सफारी के दौरान शुरू से ही सबके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ टाइगर ही छाया हुआ था ! नहीं तो जंगल के परिवेश के एक-एक मीटर का फासला अपने आप में अजूबा समेटे रहता है। अजूबे तो मुझे वे तीन सरकारी कर्मचारी भी लगे, जो अभ्यारण्य के उस हिस्से की सुरक्षा के लिए घोर जंगल में दिन-रात रहते हुए अपना कर्तव्य निभाते हैं !उन्हीं में से सैनी जी ने बताया कि ''जानवर शांति प्रिय ही होते हैं। बेवजह कभी भी आक्रमण नहीं करते, तभी तो आपलोग खुले वाहनों में घूमते हैं, और आपको तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया है, जब वह चिड़िया निडर हो आपके हाथ पर चुग्गा चुगने आ बैठी ''
#हिन्दी_ब्लागिंग
कल यहीं बात की थी, अपनी जंगल सफारी की, जब यात्रा के अंत में जा कर अद्भुत रूप से वनराज के दर्शन हुए थे। सफारी में सैंकड़ों लोगों का रोज आना-जाना लगा रहता है। उन सब का मुख्य ध्येय एक ही रहता है, जंगल के राजा के दर्शन का ! जिन्हें भाग्यवश वनराज दिख जाता है, वे इसे एक बड़ी उपलब्धि मान खुश हो जाते हैं, जिन्हें नहीं दिखता वे कुछ मायूस हो वापस चले जाते हैं। हालांकि अभ्यारण्यों में और भी दसियों तरह के जीव होते हैं, वे भी अपने आप में नायाब होते हैं, उनमें लोगों की दिलचस्पी भी होती है, पर संतुष्टि वनराज को देखने से ही मिलती है। अब; वो तो राजा है ! कब-कहां-कैसे दिखना है यह सब उसकी मर्जी के ऊपर निर्भर करता है। उसकी दुर्लभ पर गरिमामयी उपस्थिति वातावरण को बदल कर रख देती है। कुछ लोग तो हफ़्तों उसके नजर आने का इंतजार करते हैं और दिख जाने पर मंत्रमुग्ध हो, जड़ बने उसे निहारते रहते हैं।
मार्ग में |
पर मान लीजिए शेर या बाघ आम जानवरों की तरह जंगल में कहीं भी, कभी भी नजर आने लग जाएं तो भी क्या लोगों में इतनी ही उत्सुकता रहेगी उनको देखने की ? मुझे नहीं लगता ! क्योंकि जो सुगम हो, सर्वत्र उपलब्ध हो उसके लिए उतनी रुचि नहीं रह जाती लोगों में ! देखा गया है कि जंगली सूअर, भैंसे, भालू जैसे खतरनाक जीवों को भी लोग एक नजर देख आगे बढ़ जाते हैं, क्योंकि उनका दिखना आम होता है। अब जैसे जंगल के कर्मचारियों, वहां जाने वाले वाहन चालकों, गाइडों या अन्य स्टाफ के लिए वनराज कोई उत्सुकता का विषय नहीं रह जाता है क्योंकी वे उसे तक़रीबन रोज ही देख लेते हैं।
शावक |
अपनी इस यात्रा के दौरान और एक बात नोट कि तफरीह के दौरान हम मुख्य उद्देश्य को छोड़ और किसी ओर ध्यान ही नहीं देते, जैसे शुरू से ही सबके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ टाइगर ही छाया हुआ था ! नहीं तो जंगल के परिवेश के एक-एक मीटर का फासला अपने आप में अजूबा समेटे रहता है। अजूबे तो मुझे वे तीन सरकारी कर्मचारी भी लगे, जो अभ्यारण्य के उस हिस्से की सुरक्षा के लिए घोर जंगल में रहते हुए अपना कर्तव्य निभाते हैं। सफारी के तय मार्ग के अनुसार कारवां को करीब 15-16 की.मी जंगल के अंदर उस हिस्से के जंगलात के दफ्तर तक जा वहां से वापस होना होता है। वॉश-रूम की सुविधा उपलब्ध होने के कारण भी सारे कैंटर और जीपें वहां कुछ देर रुकते हैं जिससे सैलानी कुछ तरो-ताजा हो सकें।
जंगलात विभाग का ऑफिस |
बुद्धि राम व रामअवतार |
वाहनों के ठहरने के स्थान से दफ्तर कुछ ऊंचाई पर बना हुआ है जो शायद सुरक्षा की दृष्टि से किया गया होगा। जब तक लोग इधर-उधर टहल कर पीठ सीधी कर रहे थे उसी समय मेरा ध्यान वहां के तीन के कर्मचारियों की तरफ गया, जो निरपेक्ष भाव से हम सब को देख रहे थे। मैं उनके पास गया। परिचय का लेन-देन हुआ। समय कम था, सो किशोर सैनी और उनके दो सहायक बुद्धि राम तथा राम अवतार से उतने में जो बात हुई, उसका सार यही था कि अपनी ड्यूटी की अवधि के दौरान उन्हें उस घोर जंगल में, अपने परिवार तक से दूर रहना पड़ता है। वहां जानवरों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बिजली तो बिजली टार्च तक रखने की मनाही है। रात होने के पहले उन्हें अपना भोजन पका लेना पड़ता है क्योंकि रात में वहां किसी भी प्रकार की रौशनी निषेध है। उनकी अपनी सुरक्षा के लिए उनके पास सिर्फ एक पांच फुट का डंडा ही होता है। सांय-सांय करता बियावान जंगल, घुप अंधकार, जहां हाथ को हाथ न सुझाई दे, चारों ओर दुर्दांत जंगली जीव, दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं, कैसे कटती होगी इन तीनों की रातें ? कुछ अनहोनी हो जाए तो घंटों लगें सहायता आने में ! सलाम है इनके जीवट को !
इनका कहना है कि अब इस सबकी आदत पड़ चुकी है। जंगली जानवर भी अपने लगते हैं। वैसे भी जानवर शांति प्रिय ही होते हैं। बेवजह कभी भी आक्रमण नहीं करते। यदि कभी कोई जीव रुष्ट भी हो जाता है तो हम धैर्य से ही काम लेते हैं, इससे अब वे हमसे खतरा महसूस नहीं करते। सैनी जी ने हंसते हुए कहा, ''तभी तो आप लोग खुले वाहनों में घूमते हैं, और आपको तो प्रत्यक्ष प्रमाण मिल गया है, जब वह चिड़िया निडर हो आपके हाथ पर चुग्गा चुगने आ बैठी '' ! दफ्तर के पास ही एक प्राकृतिक बावड़ी है जिसमें बारहों महीने स्वच्छ-निर्मल पानी उपलब्ध रहता है, उसी से सबका काम चलता है। दिनके उजाले में या सफारी के वाहनों की आवाजाही से जो वन्य-जीव जंगल के गर्भ में चले जाते हैं वे भी दिन ढलने के बाद स्वछंद हो इधर आ कर अपनी प्यास बुझाते हैं। आजकल एक व्याघ्र परिवार इधर अक्सर आता है, जिसमें नर, मादा तथा दो बच्चे हैं।
घिरती शाम |
वनराज आराम के मूड में |
तभी कारवां के ''मूवने'' का समय हो गया। किसी बार्डर पर बैठे सैनिकों के समान उन तीनों से मैंने विदा ली। सारे सैलानी अपने-अपने वाहनों में जा कर फिट हो गए। आगे क्या होने वाला है ! प्रकृति क्या रंग दिखाने वाली है ! इसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी ! किसी को सपने में भी ख्याल नहीं आया होगा कि हमें विदाई देने के लिए खुद वनराज द्वार पर मौजूद रहेंगे !!!
4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (27-10-2018) को "पावन करवाचौथ" (चर्चा अंक-3137) (चर्चा अंक-3123) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शास्त्री जी, अनेकानेक धन्यवाद
ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 26/10/2018 की बुलेटिन, "सेब या घोडा?"- लाख टके के प्रसन है भैया !! “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
शिवम जी, आपका और ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार
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