शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

यदि पौराणिक काल में आज जैसी संस्थाएं होतीं तो ?

असली बवाल मचता शूर्पणखा के नाक-कान काटने पर ! सारी गलती राक्षस कुमारी की होने पर भी पहले तो बिना कुछ कहे-सुने सारा दोष राम-लक्ष्मण पर ही मढ़ दिया जाता। बेगुनाही साबित करते-करते महीनों लग जाते ! और फिर कहते हैं ना कि विपदाएं एक साथ आती हैं, यह मामला ख़त्म भी नहीं होता कि बाली-सुग्रीव के प्रकरण का सामना हो जाता। उस समय शायद खून-खराबा ना हीं होता क्योंकि तारा को यह हक़ मिला होता कि वह अपनी मर्जी से किसीके साथ भी रह सकती थी...........!


#हिन्दी_ब्लागिंग      

यदि एनिमल वेलफेयर एसोसिएशन या पशु-पक्षी संरक्षण समिति, महिला आजादी, मानवाधिकार जैसी संस्थाएं पौराणिक काल में ही अस्तित्व में आ गयी होतीं, तो संसार भर की तो छोड़िए हमारे देश के पौराणिक गंर्थों की कथाएं कैसी होतीं ? उनका तो सारा खाका ही बदल गया होता ! हमारे दोनों महान महाकाव्यों का क्या रूप होता ? परिदृष्य कैसा होता ? इसकी तो सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है !   

हमारे सारे धर्म-ग्रन्थों की तस्वीर ही अलग होती। शायद धरा पर असुरों का ही राज होता। क्योंकि सारे देवी-देवताओं ने अपने वाहनों के रूप में पशु-पक्षियों को ही प्रमुखता दे रखी है। तीनों महाशक्तियों को देखिए, शिवजी के परिवार में, बैल शंकरजी का वाहन है, मां पार्वती का वाहन सिंह है, कार्तिकेयजी मोर पर सवार हैं तो गणेशजी को चूहा पसंद है। विष्णुजी का भार गरुड़जी उठाते हैं तो मां लक्ष्मी की सवारी उल्लू है। ब्रह्माजी तथा मां सरस्वती माता  हंस पर आते-जाते हैं। उधर देवताओं में इंद्र को हाथी प्यारा है तो सूर्यदेव ने सात-सात घोड़े अपने रथ में जोड़ रखे हैं ! यमराज भैंसे पर सवार हो घूमते हैं तो ग्रहों ने भी तरह-तरह के जीव-जंतुओं को अपना वाहन बना रखा है ! कहां तक गिनायेंगे ! दूसरी ओर बेचारे असुर पैदल ही दौड़ते-भागते रह कर ही लड़ते-भिड़ते रहते थे। कोई बड़ा ओहदेदार हुआ तो उसे रथ वगैरह मिल जाते थे, वह भी स्वचालित। अब यदि आज जैसी कोई संस्था होती तो लड़ाईयां बराबरी पर लड़ी जातीं । तब शायद देवताओं की तो बोलती बंद होती और असुरों की तूती का शोर मचा होता !


सारा कुछ खंगालेंगे तो इस पर ग्रंथ ही बन जाएगा। यदि सिर्फ त्रेता युग की ही बात करें तो शायद रामायण लिखी ही न जाती ! क्योंकि महर्षि वाल्मिकी ना तो हिरण-वध करवा पाते, ना हीं सीता हरण होता ! तो फिर युद्ध काहे का ! यदि कोई और बहाने से युद्ध छिड़ भी जाता तो रामजी लड़ते भी कैसे ? वानर, भालुओं की सेना तो बनने नहीं दी जाती, और वरदान के अनुसार बिना उनके रावण वध हो नहीं पाता ! 


चलिए शुरू से ही देखते हैं, चलते हैं मिथिला, जहां शिव जी का प्राचीन धनुष संभाल कर रखा गया था ! इतनी पुरानी, महत्वपूर्ण, विलक्षण वस्तु तो सारे जगत की धरोहर थी, उसे जनक जी द्वारा प्रतियोगिता में रखवा कर तुड़वाने पर ही सैकड़ों सवाल खड़े हो जाते ! फिर राम जी पर भी बात उठती कि ऐसी अनमोल वस्तु को उन्होंने तोड़ डाला ! वैसे उस समय भी परशुराम जी ने सवाल उठाए थे पर उन्हें शायद समर्थन नहीं मिल पाया। शुक्र है, राम-सीताजी का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो गया, सब अयोध्या लौट आए। सब ठीक-ठाक चल रहा था पर अचानक समय पलटा, शनि सक्रिय हुए और राम जी को वनवास जाना पड़ा।

वनवास के दौरान तो पग-पग पर पंगा पड़ने की नौबत आ जाती ! जब केवट ने उनके पैर पखारे थे ! काकभुशंडि की आँख में तिनका जा लगा था ! अनगिनत राक्षसों को मार गिराया था ! पर असली बवाल मचता शूर्पणखा के नाक-कान काटने पर ! सारी गलती राक्षस कुमारी की होने पर भी पहले तो बिना कुछ कहे-सुने सारा दोष राम-लक्ष्मण पर ही मढ़ दिया जाता। बेगुनाही साबित करते-करते महीनों लग जाते ! और फिर कहते हैं ना कि विपदाएं एक साथ आती हैं, यह मामला ख़त्म भी नहीं होता कि बाली-सुग्रीव के प्रकरण का सामना हो जाता। उस समय शायद खून-खराबा ना हीं होता क्योंकि तारा को यह हक़ मिला होता कि वह अपनी मर्जी से किसीके साथ भी रह सकती थी। उस समय बाली या सुग्रीव कौन राम जी का साथ देता है सबको इस बात की उत्सुकता रहती। वैसे शायद सुग्रीव का ही पलड़ा भारी पड़ता क्योंकि हनुमान जी उसके साथ थे।    

पर हनुमान जी ही कहां शांति से रह पाते ! यदि किसी तरह अपने आराध्य से मिल भी जाते तो बेचारे तरह-तरह के आरोपों से परेशान रहते। संजीवनी के लिए द्रोणगिरी पर्वत हटाने से उत्तरांचल के लोग तो आज तक खफा हैं उनसे। बिना उचित कागजात के लंका प्रवेश और फिर वहां अग्निकांड के कारण पता नहीं किस-किस आयोग को जवाब देना पड़ता। अशोक वाटिका में हजारों पेड़-पौधे तहस नहस कर दिए थे उसका हिसाब अलग से मांगा जाता। विदेश का मामला था, और रावण चतुर कूटनीतिज्ञ ! अपनी जान बचाने और लंका पर छाई युद्ध की विभीषिका से बचने के लिए उसने किसी सक्षम और ताकतवर देश के राजा के यहां गुहार लगा देनी थी ! बस शुरू हो जाते हस्तक्षेप ! 

इधर राम-लक्ष्मण भी चले आए थे बिना किसी सेना के ! जिसको भारत के इस अंतिम छोर पर संगठित करने की योजना थी ! तो वह कैसे पूरी होती ? वानर-भालुओं पर तो बंदिश लगी होनी थी ! येन-केन-प्रकारेण उनके रसूख वगैरह से सेना का गठन हो भी जाता तो सागर से पार पाना तो लगभग असंभव ही होता ! सेतु-बंध करते समय जो सागर किनारे की भूमि को समतल करना पड़ता, छोटी-मोटी पहाड़ियां, टिले, विशाल वृक्ष, पेड़-पौधों को हटाने के साथ-साथ पर्वत शिलाओं को सागर में फेंकने से प्रकृति का संतुलन  बिगाड़ने का आरोप लग जाता ! उसका जांच आयोग के सामने जवाब देना मुश्किल हो जाता कि रावण वध जरुरी है कि प्रकृति को बचाना ! लगता नही कि इन सब पचड़ों के बीच युद्ध हो पाता। और अगर महासमर ना होता तो रावण और उसका साम्राज्य तो यथावत ही रहते !
फिर ! फिर क्या ? देख ही रहे हैं आज का माहौल ! 

6 टिप्‍पणियां:

शिवम् मिश्रा ने कहा…

ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 12/10/2018 की बुलेटिन, निन्यानबे का फेर - ब्लॉग बुलेटिन “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शिवम जी, हार्दिक धन्यवाद

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-10-2018) को "जीवन से अनुबन्ध" (चर्चा अंक-3124) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, अनेकानेक धन्यवाद

Gyanesh Kumar Gupta ने कहा…

गगन शर्मा जी लोगों की भावनाओं को स्वर देती आपकी रचना वास्तव में आजकल की इन नयी नयी विना सिर पैर की संस्थाओं पर करारा व्ययंग हैं आपने अपनी रचना के माध्यम से इन संस्थाओं को एक संदेश दिया है कि आप जो कर रहे हैं वह वास्तव में ठीक नही है ये नये नये आंदोलन मी टू जैसे चल जाते हैं जिनमें नारियाँ अपने आपको मासूम दिखाती हैं सोचने की बात है। सच क्या है सोचना पढ़ेगा

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ज्ञानेश जी, 'कुछ अलग सा' पर आपका सदा स्वागत है

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