कुरुक्षेत् युद्ध के 35 साल बीत चुके थे। समय निर्बाध गति से चलता रहा। समृद्धि, सम्पदा और वैभव के साथ-साथ धीरे-धीरे यदुवंशी युवाओं में उच्श्रृंखलता, बेअदबी, निरंकुशता भी घर करने लगी थी ! वे सभी सुरा-भोग-विलास में लिप्त रहने लगे थे। चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया गहराने लगा था। बुजुर्गों और गुरुओं का अपमान, असम्मान, आपसी निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं की दिन-रात बढ़ोत्तरी होने लगी थी। क्या ऐसा प्रभु ने ही गांधारी और ऋषियों के वचन को पूरा करने के लिए किया था या फिर लीला रूपी माया को समेटने का समय आ गया था...............!!
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श्रीकृष्ण को मालुम था कि वे जहां जा रहे हैं वहां क्या होने वाला है ! उनका सामना अपने पूरे कुल और सारे पुत्रों की मृत्यु के शोक में डूबी, रौद्र रूपेण उस माँ से होने जा रहा था, जो श्रीकृष्ण को ही इन सब घटनाओं और युद्ध का उत्तरदाई मानती रहीं ! वह कुछ भी कर सकती थी ! पर फिर भी वे सांत्वना देने के लिए गांधारी के कक्ष की ओर निर्विकार रूप से बढे जा रहे थे ! फिर जो होना था वही हुआ ! क्योंकि विधि के विधान में पक्षपात नहीं होता ! उसमें सब बराबर होते हैं ! आप कितने बड़े महापुरुष, धर्मात्मा, राजाधिराज, प्रभु के अंश या अवतार ही क्यों ना हों ! अपने कर्मों का फल सभी को भोगना पड़ता है !
भगवान श्रीकृष्ण जब गांधारी के सामने पहुंचे, तो गांधारी का अपने क्रोध पर वश नहीं रहा ! बिना कुछ सोचे-समझे उन्होंने श्रीकृष्ण को श्राप दे डाला ! “अगर मैंने प्रभु की सच्चे मन से पूजा तथा निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है, तो जैसे मेरे सामने मेरे कुल का हश्र हुआ है, उसी तरह तुम्हारे वंश का भी नाश हो जाएगा !'' सब सुन कर भी कृष्ण शांत रहे ! फिर बड़ी ही विनम्रता से बोले, मैं आपके दुःख को समझता हूँ ! यदि मेरे वंश के नाश से आपको शांति मिलती है, तो ऐसा ही होगा ! पर आपने व्यर्थ मुझे श्राप दे कर अपना तपोबल नष्ट किया ! विधि के विधानानुसार ऐसा होना तो पहले से ही निश्चित था ! तब कुछ क्रोध शांत होने पर गांधारी को भी पछतावा हुआ और श्री कृष्ण से उन्होंने क्षमा याचना की ! पर जो होना था वह तो हो ही चुका था !
पांडवों और राज्य की व्यवस्था करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण द्वारका आकर रहने लगे। द्वारका नगरी बहुत शांत और खुशहाल थी। कुरुक्षेत् युद्ध के 35 साल बीत चुके थे। समय निर्बाध गति से चलता रहा।समृद्धि, सम्पदा और वैभव के साथ-साथ धीरे-धीरे यदुवंशी युवाओं में उच्श्रृंखलता, बेअदबी, निरंकुशता भी घर करने लगी थी ! वे सभी सुरा-भोग-विलास में लिप्त रहने लगे थे। चारों ओर अपराध, अमानवीयता और पाप का साया गहराने लगा था। बुजुर्गों और गुरुओं का अपमान, असम्मान, आपसी निंदा, द्वेष जैसी भावनाओं की दिन-रात बढ़ोत्तरी होने लगी थी। ऐसा क्या प्रभु ने गांधारी और ऋषियों के वचन को पूरा करने के लिए किया था ! या फिर लीला रूपी माया को समेटने का समय आ गया था !
ऐसे में ही एक बार ऋषि विश्वामित्र, दुर्वासा, वशिष्ठ और नारद भगवान श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका आए थे। उनको देख यदु किशोरों को शरारत सूझी और उन्होंने कृष्ण के पुत्र सांब को एक स्त्री का वेष धारण करवा, ऋषियों के पास ले जा कर कहा कि ये युवती गर्भवती है, कृपया बताएं कि उसके गर्भ से बालक जन्म लेगा या बालिका ! ऋषियों ने तत्काल सब समझ लिया और क्रोधित होकर सांब को श्राप दिया कि वह लोहे के मूसल को जन्म देगा और उसी मूसल से यादव कुल और साम्राज्य का नाश हो जाएगा।
श्राप सुन सांब अत्यंत भयभीत हो गया ! उसने ऋषियों से क्षमा मांगी पर कोई लाभ नहीं हुआ ! तब सांब ने यह सारी घटना जा कर अपने नाना उग्रसेन को बताई ! वे भी चिंता में पड़ गए, फिर भी उन्होंने कहा कि यदि ऐसा होता है तो उस मूसल को पीस कर चूर्ण बनाकर प्रभास नदी में प्रवाहित कर दो ! शायद इस तरह उस श्राप से छुटकारा मिल जाए। इसके साथ ही सुरा और नशीली वस्तुओं का इस्तेमाल तुरंत बंद करो ! सांब ने सब कुछ उग्रसेन के कहे अनुसार ही किया। परन्तु होनी को कहां टाला जा सकता है ! सागर की लहरों ने उस लोहे के चूर्ण को वापस किनारे पर फेंक दिया, जिससे कुछ समय पश्चात तलवार की तरह की तेज झाड़ियाँ उग उग आईं ! इस घटना के बाद से ही द्वारका के लोगों को विभिन्न अशुभ संकेतों का अनुभव भी होने लगा !
ये सब देख-सुन कर भगवान कृष्ण परेशान रहने लगे थे ! इसीलिए उन्होंने अपनी प्रजा से प्रभास क्षेत्र तीर्थ यात्रा कर अपने पापों से मुक्ति पाने को कहा। सभी ने ऐसा किया तो सही ! परंतु वहां पहुँच अपनी कुटेवों से फिर भी छुटकारा न पा सके ! वहां भी सभी मदिरा के नशे में चूर होकर, भोग-विलास में लिप्त हो गए ! एक दिन मदिरा के नशे में चूर सात्याकि, कृतवर्मा के पास पहुंचा और अश्वत्थामा को मारने की साजिश रचने और पांडव सेना के सोते हुए सिपाहियों की हत्या करने के लिए उसकी आलोचना करने लगा। वहीं कृतवर्मा ने भी सात्याकि पर आरोप मढ़ने शुरू कर दिए। बहस बढ़ती गई और इसी दौरान सत्याकि के हाथ से कृतवर्मा की हत्या हो गई। कृतवर्मा की हत्या करने के अपराध में अन्य यादवों ने मिलकर सात्यकि को मौत के घाट उतार दिया। मदिरा के नशे में चूर सभी ने घास को अपने हाथ में उठा लिया और सभी के हाथ में मौजूद वो घास लोहे की छड़ बन गई। जिससे सभी लोग आपस में ही भिड़ गए और एक-दूसरे को मारने लगे। वभ्रु, दारुक और श्रीकृष्ण के अलावा अन्य सभी लोग मारे गए।
उधर मूसल के चूर्ण का कुछ अंश एक मछली ने निगल लिया था, जो उसके पेट में जाकर धातु का एक टुकड़ा बन गया था। वह मछली एक मछुआरे के हाथ लगी जिसने उसे जरा नामक शिकारी को बेच दिया। जरा ने मछली के शरीर से निकले धातु के टुकड़े को नुकीला तथा जहर में बुझा, शिकार की खातिर अपने तीर के अग्रभाग में लगा लिया। एक दिन कृष्ण सारी घटनाओं से व्यथित हो सरोवर किनारे पीपल के वृक्ष के नीचे पैर पर पैर रखे ध्यानावस्था में बैठे थे। दिन का तीसरा पहर हो चला था। अचानक पैर के अंगूठे में तीव्र आघात के साथ दर्द व जलन की लहर उठी ! महसूस हुआ, जैसे सैंकड़ों बिच्छुओं के दंश आ लगे हों ! कुछ समझें, इसके पहले ही एक मानवाकृति हाथ जोड़े, आँखों में आंसू लिए, मृग के धोखे में तीर मारने हेतु क्षमायाचना करती, सामने आ खड़ी हुई ! क्षमा तो करना ही था ! पिछले जन्म में रामावतार में इसके बाली रूप को मारने का प्रतिकार तो होना ही था ! कर्मफल और विधि का विधान सबके लिए एक हैं ! आज सोमनाथ के निकट करीब पांच किमी की दुरी पर स्थित इस जगह को भालका तीर्थ के नाम से जाना जाता है।
सब साफ हो चला था। गांधारी बुआ के श्राप का 36वां साल आ चुका था। समय बहुत कम था। सागर भी द्वारका को लीलने के लिए आतुर बैठा था ! श्रीकृष्ण ने आबालवृद्ध, महिला, अशक्त सबको द्वारका से ले जाने के लिए अर्जुन को तुरंत बुलवाने हेतु जरा और दारुकी को अर्जुन के नाम संदेश दे तुरंत रवाना किया। । तभी उन्होंने देखा सागर किनारे दाऊ अधलेटे पड़े हैं और उनकी नाक से एक शुभ्र सर्प, जो धीरे-धीरे वृहदाकार होता जा रहा था, सागर में समा रहा है ! आदिशेष भी अपने प्रभु की अगवानी हेतु बैकुंठ की ओर प्रयाण कर रहे थे ! तभी सभी देवी-देवता, अप्सराएं, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि ने आ कर श्रीकृष्ण की आराधना की और प्रभु सब के साथ अपने धाम को लौट गए। कुछ पलों के लिए समय भी ठहर गया ! उसी दिन द्वापर युग का समापन हुआ और कलियुग का पदार्पण ! वह दिन था, 18 फरवरी 3102 ईसा पूर्व !!
जब तक अर्जुन आए, सब कुछ घट चुका था ! दुखी मन, रोते-कलपते अर्जुन ने से श्रीकृष्ण और बलदेव की अंत्येष्टि व अन्य कार्य किसी तरह पूरे किए ! पार्थिव शरीरों को अग्नि दी ! पर क्या प्रभु सारा शरीर पार्थिव था ? अति आश्चर्य की बात थी कि चिता की अग्नि में दोनों का बाकी सारा शरीर तो भस्मीभूत हो गया था, पर श्रीकृष्ण का ह्रदय स्थल जलता हुआ वैसे ही बचा हुआ था ! जन्म से लेकर अब तक एक सौ छब्बीस सालों में जिस दिल ने दिन-रात विपदाएं, मुसीबतें, लांछन, श्राप, द्वेष,बैर झेला हो, उसका पत्थर हो जाना स्वाभाविक ही था ! इसीलिए मांसपेशियों के आग पकड़ने के बावजूद वह भस्म नहीं हो पा रहा था ! या फिर यह भी प्रभु की लीला का एक अंग था, जगत की रक्षा हेतु ! समय कम था, सो भस्मी के साथ ही उस पिंड को उसी अवस्था में नदी में विसर्जित कर, अर्जुन बचे हुए द्वारका वासियों, जिनमें श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ के अलावा श्रीकृष्ण जी की सोलह हजार रानियां, कुछ महिलाएं, वृद्ध और बालक ही शेष रह गए थे, को अपने साथ ले इन्द्रप्रस्थ के लिए रवाना हो गए।
इधर शरीर के उस हिस्से ने दैवेच्छा से बहते-बहते एक काष्ठपिण्ड का रूप ले लिया। जिसे राजा इन्द्रद्युम्न ने प्रभु के आदेशानुसार भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में स्थापित किया। आज भी जब शास्त्रोक्त विधि से जगन्नाथ धाम, पुरी में नई मूर्तियों का निर्माण होता है तो प्राणप्रतिष्ठा के समय बहुत गुप्त रूप से एक पवित्र क्रिया संपन्न की जाती है, जिसका ब्यौरा एक-दो मुख्य पुजारियों को छोड़ किसी को भी ज्ञात नहीं है ! वे पुजारी भी इसे गुप्त रखने के लिए वचनबद्ध हैं ! क्या है वह गोपनीय, पवित्र प्रक्रिया ? क्या प्रभु का दिल आज भी हमारी रक्षा हेतु धड़क रहा है.........?
@सभी चित्र अंतर्जाल के सौजन्य से
संदर्भ - विभिन्न ग्रंथ, पुस्तकें, कथाएं व उपकथाएं
37 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया जानकारी दी आपने भगवान श्री कृष्ण के बारे में।
शिवम जी
अनेकानेक धन्यवाद
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (8 -6-21) को " "सवाल आक्सीजन का है ?"(चर्चा अंक 4090) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
कामिनी जी
सम्मिलित करने हेतु आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार
रोचक जानकारी...
विकास जी
हार्दिक आभार। आपका सदा स्वागत है
गगन शर्मा जी कितना गहन लिखते हैं, लयबद्वता भी बहुत प्रमुख है...मैं पढ़ता ही गया, बहुत गहरा लेखन....। बहुत बधाई स्वीकार कीजिएगा।
रोचक प्रस्तुति ।
अमृत लाल नगर जी की पुस्तक बहुत नचायो गोपाल पढ़ी थी । वैसे भी कृष्ण से संबंधित अनेक पुस्तकें पढ़ी हैं । उसमें भी इस संदर्भ को पढ़ा था । उसमें उद्धव का भी ज़िक्र था । जब श्री कृष को पैर में तीर लगा तो उद्धव को बुला कर कहा कि गोकुल जा कर राधा को संदेश दे दें ।
गीता के अध्याय- 9 के श्लोक-32 के अनुसार -
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य
येऽपि स्यु: पापयोनय: ।
स्त्रियो वैश्वास्तथा शूद्रा-
स्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ।।32।।
यानी-
हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयानि- चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरी शरण होकर परमगति को ही प्राप्त होते हैं ।।32।।
"स्त्री" को वैश्य, शूद्र या पापयोनि के वर्ग में रखने औचित्य क्या हो सकता है भला ! ...
सराहना से परे।
मुग्ध करता सृजन।
सादर
संदीप जी
इतना प्रेम, इतना स्नेह, अभिभूत कर रख देता है! कभी-कभी लगता है कि इस लायक हूं भी क्या! ऐसी स्नेहिल प्रतिक्रिया किसी भी बडे से बडे सम्मान या उपहार से भी बढ कर है।
संगीता जी
ब्लाॅग पर आपका सदा स्वागत है
सुबोध जी
आप तो खुद विद्वान हैं! पर क्या हम उस विशाल, गहन, अलौकिक चरित्र का शतांश भी समझने लायक या सक्षम हैं ? वैसे भी अपनी लीला में उन्होंने सदा ही महिलाओं का आदर, सम्मान और रक्षा ही की है
अनीता जी
बहुत-बहुत आभार
श्रीकृष्ण जी के अंतिम दिन और उससे पूर्व घटनाक्रम की सम्पूर्ण लीला प्रस्तुति हेतु धन्यवाद आपका!
कविता जी
हार्दिक आभार ! ब्लॉग पर आपका सदा स्वागत है
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बहुत ही सारगर्भित एवं रोचक प्रस्तुति...
भगवान श्रीकृष्ण के बारे में बहुत कुछ सचना एवं पढ़ा है परन्तु आपकी लेखनी की बात ही अलग है...शुरू से अंत तक तारतम्यता ...बहुत ही रोचक शैली में...
लाजवाब प्रस्तुति हेतु बधाई एवं शुभकामनाएं।
प्रारब्धों से स्वयं प्रभु भी नहीं बच पाते, हो सकता है वापस प्रस्थान के लिए रचित कोई लीला हो पर मानव रूप में मानव के समान ही सभी आचरण किए।
बहुत रोचक कथा ,द्वापर के अंत और कलियुग के शुरुआती घटना क्रम, श्री कृष्ण कथा बहुत तारतम्य से लिखी है आपने।
सुंदर।
सिमरन जी
शुभकामनाएं
सुधा जी
अनेकानेक धन्यवाद व आभार
कुसुम जी
ऐसा गूढ, गहन, रहस्यात्मक, मनमोहक व प्रेमल चरित्र शायद ही कोई दूसरा हो
बहुत हृदयस्पर्शी पौराणिक कथा । बचपन में माँ को पढ़ते और भाव विह्वल होते देखा था । आज वहीं स्मृतियाँ मनमस्तिष्क में साकार हो उठीं ।
बिल्कुल सच मीना जी!
लिखते-लिखते मन भारी हो गया था! इतना महान व्यक्तित्व!जाते-जाते भी सबका ख्याल, सबकी मान-मर्यादा का ध्यान रखा
शुरू से आख़िर तक एक लय में बांधे रहा आपका यह आलेख । बहुत कुछ नया,रोचक तथा मनुष्य के जीवन को भगवान कृष्ण के चरित्र के द्वारा परिमार्जित कार्य हुआ लेखन,मन बाग बाग हो गया । सुंदर लेख के लिए हार्दिक शुभकामनाएं आपको गगन जी ।
Gyanwardhak, Jankariyukt, Adbhut rachna. Shubhkamnaen
Bahut sundar jankari
रोचक प्रसंगों से परिचित कराता रोचक लेख 🙏
जिज्ञासा जी
हार्दिक आभार! उनका चरित्र है ही इतना रोचक कि कभी मन नहीं भरता।
अनेकानेक धन्यवाद, कदम जी
स्वागत है आपका, चेतन जी
सुशील जी
हार्दिक आभार
शरद जी
"कुछ अलग सा" पर सदा स्वागत है आपका
दिव्य सृजन - - आध्यात्मिक इतिहास को गहनता के साथ प्रस्तुत करने हेतु असंख्य धन्यवाद, प्रभावशाली लेखन।
शांतनु जी
प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार
बहुत रोचक शैली में महाभारत कालीन बढ़िया वर्णन।
ज्योति जी
हार्दिक आभार
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