गुरुवार, 26 सितंबर 2019

ढीली-ढीली सी वो निक्कर, खुली-खुली बनियान..

पांच-छह साल के सात-आठ बच्चों का समूह ! जो बिना किसी जंतर-पाती (instruments) के खेलों से लेकर अमरुद की टेढ़ी डालियों से बनी हॉकी, ईंटों के विकेट वाली क्रिकेट, सबसे सस्ता खेल फ़ुटबाल, हर खेल खेलता था। पूरी फौज में हथियार यानी क्रिकेट का बैट मेरे ही पास होता था फिर ऊपर से मकर राशि ! जाहिर है सबका अगुआ कायनात ने मुझे ही निश्चित किया हुआ था ! पर यह जबरदस्ती की अगुआई भारी भी पड़ती थी ! कहीं जो गलत-सलत हुआ (जो अक्सर होता ही रहता था) तो डांट-डपट और कभी-कभी....भी मेरे ही हिस्से आती थी। क्योंकि समय तो साथियों का भी आता ही था ना ! समय के साथ हथियार तो कॉमन हो गए पर परंपरा रिलायंस तक जारी रही ............

#हिन्दीब्लागिंग 
साठ-इकसठ का समय, लक्ष्मीनारायण जूट मिल, कोननगर, प. बंगाल !
लगभग एक से पहरावे, घुटने तक की चौड़ी सी ढीली-ढाली निक्कर और बुश्शर्ट। कभी-कभी तो गर्मी के कारण सिर्फ कोहनी तक की बनियान (निक्कर के साथ) ! स्कूल में तक़रीबन एक क्लास आगे-पीछे पढ़ने वाले पांच-छह साल के सात-आठ बच्चों का समूह ! जो बिना जंतर-पाती के खेलों से लेकर अमरुद की टेढ़ी डालियों से बनी हॉकी, ईंटों के विकेट वाली क्रिकेट, सबसे सस्ता खेल फ़ुटबाल, हर खेल खेलता था। पर विशाल परिसर, पेड़-पौधे उद्यान, घनी झाड़ियां ''चोर-पुलिस'' के लिए बड़े मुफीद थे और यही सबसे ज्यादा खेला जाने वाला खेल भी था। पूरी फौज में हथियार यानी क्रिकेट का बैट मेरे ही पास होता था फिर ऊपर से मकर राशि ! जाहिर है सबका अगुआ मुझे ही होना था ! पर यह जबरदस्ती की अगुआई भारी भी पड़ती थी ! कहीं जो गलत-सलत हुआ (जो अक्सर होता ही रहता था) तो डांट-डपट और कभी-कभी....भी मेरे ही हिस्से आती थी।

तो बात हो रही थी "चोर-पुलिस'' की जिसमें अपनी पारी पर किसी एक को अपने छिपे हुए साथियों को खोजना पड़ता था और पहले किसी भी साथी को देख लेने पर खेल ख़त्म हो जाता था, अगली पारी की शुरुआत के लिए। पर रोज-रोज के एक जैसे ढर्रे से उकता एक दिन मेरे मन में एक नया विचार आया कि क्यों ना खेल को लंबा किया जाए ! उसके लिए जुगत निकाली कि अबसे किसी एक छिपे हुए साथी को नहीं बल्कि खेलने वाले सभी साथियों को ढूंढना पडेगा और इसी बीच यदि ढूंढने वाले के बिना जाने उसकी पीठ पर, किसी बिन खोजे खिलाड़ी ने ''थप्पा'' दे दिया तो उस खोजने वाले को फिर से अपनी ''दान'' देनी पड़ेगी। आयडिया क्लिक कर गया और बहुत पॉपुलर हुआ ! जब एक-डेढ़ साल बाद रिलायंस आना हुआ तो ये भी मेरे साथ वहां आ, स्थापित हो गया।इसका नाम आइस-पाइस भी शायद यहीं आकर पड़ा ! कैसे और क्यूँ  यह बिलकुल याद नहीं। कभी-कभी लगता है कि इस ''देश प्रसिद्ध खेल'' की ईजाद मैंने ही तो नहीं की थी ! 
इसी सुंदर से लॉन में ट्रेंचेस खोदी गयी थीं 
रिलायंस में हम कुछ बड़े भी हो गए थे और ''चतुर'' भी ! इसी चतुराई की तहत कई बार यदि किसी छिपे हुए प्रतिभागी को भूख लग जाती थी या दीर्घ शंका हो जाती थी तो वह चुपचाप घर सटक लेता था और खोजने वाला बेचारा बिना फल की चिंता किए हुए उसे झाडी-झाडी, पत्ते-पत्ते के नीचे खोजता हुआ अपना कर्म करता रह जाता था ! अभी ऐसे एक महान प्रतियोगी का नाम जो मुझे याद है वह था हरषन या हरीश भंडारी ! यह खेल अपने चरम पर तब पहुंचा जब 65 के भारत-पाक युद्ध के दौरान फ्लैटों के सामने पूरे लॉन में सर्पीली ट्रेंचेस (खन्दक) खोद दी गयीं थीं। उन दिनों सारे घरों के शीशों पर कागज चढ़ा दिया गया था, खंबों पर लगे बल्बों को कवर कर दिया गया था ! रौशनी सिर्फ उतनी जितने की बहुत ही जरुरत हो ! उन दिनों के बच्चों पर अघोषित रूल लागू था जिसके तहत शाम को छह-साढे छह बजते-बजते घर आ जाना जरुरी होता था। पर उन दिनों जब सब जगह बाहर निकलने की सख्ती और पाबंदी लगी हुई थी, परिसर में बच्चों को बाहर निकलने की छूट सी मिल गयी थी। सुरमयी अँधेरे का माहौल, छिपने के लिए खन्दकें, दर्शकों के रूप में काका-चाचा लोग ! खेल अपने पूरे शबाब पर !

अब जब कभी मन उचाट हो जाता है या अजीब सी बेचैनी तारी हो जाती है तो दिलो-दिमाग को बरबस खींच कर ले जाता हूँ उन्हीं दिनों की यादों में, उन्हीं सुखद पलों के बीच उन्हीं जिंदगी के सबसे हसीन क्षणों में और फेंक देता हूँ अपने-आप को उसी तरण ताल में ! 

सोमवार, 16 सितंबर 2019

बायोमिमीक्री ! यह क्या चीज है.?

मानव-हितार्थ आविष्कारों के दौरान बहुतेरी बार ऐसा हुआ कि इस तरह के उपक्रमों में कई-कई तरह की अड़चनें व बाधाएं भी आ खड़ी होने लगीं ! उनको दूर करने के प्रयासों में वैज्ञानिकों ने पाया कि उनकी समस्या का हल कुदरत ने उससे मिलती-जुलती कई चीजों के तत्व, अवयव या नमूनों में पहले से दे रखा है ! इसके अलावा वे मानव-निर्मित यंत्रों की तुलना में हलकी, लचीली और मज़बूत तो होती ही हैं, उनसे कहीं भी, किसी तरह का प्रदूषण भी नहीं होता ! उनको अमल में लाया गया और परिणाम यह रहा कि आज के बेहतरीन आविष्कारों में से बहुत-से ऐसे हैं जो कुदरत में पाए जानेवाले जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की नकल करके ही बनाए जा सके हैं...................!

#हिन्दी_ब्लागिंग   
मिमिक्री,  जिसका सीधा-सरल अर्थ होता है किसी की नक़ल, स्वांग या अनुकरण करना। यानी नामी-गिरामी नेताओ, अभिनेताओं, गायकों, जीव-जंतुओं इत्यादि की आवाज, उनके हाव-भाव, चाल-ढाल की नक़ल ! शायद ही कोई होगा जिसने कभी किसी की, किसी के द्वारा मिमिक्री ना देखी सुनी हो ! कुछ लोग तो इसी विधा के चलते नामी ''कलाकार'' बन नाम और शोहरत बटोरते चले गए। पर आज यहां एक दूसरी तरह की मिमिक्री की चर्चा हो रही है और वह है बायोमिमीक्री ! जिसको हिंदीं में  ‘‘जैव अनुकृतिकरण’’ कहा जाता है। यानी कुदरत की रचनाओं की वह नक़ल जो मानव निर्मित यंत्रों को सुधारने-बनाने में उपयोगी सिद्ध होती है। इसको बायोमिमेटिक्स भी कहा जाता है।    


क्या होती है बायोमिमिक्री या बायोमिमेटिक्स ! वैसे तो यह एक लंबा-चौड़ा विषय है, मगर  संक्षेप में देखें तो जब समय के साथ-साथ मानव हित और उसके उपयोग के लिए तरह-तरह के आविष्कार जीवन के हर क्षेत्र में होने लगे, तब बहुतेरी बार ऐसा हुआ कि इस तरह के उपक्रमों में कई-कई तरह की अड़चनें व बाधाएं भी आ खड़ी होने लगीं ! उनको दूर करने के प्रयासों में वैज्ञानिकों ने पाया कि उनकी समस्या का हल कुदरत ने उससे मिलती-जुलती कई चीजों के तत्व, अवयव या नमूनों में पहले से दे रखा है ! इसके अलावा वे मानव-निर्मित यंत्रों की तुलना में हलकी, लचीली और मज़बूत तो होती ही हैं, उनसे कहीं भी, किसी तरह का प्रदूषण भी नहीं होता।उदाहरण के लिए एक हड्डी और उतने ही वज़न के स्टील की तुलना में हड्डी ज़्यादा मज़बूत होती है ! देखा जाए तो इस तरह की नक़ल की शुरुआत तब ही हो गयी थी जब लिओनार्दो दा विंची ने पक्षियों की उड़ान को देख उड़ने की कोशिश की थी ! हालांकि वह सफल नहीं हुआ पर उसकी कल्पना आगे चल कर जरूर साकार हो गयी। आज इस विज्ञान का मकसद प्रकृति में पाई जानेवाली चीज़ों की नकल करके अपने यंत्रों में सुधार के साथ-साथ नयी मशीनों का आविष्कार करना भी है। वैसे भी आज के बेहतरीन आविष्कारों में से बहुत-से ऐसे हैं जो कुदरत में पाए जानेवाले जीव-जन्तुओं और पेड़-पौधों की नकल करके किए गए हैं।
लिओनार्दो का सपना 
वेल्क्रो

छिपकली के पंजों की खासियत 
मधुमक्खी की तकनीक 
ऐसे अनगिनत उदहारण हैं जो बताते हैं कि कैसे इस विधा की सहायता से अनगिनत बाधाएं दूर कर यंत्रों को सुगम और उपयोगी बनाया गया है ! आज की सबसे लोकप्रिय, सुलभ, छोटी सी पर बेहद जरुरी ''वेल्क्रो'' नामक तकनीक जो वस्त्रों, बैगों, सूटकेसों इत्यादि के दो हिस्सों को जोड़ने या बंद करने के काम आती है, ख़ास कर जिसका प्रयोग आजकल जूतों के फीतों की जगह बेहद आम है, उसका विचार प्रकृति के एक जंगली, कंटीले फल को देख कर ही आया ! शुरू में जब जापान की बुलेट ट्रेन किसी सुरंग से निकलती थी तो उसकी गति और वातावरण बदलने से एक जोर की धमाकेनुमा आवाज होती थी ! वैज्ञानिको ने खोज के दौरान पाया कि किंगफिशर पक्षी चाहे कितनी भी जोर से पानी में डुबकी क्यों ना लगाए पानी में ज़रा सी भी आवाज नहीं होती ! उन्होंने ट्रेन के इंजिन के अगले भाग को पक्षी के सर और चोंच की शक्ल में ढाला तो आवाज तो कम हुई ही ऊर्जा की भी बचत होने लगी। 
किंग फिशर और रेल इंजन 
गोग की तरह की चढ़ाई 
शार्क की चमड़ी 
रेगिस्तान में पानी का बचाव 
कठफोड़वे को प्रकृति के देन 
छिपकली या गोह के पंजों की संरचना आने वाले समय में इंसान को कांच की दिवार पर चढ़ने लायक बना देगी। दीमकों की बांबी जो एक अद्भुत संरचना है जिसके बाहर का तापमान कुछ भी हो भीतर एक सा ही रहता है, भविष्य में ऊर्जा और पर्यावरण की रक्षा का कारण  होगी। अफ्रिका के मरुस्थल के कीड़े से पानी की बचत सीखने की कोशिश हो रही है। दुनिया की बेहतरीन तैराक शार्क है। जिसका राज उसकी चमड़ी में हैं ! उसका अध्ययन पानी के जहाज़ों, पनडुब्बियों, नौकाओं की गति सुधारने के काम आएगा। कठफोड़वे को ही लें जिसके पेड़ों में छेद करने के एक सेकेण्ड में तक़रीबन 20-22 प्रहार भी उसकी गरदन में बने प्राकृतिक ''शॉक एब्जॉर्बर'' के कारण उसके शरीर को क्षति नहीं पहुँचने देते ! मक्खियों के पर, जुगनुओं की रौशनी, बया का घोंसला, अगर इंसान मकड़ी की तरह का जाल, जो मछली पकड़ने वाले जाल जितना बड़ा हो, बना सके तो उससे एक हवाई जहाज़ को भी आगे बढ़ने से रोका जा सकता है ! क्या-क्या गिना-गिनाया जाए ! कुदरत ऐसी हजारों अद्भुत की संरचनाओं से भरी पड़ी है। निकट भविष्य में वे सब किसी ना किसी रूप में इंसानों के काम आ सकती हैं।  

बुधवार, 11 सितंबर 2019

लखनऊ का आम्बेडकर मेमोरियल पार्क, एक हाथी पालना ही........यहां तो अनगिनत हैं

भव्यता के बावजूद इस जगह को ''पार्क या उद्यान'' कहना बिलकुल सही नहीं होगा क्योंकि 107 एकड़ के क्षेत्र में फैला यह लता-पादप विहीन एक पथरीला परिसर है, जो पूरी तरह से राजस्थान के लाल बलुआ पत्थरों द्वारा निर्मित है। इस मेमोरियल को वास्तुकला की सुंदरता के लिए नहीं, बल्कि इसकी विशालता को देखने के लिए जाना चाहिए, जिसे सामने पाते ही दर्शक अचंभित नहीं स्तंभित हो रह जाता है ! उसके मन में एक ही बात आती है कि इसे मैं पूरी तरह देख भी पाऊंगा या नहीं ! फिर दिमाग में जमा-घटाव शुरू हो जाता है कि क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए ..........!


#हिन्दी_ब्लागिंग 
लखनऊ के गोमती नगर इलाके में स्थित आम्बेडकर मेमोरियल पार्क, जिसका पहले डॉ. भीमराव आम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन प्रतीक स्थल जैसा भारी-भरकम नाम था, को देखने के पश्चात ऐसा अहसास होता है कि यह जगह डॉ. आम्बेडकर को समर्पित होने और ज्योतिराव फूले, नारायण गुरु, बिरसा मुंडा, शाहू जी महाराज, कांशी राम जैसी हस्तियों के कार्यों से जन-जन को परिचित करवाने और उनकी यादों को सहेजने के बावजूद  पूरी तरह से सु.श्री. मायावती जी पर ही केंद्रित है, जिन्होंने अपने कार्यकाल में इसका निर्माण करवाया था। 







सबसे पहली बात तो यह कि इस जगह को ''पार्क या उद्यान'' कहना बिलकुल सही नहीं होगा क्योंकि 107 एकड़ के क्षेत्र में फैला यह लता-पादप विहीन एक पथरीला परिसर है, जो पूरी तरह से राजस्थान के लाल बलुआ पत्थरों द्वारा निर्मित है। इस पर तक़रीबन 700 करोड़ रुपयों का भारी-भरकम खर्च किया गया है। जिसमें साठ वृहदाकार और अनगिनत छोटे-बड़े आकार के हर जगह छाई हाथियों की संरचनाओं, बेशुमार स्तंभों, संग्रहालय, आम्बेडकर स्तूप, सामाजिक परिवर्तन गैलरी तथा कुछ अन्य संरचनाओं जैसे प्रतिबिम्ब व दृश्य स्थल के साथ-साथ कई विभूतियों की आदम कद मूर्तियां भी स्थापित हैं। पर सबसे बड़े आकर्षण के रूप में जिसको पेश किया या करवाया गया है वे हैं विशाल, हाथ में पर्स थामे मायावती की प्रतिमाएं।








यह बात सही है कि सारा परिसर बहुत ही भव्य है ! पर इस मेमोरियल को वास्तुकला की सुंदरता के लिए नहीं, बल्कि इसकी विशालता को देखने के लिए जाना चाहिए, जहां हजारों श्रमिकों, कलाकारों, इंजीनियरों की दिन-रात की मेहनत का परिणाम साफ़ नज़र आता है। अंदर जाते ही दर्शक एक अलग तरह की ही दुनिया में खो जाता है ! वह अचंभित नहीं स्तंभित हो रह जाता है ! उसके मन में एक ही बात आती है कि इतना विशाल ! मैं पूरी तरह देख भी पाऊंगा या नहीं ! फिर दिमाग में जमा-घटाव शुरू हो जाता है कि क्या देखा जाए और क्या छोड़ दिया जाए ! 










उसके साथ ही जो एक और चीज उसे सबसे ज्यादा खटकती है, वह है हरियाली की अत्यधिक कमी ! दूर-दूर तक किसी वृक्ष का नामोनिशान तक नहीं ! जो थोड़ा-बहुत हरापन कुछ क्यारियों में है, वह भी नहीं के बराबर ! अवलोकन के दौरान यदि जरा सी भी गर्मी बढ़ जाए तो यहां आने वालों बुरा हाल हो जाता है। फिर इतने लम्बे-चौड़े परिसर को अच्छी तरह देखने-जानने के लिए काफी समय और श्रम की जरुरत है ! आधी जगहों को देखने-घूमने के बाद ही शरीर जवाब देने लगता है। यह अलग बात है कि परिसर का वातावरण बहुत शांत है  




इसकी सुंदरता-भव्यता-विशालता सब अपनी जगह ठीक हैं पर इसे ले कर ज्यादातर लोगों की राय अब भी यही है कि पूर्वाग्रहों, कुंठा और सत्ता के मद में चूर, पागलपन की हद पार कर अपने विरोधियों को सिर्फ अपनी हैसियत दिखाने के लिए स्वतंत्र भारत में अब तक का किसी भी राज्य में राज्य-प्रमुख द्वारा बहाया गया अपनी प्रकार का यह अकूत धन था ! इसके अलावा इसके निर्माण में हजारों-हजार पेड़ कटे, पर्यावरण को क्षति पहुंची, हरियाली का कोई ध्यान नहीं रखा गया। सिर्फ पत्थरों से ही परिसर को विकसित किए जाने से तापमान में जो बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी उसके हिसाब-किताब का तो एक अलग ही खाता है ! इन सब के इतर जो एक और ख़तरनाक, अनदेखी, भयोत्पादक आशंका उभरती है, वह है जाति-भेद का और गहराना !










इतने विशाल और विस्तृत परिसर के रख-रखाव, देख-रेख को संभालना भी अपने-आप में एक बेहद खर्चीला और श्रमसाध्य कार्य है। इसकी यथास्थिति को बनाए रखना हाथी पालने जैसा हो गया है ! कहां तो एक ही हाथी सारे जमा-खर्च बिगाड़ देता है यहां तो अनगिनत हैं ! धीरे-धीरे इसके रख-रखाव की कमी भी साफ़ झलकती सामने आने लगी है ! जगह-जगह टूट-फूट तो है ही शौचालय की ओर गंदगी भी पसरने लगी है ! अब इसे चाहे किसी ने, कैसे भी, किसीलिए भी बनाया हो, पैसा तो अवाम का ही लगा है ! निरपेक्ष रह कर देखें तो इससे तो इंकार नहीं किया जा सकता कि परिसर अपने आप में खूबसूरत और दर्शनीय तो है ही, जिसे देखने लोग आते भी हैं। वैसे भी वक्त, अरबों रुपये, इंसान की मेहनत को अब यूं ही जाया तो नहीं किया जा सकता। तो सार-संभार में चौकसी तो बरतनी ही जानी चाहिए। जिससे देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों पर विपरीत प्रभाव ना पड़े। 

शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

मुस्कुराइये ? कि आप लखनऊ में हैं

लखनऊ की तहजीब, नफासत, पूरतकल्लुफ़, उसकी जुबान, उसकी भव्यता का जिक्र तो बचपन से ही सुनते आए हैं ! शानो-शौकत, सुंदरता से भरपूर, आदिगंगा के नाम से जानी जाने वाली गोमती नदी के किनारे बसे इस शहर की तुलना कश्मीर से की जाती थी। कहा जाता था कि जो सुकून यहां है वह कहीं और नहीं ! पर लखनऊ जंक्शन पर उतरते ही यह सारी बातें, सारी धारणाएं, सारे ख्यालात धराशाई होते नजर आए...........!

#हिन्दी_ब्लागिंग
पिछले दिनों ''परिकल्पना परिवार'' का सदस्य होने के नाते लखनऊ में आयोजित उसकी वार्षिक महासभा में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे चौथाई सदी से कुछ ज्यादा और आधी सदी से कुछ कम समय पहले एक बार लखनऊ जाने का मौका जरूर मिला था,  पर उस यात्रा की कुछ ही यादें सपनों की मानिंद ही बच पायीं थीं। थोड़ी-थोड़ी भूलभुलैया, कुछ-कुछ गजिंग, ज़रा-ज़रा सी उस चिकन के गुलाबी कुर्ते की छवि जो वहां से लिया गया था। हाँ, एक बात जो कभी भी नहीं भूली वह थी भूलभुलैया के गाइड द्वारा बताई वहां से निकलने की राजदारी ! जिसका उपयोग कर इस बार के गाइड को चकित कर दिया !

आप यदि पहली बार या वर्षों बाद कहीं जाते हैं तो दिमाग में उस जगह की एक छवि, उसके बारे  में सुनी हुई  बातों या पढ़ी गयी जानकारियों से मिल कर बनी होती है। अब लखनऊ की तहजीब, नफासत, पूरतकल्लुफ़, उसकी जुबान, उसकी भव्यता का जिक्र तो बचपन से ही सुनते आए हैं ! यह वह जगह थी जहां तू-तड़ाक की भाषा को पसंद नहीं किया जाता था। नवाबों के इस शहर की शाम को शाम-ए-अवध के नाम से दुनिया भर में मशहूरी मिली हुई थी। इसके लजीज पकवानों को किसी की भी जिव्हा को ललचाने में महारत हासिल थी। शानो-शौकत, सुंदरता से भरपूर, आदिगंगा के नाम से जानी जाने वाली गोमती नदी के किनारे बसे इस शहर की तुलना कश्मीर से की जाती थी। कहा जाता था कि जो सुकून यहां है वह कहीं और नहीं ! पर लखनऊ जंक्शन पर उतरते ही यह सारी बातें, सारी धारणाएं, सारे ख्यालात धराशाई होते नजर आए ! दूसरे बड़े शहरों की तरह ही यहां भी बाज़ार की व्यव्सायिकता, पैसे की महत्ता, जुबान की मिठास की कमी, अफरा-तफरी, अनियंत्रित ट्रैफिक के साथ ही स्वार्थी आधुनिक शैली की पदचाप साफ़ सुनायी देने लगी ! एक बात और पुख्ता हो गयी कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक प्रदेश चाहे कोई भी हो, शहर चाहे कहीं भी हो वहां के बस या रेल स्टेशनों पर मिलने वाले ऑटो-टैक्सी वालों की एक ही बिरादरी होती है, जिनका ध्येय सिर्फ नवागंतुक से ज्यादा ज्यादा वसूली कर लेना होता है। 

पता नहीं इस शहर को किसकी नज़र लग गयी है ! कभी बागों का शहर कहलाने वाला लखनऊ अब कंक्रीट का शहर बनता जा रहा है ! इसके लिए बहुत हद तक राजनीती का भी हाथ है ! नए बसाए जा रहे इलाकों की कुछ जगहों को छोड़ दिया जाए तो हर जगह बढ़ती आबादी के कारण बेतरतीबी, फैलती गंदगी, अनियंत्रित ट्रैफिक, पर्यावरण को खतरे में डालते हजारों धुआं उगलते वाहन, खस्ता हाल सड़कें, अफरा-तफरी, कम होती सामाजिक चेतना व जागरूकता, कर्तव्य विमुखता, बढ़ते पर्यटन के बावजूद शहर में हर जगह रख-रखाव की कमी बहुत खलती है। खासकर ऐतिहासिक इमारतों को सिर्फ उपार्जन का जरिया बना दिया गया है ! उनकी अनदेखी, बदहाली, बढती टूट-फूट, मरम्मत मांगती खस्ता हालत पर शायद कोई ध्यान ही नहीं देना चाहता ! शहर की 
आत्मा जैसे कहीं खो गयी है ! ऐसा लगता है कि ''मुस्कुराइये कि आप लखनऊ में हैं''  महज एक सरकारी स्लोगन भर बन कर रह गया है ! 

सबसे ज्यादा दुःख और अफ़सोस इस बात का है कि तमाम इलमो-अदब की गतिविधियों का केंद्र, नवाबों का यह शहर आज बदहाली की कगार पर खड़ा नजर आता है ! इसका एक ही हल हो सकता है जब इसको प्यार करने वाले यहां के वाशिंदे, बुद्धिजीवी, इतिहासकार, पर्यावरणप्रेमी तहा जागरूक नयी पीढ़ी सभी अपने व्यक्तिगत-राजनितिक मतभेद भुला, एकजुट हो इसके लिए आवाज और कदम उठाएं !  जिससे यह शहर फिर से अपना खोया हुआ गौरव, ख्याति, भव्यता और सम्मान प्राप्त कर सके ! 

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