पांच-छह साल के सात-आठ बच्चों का समूह ! जो बिना किसी जंतर-पाती (instruments) के खेलों से लेकर अमरुद की टेढ़ी डालियों से बनी हॉकी, ईंटों के विकेट वाली क्रिकेट, सबसे सस्ता खेल फ़ुटबाल, हर खेल खेलता था। पूरी फौज में हथियार यानी क्रिकेट का बैट मेरे ही पास होता था फिर ऊपर से मकर राशि ! जाहिर है सबका अगुआ कायनात ने मुझे ही निश्चित किया हुआ था ! पर यह जबरदस्ती की अगुआई भारी भी पड़ती थी ! कहीं जो गलत-सलत हुआ (जो अक्सर होता ही रहता था) तो डांट-डपट और कभी-कभी....भी मेरे ही हिस्से आती थी। क्योंकि समय तो साथियों का भी आता ही था ना ! समय के साथ हथियार तो कॉमन हो गए पर परंपरा रिलायंस तक जारी रही ............
#हिन्दीब्लागिंग
साठ-इकसठ का समय, लक्ष्मीनारायण जूट मिल, कोननगर, प. बंगाल !
लगभग एक से पहरावे, घुटने तक की चौड़ी सी ढीली-ढाली निक्कर और बुश्शर्ट। कभी-कभी तो गर्मी के कारण सिर्फ कोहनी तक की बनियान (निक्कर के साथ) ! स्कूल में तक़रीबन एक क्लास आगे-पीछे पढ़ने वाले पांच-छह साल के सात-आठ बच्चों का समूह ! जो बिना जंतर-पाती के खेलों से लेकर अमरुद की टेढ़ी डालियों से बनी हॉकी, ईंटों के विकेट वाली क्रिकेट, सबसे सस्ता खेल फ़ुटबाल, हर खेल खेलता था। पर विशाल परिसर, पेड़-पौधे उद्यान, घनी झाड़ियां ''चोर-पुलिस'' के लिए बड़े मुफीद थे और यही सबसे ज्यादा खेला जाने वाला खेल भी था। पूरी फौज में हथियार यानी क्रिकेट का बैट मेरे ही पास होता था फिर ऊपर से मकर राशि ! जाहिर है सबका अगुआ मुझे ही होना था ! पर यह जबरदस्ती की अगुआई भारी भी पड़ती थी ! कहीं जो गलत-सलत हुआ (जो अक्सर होता ही रहता था) तो डांट-डपट और कभी-कभी....भी मेरे ही हिस्से आती थी।
तो बात हो रही थी "चोर-पुलिस'' की जिसमें अपनी पारी पर किसी एक को अपने छिपे हुए साथियों को खोजना पड़ता था और पहले किसी भी साथी को देख लेने पर खेल ख़त्म हो जाता था, अगली पारी की शुरुआत के लिए। पर रोज-रोज के एक जैसे ढर्रे से उकता एक दिन मेरे मन में एक नया विचार आया कि क्यों ना खेल को लंबा किया जाए ! उसके लिए जुगत निकाली कि अबसे किसी एक छिपे हुए साथी को नहीं बल्कि खेलने वाले सभी साथियों को ढूंढना पडेगा और इसी बीच यदि ढूंढने वाले के बिना जाने उसकी पीठ पर, किसी बिन खोजे खिलाड़ी ने ''थप्पा'' दे दिया तो उस खोजने वाले को फिर से अपनी ''दान'' देनी पड़ेगी। आयडिया क्लिक कर गया और बहुत पॉपुलर हुआ ! जब एक-डेढ़ साल बाद रिलायंस आना हुआ तो ये भी मेरे साथ वहां आ, स्थापित हो गया।इसका नाम आइस-पाइस भी शायद यहीं आकर पड़ा ! कैसे और क्यूँ यह बिलकुल याद नहीं। कभी-कभी लगता है कि इस ''देश प्रसिद्ध खेल'' की ईजाद मैंने ही तो नहीं की थी !
रिलायंस में हम कुछ बड़े भी हो गए थे और ''चतुर'' भी ! इसी चतुराई की तहत कई बार यदि किसी छिपे हुए प्रतिभागी को भूख लग जाती थी या दीर्घ शंका हो जाती थी तो वह चुपचाप घर सटक लेता था और खोजने वाला बेचारा बिना फल की चिंता किए हुए उसे झाडी-झाडी, पत्ते-पत्ते के नीचे खोजता हुआ अपना कर्म करता रह जाता था ! अभी ऐसे एक महान प्रतियोगी का नाम जो मुझे याद है वह था हरषन या हरीश भंडारी ! यह खेल अपने चरम पर तब पहुंचा जब 65 के भारत-पाक युद्ध के दौरान फ्लैटों के सामने पूरे लॉन में सर्पीली ट्रेंचेस (खन्दक) खोद दी गयीं थीं। उन दिनों सारे घरों के शीशों पर कागज चढ़ा दिया गया था, खंबों पर लगे बल्बों को कवर कर दिया गया था ! रौशनी सिर्फ उतनी जितने की बहुत ही जरुरत हो ! उन दिनों के बच्चों पर अघोषित रूल लागू था जिसके तहत शाम को छह-साढे छह बजते-बजते घर आ जाना जरुरी होता था। पर उन दिनों जब सब जगह बाहर निकलने की सख्ती और पाबंदी लगी हुई थी, परिसर में बच्चों को बाहर निकलने की छूट सी मिल गयी थी। सुरमयी अँधेरे का माहौल, छिपने के लिए खन्दकें, दर्शकों के रूप में काका-चाचा लोग ! खेल अपने पूरे शबाब पर !
अब जब कभी मन उचाट हो जाता है या अजीब सी बेचैनी तारी हो जाती है तो दिलो-दिमाग को बरबस खींच कर ले जाता हूँ उन्हीं दिनों की यादों में, उन्हीं सुखद पलों के बीच उन्हीं जिंदगी के सबसे हसीन क्षणों में और फेंक देता हूँ अपने-आप को उसी तरण ताल में !