कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी. टी. रोड पकड दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छुट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी थी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी............!
#हिन्दी_ब्लागिंग
शतरंज बड़ा अजीब खेल है ! इसमें खेलने वाले से ज्यादा, देखने वालों को चालें सूझती हैं।
:
बंगाल, यहां के बारे में मशहूर था कि बंगाल बाकी देश के पहले ही भविष्य भांप लेता है ! इसीलिए हर बंगवासी में एक उत्कृष्टता का भाव बना ही रहता था।
:
उन दिनों कलकत्ता (आज का कोलकाता) और उपनगरीय इलाकों के तक़रीबन हर ''पाड़े'' में एक क्लब हुआ करता था, जिसमें कैरम, ताश, शतरंज जैसे अंतरदरवाजीय खेलों के साथ ही हर प्रकार की बहस-मुसाहिबी का भी इंतजाम रहता था। जहां शाम घिरते ही इलाके के दादा (मुंबइया अर्थ से ना जोड़ें), दिन भर की एकरूपता से ऊबे भद्रलोक, समाज की विसंगतियों से आक्रोशित युवा, विवाह रूपी बंधनों से मुक्त अधेड़, दिशाहीन कुंठित युवक, तथाकथित छुटभइए नेता आदि उस छोटे से कमरे में उधार की चाय पीने के लिए आ जुटते थे। दुनिया भर की बातों पर धुंआधार गोष्ठियां होतीं, तीखी बहसें आग उगलने लगती, व्यवस्था के विरोध में तकरीरें सामने आने लगतीं। कभी-कभी तो लगता कि आज देश को नई दिशा और नेतृत्व मिल कर ही रहेगा। ऐसा माहौल तकरीबन बंगाल के सारे अड्डों में पाया जाता था। भड़ास निकल जाने के बाद बाबू लोग निकल पडते अपने-अपने घरों की ओर, भात खा, सुबह के दफ्तर की चिंता में चश्मा, छाता, सुंघनी, रुमाल, धोती-कमीज को सरिया, सोने के लिए ! यह दिनचर्या भी करीब-करीब सब जगह कमोबेस ऐसी ही होती थी।
पर इन सब के बीच कुछ लोग हर तरफ से निस्पृह रह, सिर्फ और सिर्फ अपने मनपसंद खेलों में ही आपाद-मस्तक डूबे रहते थे ! उन्हें आस-पास के शोर-शराबे से कोई मतलब नहीं हुआ करता था। लोकप्रियता में कैरम और ताश के बाद शतरंज का नंबर आता था। इसे चाहने वाले भी बहुत होते थे। पर एक समय में खेल सिर्फ दो जने ही सकते थे ! सो पहले आओ, पहले पाओ की तर्ज पर दो जने हक़ जमा लेते थे बिसात पर ! अपने को सर्वोपरि, विलक्षण, विश्वनाथन आनंद के समकक्ष मानने वाले बाकी लोग न खेल पाने की कुंठा लिए सिर्फ घेर पाते थे मेज को चारों ओर से दर्शक बन। ऐसा भी तक़रीबन सभी क्लबों में होता था। पर जो कभी किसी जगह नहीं हुआ, वह हो गया बेलघरिया के एक पाड़े के एक क्लब में ! जहां और जगहों की बनिस्पत शतरंज लोकप्रियता में पहले स्थान पर था। सुस्त व जोश रहित होने के बावजूद वहां इसकी जटिलता, सैंकड़ों व्यूह रचनाओं, त्वरित सोची जाने वाली हजारों-हजार चालों से बनते-बिगड़ते नक्शों की भूल-भुलैया के इंद्रजाल में गाफिल आत्मश्लाघि दिग्गजों और समर्पित आशिकों की मात्रा भी बेहिसाब थी।
कोलकाता के श्याम बाजार इलाके से बी.टी. रोड पकड़ दक्खिनेश्वर पहुंच, डनलप ब्रिज पार करने के उपरांत आता है चिड़िया मोड़ का चौराहा। जहां से एक सड़क दायीं ओर निकल जाती है दमदम एयर पोर्ट की तरफ। यहीं से बाएं मुड़ने पर करीब साढ़े तीन सौ मीटर दूर भीम चंद्र नाग की मिठाई की दूकान से लगी सर्पाकार गली, जो गंगा किनारे तक चली गई है, के बीचो-बीच स्थित है छेनू बाबू का मोहल्ला ! जिसके मुहाने पर पंडित जी की चाय और देबू की छूट-पुट चीजों के खोखे से चार मकान छोड़ एक दुमंजिला इमारत के दालान को घेर कर एक बड़े कमरे का रूप दे उसी को क्लब का नाम दे दिया गया है। इसी मोहल्ले के इसी क्लब में घटी वह घटना, जो बंगाल के शतरंज के खेल के इतिहास में अनोखे शब्दों में दर्ज हो गयी।
विश्व के शतरंज के खेल में विश्वनाथन के पदार्पण की धमक सुनाई देने लगी थी। जिसकी आहट से उसके कोच, साथी खिलाड़ीयों के साथ-साथ विश्व के दिग्गज भी अचंभित थे। जाहिर है इसका असर देश के सिखिए-नौसिखिए खिलाड़ियों पर पडना ही था सो पड़ा ! और ऐसा पड़ा कि गली-कूचे-मौहल्ले के सभी शतरंजिए अपने आप में आनंदित हो अपने को विश्वविजेता ही समझने लग गए। इसका असर हमारे छेनू बाबू वाले क्लब पर भी तो पड़ना ही था। सो वहां खेलने वाले दो और उन्हें चाल समझाने वाले पचीसों हो गए। खेल के दौरान तरह-तरह की सलाहें दी जाने लगीं। कभी-कभी तो सलाहकारों में आपस में ही अपनी सलाह और उसकी सटीकता पर बहसबाजी हो जाती। दिन ब दिन दर्शकों का हस्तक्षेप बढ़ता ही चला जाने लगा। ऐसे में खेलने वालों की एकाग्रता पर असर पड़ना ही था ! धीरे-धीरे खेलना दूभर होता जाने लगा। अति हो जाने पर किसी कड़े नियम के प्रावधान के होने की जरुरत शिद्दत से महसूस की जाने लगी ! इसीलिए एक दिन सभी मेम्बरों की आपात बैठक बुला कर इस समस्या पर विचार किया गया ! काफी जद्दो-जहद के बाद सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पास कर दिया गया कि खेल के दौरान यदि कोई अनावश्यक हस्तक्षेप करेगा तो उसकी नाक क्षत कर दी जाएगी। प्रस्ताव की गंभीरता को दिखाने के लिए एक नया, तेज, नोकीला चाक़ू भी ला कर कप बोर्ड पर सजा दिया गया।
उक्ति काम कर गई ! लोग कुलबुलाते तो बहुत थे पर सलाह देने की हिम्मत नहीं कर पाते थे। खिलाड़ी शांति के साथ, बिसात पर अपने हुनर का प्रदर्शन करने का सुख पाने लगे। पर वह जादू ही क्या, जो सर चढ़ कर ना बोले ! अभी महीना भी नहीं गुजरा था, पंद्रह-बीस दिन ही हुए थे कि एक शाम शांतनु चटर्जी और बिमल दा, जोकि यहां के बेमिसाल और सर्वमान्य विजेता थे और इसी कारण कुछ लोगों की ईर्ष्या का वायस भी, की बाजी फंस गई ! आज पहली बार शांतनु को बढ़त प्राप्त थी ! पर काफी देर से उसे खेल ख़त्म करने का रास्ता नहीं सूझ रहा था। घडी की सूई लोगों का रक्तचाप बढ़ाए जा रही थी। तभी एक अप्रत्याशित घटना घट गई ! अचानक कन्हाई ने आगे बढ़ कर कहा, भले ही मेरी नाक क्षत हो जाए पर यह शह और यह मात ! इतना कह उसने शांतनु के घोड़े से बिमल दा के ऊँट को विस्थापित कर दिया !
वहां फिर जो हुआ सो हुआ ! क्या हुआ इसका अंदाजा लगाते रहिए ! पर यह स्थापित हो गया कि शतरंज एक अजीबो-गरीब खेल था ! है ! और रहेगा !
4 टिप्पणियां:
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (28 -4 -2020 ) को " साधना भी होगी पूरी "(चर्चा अंक-3684) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
---
कामिनी सिन्हा
कामिनी जी
पोस्ट साझा करने हेतु अनेकानेक धन्यवाद
आपका अंदाज़ अगल सा ही है ...
बहुत खूब ...
नासवा जी
आपका सदा स्वागत है
एक टिप्पणी भेजें