रविवार, 26 दिसंबर 2021

यदि सावन के अंधे को हरा-हरा ही दिखता है तो पतझड़ के अंधे को.........

कुछ लोग अपनी काबिलियत दिखाने के लिए बात-बात पर विदेशों के उदाहरण दे कर अपने को विद्वान साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं ! वैसे विडंबना ही है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अभी भी सदा विदेशियत से चौंधियाए रहते हैं ! देश और देशवासियों को कमतर आंकना उनके संस्कारों में शामिल हो चुका होता है ! वे भूल जाते हैं कि उनका अस्तित्व यहीं की मिट्टी-पानी-खाद से ही बना है ! पर ऐसे वसन-विहीन लोगों के पास आस्तीन ही कहाँ है, जो उसमें झाँक कर देख सकें..........!    

#हिन्दी_ब्लागिंग 

गलत बोलने-करने वाला यह अच्छी तरह जानता है कि यदि उनके कदाचरण का विरोध सौ जने करेंगे तो उसके पक्ष में भी दस लोग आ खड़े होंगे ! उन्हीं दस लोगों की शह पर वह अपनी करनी से बाज नहीं आता ! पत्र-पत्रिकाओं में ''ये उनके निजी विचार हैं'', लिख औपचारिक खानापूर्ति कर देने से समाज में फैलाई जाने वाली कडुवाहट कम नहीं हो जाती ! इसीलिए ऐसे लोगों और उनकी बातों को बिलकुल नजरंदाज करने की बजाए बीच-बीच में गलत बातों का विरोध होना बहुत जरुरी है ! यह विडंबना है कि हमारे देश में कुछ भी बकने की आजादी तो है, पर अपना फर्ज-नैतिकता निभाने की कोई विवशता नहीं है !

पंजाबी में एक कहावत है ''मुड़-मुड़ खोती बौड़ हेठां'' ! इन जैसे ''सज्जनों'' का भी यही हाल है ! कुछ भी हो जाए, कितना भी अच्छा हो जाए, पर इनका रेकॉर्ड अपनी पुरानी धुन पर ही किर्र-किर्र करता रहता है ! अपने विचारों से असहमत हर व्यक्ति इनको अपना विरोधी और मूर्ख लगता है पर साथ ही अपनी बुद्धि और अपने शब्द वेदमंत्र सरीखे महसूस होते हैं
अपना दही (काम-गुण-आचरण-व्यवहार) सभी को मीठा लगता है, पर उसकी गुणवत्ता का आंकलन दूसरों के द्वारा ही होता है ! यदि दूसरे उसे नकार देते हैं तो इस पर अपनी नाकामी और असफलता से कुंठित हो दूसरे सफल, कामयाब, सम्मानित लोगों को कमतर आंकना उस की आदत बन जाती है ! ऐसे लोग अपनी काबिलियत दिखाने के लिए बात-बात पर विदेशों के उदाहरण दे कर अपने को विद्वान साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं ! भले ही उसका औचित्य ना हो ! वैसे विडंबना ही है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अभी भी सदा विदेशियत से चौंधियाए रहते हैं ! देश और देशवासियों को कमतर मानना उनके संस्कारों में शामिल हो चुका होता है ! वे भूल जाते हैं कि उनका अस्तित्व यहीं की मिटटी-पानी-खाद से बना है ! पर ऐसे वसन-विहीन लोगों के पास आस्तीन ही कहाँ है, जो उसमें झाँक कर देखें !    

इस श्रेणी का इंसान यदि तथाकथित लेखक या स्तंभकार होगा तो वह जब तक किसी बाहरी फिल्म, पुस्तक, लेखक या फिर उनके रीति-रिवाजों का महिमामंडन नहीं कर देगा उसका स्तंभ कृतार्थ नहीं होता ! यदि शो बिजनेस में होगा तो अपने फूहड़ शो में देशी-विदेशी, अमीर-गरीब की तुलना कर अपनी भड़ास निकालता रहेगा ! गलती से वह नेता हो गया तो उसके लिए तो देश की आम जनता भेड़-बकरी से ज्यादा अहमियत नहीं रखेगी ! ऐसे लोगों को अपने यहां की हर सफल शख्शियत, परंपरा, रीति-रिवाज, मान्यता से प्रत्यूर्जता रहती है ! हर विदेशी चीज का महिमामंडन उनका शगल होता है ! अच्छाई किसी की भी हो उसे अपनाने में कोई बुराई नहीं है ! पर उसके सामने अपने इतिहास को नकार देना, अपने लोगों को कमतर आंकना, अपनी उपलब्धियों को भुला देना किसी भी मायने में क्षम्य नहीं हो सकता !  

एक आत्मश्लाघि अखबार के पूर्वाग्रह से ग्रस्त अपनी असफलताओं से कुंठित स्तंभकार द्वारा क्रिसमस के अवसर पर लिखे गए लेख में यीशु को दिए गए कष्टों को विस्तार से याद किया गया है ! अच्छी बात है ! संसार को राह दिखाने वालों को कभी भूलना भी नहीं चाहिए ! पर अपने महापुरुषों, महानायकों, शहीदों को समयानुसार क्यों नहीं उतने ही विस्तार से याद किया जाता, जिन्हें जिंदा रूई में लपेट कर जला दिया गया ! खौलते तेल में डाल कर मार डाला गया ! आरे से चिरवा दिया गया ! अपनी बात ना मानने पर उनकी बोटी-बोटी काट डाली गई ! मासूमों को जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया ! असमय हजारों-हजार इंसानों को असमय मौत के मुंह में धकेल दिया गया ! जिनके कारण, जिनकी बदौलत हम आज हम कुछ भी "बकने" को आजाद हैं ! क्या उनके प्रति हमारा-इनका कोई फर्ज नहीं है  ? 

इसी उपरोक्त तथाकथित बुद्धिजीवी द्वारा विदेशों में क्रिसमस के दूसरे दिन मनाए जाने वाले ''बॉक्स डे'' का जिक्र कर विदेश में डाकिए और अखबार बांटने वालों को उपहार देने को महिमामंडित करते हुए अपने लोगों पर सवाल दागा गया है कि क्या हमारे यहां ऐसा होता है ! इन महाशय के यहां शायद किसी को कभी कुछ भी देने की प्रथा ना हो, इसीलिए शायद इन्हें इस बात का ज्ञान भी नहीं है कि बाहर के देशों में यदि किसी को उपहार देने के लिए सिर्फ एक दिन निर्धारित है तो हमारे यहाँ साल भर मनाए जाने वाले अनगिनत त्योहारों पर सदा से ''सब को'' मेरा मतलब है ''सब को'' उपहार बांटने का चलन है ! घर में हाथ बंटाने वाले सहायकों को तो घर का ही सदस्य माना जाता है ! उनके अलावा खासकर होली, दशहरे और दीपावली पर तो आस-पास के सफाई, टेलीफोन, डाकिए, दूकान से घर तक सौदा पहुँचाने वाले कर्मचारी, चौकीदार यहां तक की रोज कपड़ों को प्रेस करने वाले भी स्नेहभाजन बनते हैं ! यदि इन महाशय ने ऐसा कभी कुछ ना किया हो, किसी खास मौके पर भी किसी को कुछ ना दिया हो तो उन्हें नेक सलाह है कि वे किसी को कुछ दे कर देखें, अच्छा ही लगेगा !    

पंजाबी में एक कहावत है ''मुड़-मुड़ खोती बौड़ हेठां'' ! इन जैसे ''सज्जनों'' का भी यही हाल है ! कुछ भी हो जाए, कितना भी अच्छा हो जाए, पर इनका रेकॉर्ड अपनी पुरानी धुन पर ही किर्र-किर्र करता रहता है ! अपने विचारों से असहमत हर व्यक्ति इनको अपना विरोधी और मूर्ख लगता है पर साथ ही अपनी बुद्धि और अपने शब्द वेदमंत्र सरीखे महसूस होते हैं ! 

22 टिप्‍पणियां:

शिवम कुमार पाण्डेय ने कहा…

बिल्कुल सही कहा आपने।
बहुत ही सुन्दर लेख♥️

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी
सदा स्वागत है, आपका

yashoda Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 27 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
पाँच लिंकों का आनन्द पर
आप भी आइएगा....धन्यवाद!

Nitish Tiwary ने कहा…

तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों के ज्ञानचक्षु खोल देने वाला लेख।

जिज्ञासा सिंह ने कहा…

उम्दा विषय पर बहुत ही सारगर्भित आलेख ।

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ये ऐसे लोग हैं जिनको दूसरे की थाली में घी ज़्यादा दिखता है ।
कुंठाग्रस्त लोग ही ऐसा सोचते हैं ।
सार्थक लेख ।

बेनामी ने कहा…

बिल्कुल सही कहा आपने--
एक सार्थक लेख..

Ankit choudhary ने कहा…

बहुत सुंदर लेख,बस एक ही बात कहुंगा-धज्जीयां उड़ दी आपने🙏

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

यशोदा जी
मान देने हेतु हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

नीतीश जी
पता नहीं सही किया कि नहीं पर कभी-कभी चुप ना रहना बेहतर लगता है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हार्दिक धन्यवाद, जिज्ञासा जी

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

संगीता जी
दसियों बार आईना दिखाने पर भी बाज नहीं आते

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

बेनामी जी
पधारने का शुक्रिया, पहचान के साथ आते तो और भी अच्छा लगता

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

अंकित जी
सदा स्वागत है आपका

मन की वीणा ने कहा…

सटीक शानदार झाड़ लगाई है गगन जी आपने बहुत सही सही लिखा है।
आपकी कुशाग्र दृष्टि गहनता से नये पर सामायिक यथार्थ की धरातल के मुद्दे उठाती है।
साधुवाद सह शुभकामनाएं।
बस ऐसे ही विषय लाते रहिए।

Sudha Devrani ने कहा…

सही कहा आपने ऐसे लोग किसी के नहीं होते ....
बहुत ही सटीक, लाजवाब।

Bharti Das ने कहा…

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

Rohitas Ghorela ने कहा…

समाज अपने आप कुंठित नहीं होता धीरे धीरे नए विचारों की टक्कर पुराने विचारों से होती है और समाज दो हिस्सों में बंट जाता है। फिर मध्यम वर्ग सबसे ज्यादा कुंठा का शिकार होता है।
जन्म-दिन, शादियों में नए रीति रिवाज का घुसना,नए त्योहारों की रंगीनियों में डुबना और अपने चाल चलन में ख़राबी ही खराबी निकालना।
ऐसे में सच्चे लेखक ही समाज की दशा सुधार सकते हैं और दिशा दे सकते हैं।
सार्थक लेख।

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गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कुसुम जी
ना चाहते हुए भी कभी ऐसा करना पड़ जाता है ! कइयों की आदत में शुमार हो गया है सही को किसी भी तरह गलत और गलत को सही साबित करना !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुधा जी
अपनी नाकामियों और दूसरों की सफलता ऐसे लोगों की कुंठा का कारण बन जाती है

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

भारती जी
स्वागत है, आपका

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

रोहितास जी
पूरी तरह सहमत !

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