इन सब आयोजनों में जैसे खाना-पीना और चाय वगैरह होता है, वैसे ही घंटे भर के लिए ''पंडत जी'' का प्रवचन ! पंजाब भी विदेश बन गया है ! जैसे विदेशों में बसे प्रवासियों को अपने धार्मिक कार्यों के लिए एक अदद संस्कृत उवाचने वाले की जरुरत पड़ती है और उसके लिए कई ''रसूख'' वाले यहां से निर्यात हो चुके हैं, वैसे ही पंजाब के भीतरी हिस्सों में बसे इलाकों में तथाकथित पंडित आयात हो चुके हैं। जो अपनी वाक्पटुता से वहां के लोगों को प्रभावित कर लेते हैं .................!
#हिन्दी_ब्लागिंग
हिंदू धर्म में किसी की मृत्युपरांत भी बहुत से कर्मकांडों का निर्वाह किया जाता है। जैसे चौथा, पगड़ी, सोलहवां इत्यादि। इन सब का अपना-अपना महत्व तो है ही पर जहां अन्य रस्मों पर सिर्फ परिवार के सदस्यों के होने से ही काम हो जाता है। वहीं पगड़ी रस्म, जो मृत्यु के दसवें दिन निभाई जाती है, पर नाते-रिश्तेदारों, कुटुम्बियों और मित्रजनों की उपस्थिति आवश्यक होती है। यदि दिवंगत घर का मुखिया रहा हो तो उन्हीं की उपस्थिति और साक्षी में मृतक के पश्चात घर के बड़े सदस्य को पगड़ी बांध कर परिवार का मुखिया घोषित किया जाता है। सारी कार्यवाई किसी पंडित जी के मार्गदर्शन में ही की जाती है, जिसके लिए करीब एक घंटे का समय तय रहता है।
इसी तरह की एक पगड़ी रस्म पर पंजाब के एक शहर बनते गांव में जाना हुआ। अब जैसा की चलन है, पगड़ी बांधने से पहले पंडित जी द्वारा कुछ प्रवचन, उपदेश तथा दिवंगत के बारे में जानकारी और श्रद्धांजलि दी जाती है। तयशुदा समय में पंडित जी नेअपना रटा-रटाया प्रवचन सुनाना शुरू कर दिया। उनके दो-चार वाक्यों के बाद ही अंदाज हो गया कि ये जनाब पंजाब के नहीं हैं। उनके उच्चारण किसी पहाड़ी या बंगाली से मिलते-जुलते थे। फिर उसमें व्याकरण और शाब्दिक अशुद्धियां भी महसूस हो रही थीं। हालांकि बीच-बीच में वे पंजाबी का भी भरपूर उपयोग कर रहे थे। मैं भी कोई संस्कृत का विद्वान नहीं हूँ, नाहीं इसका पूरा ज्ञान है, फिर भी गायत्री मंत्र, गणेश स्तुति या त्वमेव माता च पिता त्वमेव जैसे बेहद सरल, आम व बहु प्रचलित श्लोक में भी कुछ खटक सा गया ! वहां उपस्थित अढ़ाई-तीन सौ लोगों को इन सबसे कोई मतलब नहीं था। पूर्णतया पंजाबी भाषी इलाके में जहां हिंदी पर ही ध्यान नहीं दिया जाता वहां ऐसी बातों पर कौन ध्यान देता ! खैर, कार्यक्रम की समाप्ति पर मैं पंडित जी से मुखातिब हुआ और बिना लाग-लपेट के पूछ लिया कि आप कहां से हो ?
उन्होंने कहा, यहीं से !
मैंने कहा, लगता तो नहीं !
उन्होंने गौर से एक बार मुझे देखा और कहा, मैं नेपाल से हूँ।
ना चाहते हुए भी मैंने कह ही दिया कि भाषा पर और ध्यान देने की जरुरत है !
तब तक कुछ लोग उत्सुकता पूर्वक इकट्ठा हो गए थे, इसलिए वार्तालाप को वहीं ख़त्म कर पंडित जी को राहत की सांस लेने का मौका दे दिया।
सारे वाकये का लब्बो-लुआब यह है कि इस तरह के धार्मिक कार्यक्रमों का संचालन किसी योग्य, ज्ञानी और जानकार इंसान के द्वारा होना चाहिए। इस तरह के नीम पंडित अपने अधूरे ज्ञान, अधूरी जानकारी और बिना भाषा पर नियंत्रण के, लोगों की निरपेक्षता, धर्मभीरुता और कुछ-कुछ अज्ञानता का लाभ उठाते हुए अपना काम बदस्तूर चलाए जा रहे हैं। अब कहां नेपाल और कहां पंजाब का एक सुदूर गांव ! गांव के लोग, जिनके लिए विदेश में बसे आपनजन की खबर और अपना जीविकोपार्जन ही सबसे बड़ा लक्ष्य हो उनके लिए यह सब बातें कोई मायने नहीं रखतीं ! चूँकि यह कर्मकांड करने जरुरी माने जाते हैं, इसी धारणा के तहत इन्हें निपटा दिया जाता है ! उनके लिए इन सब आयोजनों में जैसे खाना-पीना और चाय वगैरह होता है, वैसे ही घंटे भर के लिए ''पंडत जी'' का प्रवचन ! अब कैसे-कब-किस तरह ये पंडित जी यहां आए, कैसे लोगों को प्रभावित किया, कैसे स्थापित हो गए, वह एक अलग विषय है। यह कहानी पंजाब के अधिकांश ग्रामों की है, जहां ऐसे पंडत अपना अड्डा बना चुके हैं। पंजाब भी विदेश बन गया है ! जैसे विदेशों में बसे प्रवासियों को अपने धार्मिक कार्यों के लिए एक अदद संस्कृत उवाचने वाले की जरुरत पड़ती है और उसके लिए कई ''रसूख'' वाले यहां से निर्यात हो चुके हैं, वैसे ही पंजाब के भीतरी हिस्सों में बसे इलाकों में तथाकथित पंडित आयात हो चुके हैं। उनका भी शायद यही लक्ष्य है कि यहां लोगों के सामने प्रैक्टिस कर उनके प्रभाव से किसी तरह विदेश गमन हो सके !
2 टिप्पणियां:
बिलकुल सही कहा आपने ,आज कल ये कर्मकांड सिर्फ खानापूर्ति भर रह गई हैं ,सादर नमन आपको
कामिनी जी, नमस्कार
सभी धीरे-धीरे खुद में सिमटते जा रहे हैं ! मजबूरीवश यदि कुछ करना भी पड़ता है तो बेगार ही टाली जाती है ! इसी का फायदा कुछ चंट लोग उठा लेते हैं
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