौजां ई मौजां 
सुबह के निकले हम यदि कलकत्ते में पिक्चर देखने का लोभ संवरण कर लेते, तो अपरान्ह तक घर पहुंच जाते थे नहीं तो रात हो जाती थी ! घर पहुंच रिक्शे से उतरते-उतरते सभी पंद्रह-सोलह परिवारों में खबर लग जाती थी कि साग आ गया है ! कई मुस्कुराते चेहरे आमने-सामने की खिड़कियों-बालकनियों में टंग जाते ! सहायकों द्वारा साग के पत्तों की आवभगत रात तक हो जाती ! सुबह माँ जुट जातीं तैयारी में ! कुछ कमी ना रह जाए इसलिए बिना किसी की सहायता लिए खुद ही काटतीं-छांटतीं ! उन दिनों अभी गैस आई नहीं थी सो एक अलग अंगीठी सुलगाई जाती सिर्फ साग के लिए ! साग के अनुपात के अनुसार पता नहीं क्या-क्या और कुछ उसमें मिलाया जाता ! फिर घंटो के इंतजार, गलने-पकने-दलने के पश्चात उसमें ढ़ेर सा घी पड़ता और फिर जो व्यंजन सामने आता उसकी दूर-दूर तक फैलती दैवीय सुगंध बार-बार मुंह को पानी से भर जाती ! बेसब्री से किया जा रहा इंतजार खत्म होता ! कुछ ही देर में यह हर घर में पहुंच, टेबल पर सज, अपनी महक से उसे सुवासित कर रहा होता ! माँ के हाथों के कमाल और निपुणता की चर्चा कई दिनों तक होती रहती ! 

18 टिप्‍पणियां:

घनश्याम स्वरूप सारस्वत ने कहा…

बहुत सुंदर चित्रण भाई साहब 🙏,हमें हमारे गांव और मां के हाथ से बनाये गए साग रोटी की यादें ताजा हो गईं।

सुशील कुमार जोशी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर

Sweta sinha ने कहा…

सचमुच वो दौर कुछ अलग ही था।
स्मृतियों का सोंधापन मन प्रफुल्लित कर गया सर।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १३ अगस्त २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Abhilasha ने कहा…

बेहतरीन संस्मरण

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सारस्वत जी,
सदा स्वागत है आपका 🙏

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी,
हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

श्वेता जी,
बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

श्वेता जी,
पंचामृत में सम्मिलित कर सम्मान देने हेतु हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अभिलाषा जी,
''कुछ अलग सा'' पर सदा स्वागत है आपका

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर

रेणु ने कहा…

गगन जी, वो सुनहरी दौर था जब जिव्हा इतनी चटोरी ना और माँ ओं का समर्पण चूल्हे से सौ प्रतिशत था! उन कवायदों का साग एक प्रसाद था ।पर साग बनाना आज भी आसान नहीं 🙏😊

शुभा ने कहा…

वाह!बहुत खूब गगन जी ।

विकास नैनवाल 'अंजान' ने कहा…

बहुत सुंदर संस्मरण... सचमुच उस समय चीजें जुटाने में मेहनत लगा करती थी... लेकिन उस मेहनत के सदके ही ऐसी सर्वसुलभ चीजों का घर आना किसी त्यौहार से कम नहीं होता था और साथ ही ऐसी यादें भी बन जाती थीं।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

आलोक जी,
हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

जी, रेणु जी,
सच कहा, इस एक चीज का बनाना दसियों व्यंजनों के बराबर पड़ता है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शुभा जी,
हार्दिक आभार आपका

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बिलकुल सही विकास जी, यदि इतनी दौड़-धूप ना होती तो वर्षों बाद याद भी नहीं रहता वह सब

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