शनिवार, 18 अगस्त 2018

राम कृपा से सम्पाती का काया-कल्प

सम्पाती समुद्र तट पर आ पसरने वाले जिस समूह को अपना प्रभू-प्रदत्त भोजन समझ कर लपक रहा था, वह कोई मामूली वानर दल नहीं था ! यह रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में जामवंत, हनुमान तथा अंगद जैसे महावीरों के नेतृत्व में  निकली वह वानर सेना की टुकड़ी थी, जो हफ़्तों पहाड़ों, बियाबानों की ख़ाक छानने के बाद भी सीता माता का कोई सुराग न मिल पाने के कारण हताश-निराश, हारी-थकी यहां पहुंची थी..........!


#हिन्दी_ब्लागिंग      

अपरान्ह का समय, सूर्य देव अपनी आधी यात्रा तय कर आहिस्ता-आहिस्ता अस्ताचल की ओर अग्रसर हो रहे थे। तभी सागर तट की तरफ से लहरों की आवाजों के अलावा हल्की सी हलचल और कुछ कोलाहल का एहसास होने लगा ! जैसे बहुत सारे लोग इक्कट्ठा हो आपस में बातें कर रहे हों। धीरे-धीरे ये आवाजें तेज शोरगुल में बदल गयीं। सागर से कुछ दूरी पर स्थित पहाड़ी के मध्य में बनी एक खोह में पड़ा सम्पाती अर्द्धनिद्रावस्था में था। सालों बीत जाने के बाद भी सूर्य प्रयाण के दौरान लगभग मृत्यु को प्राप्त उसका शरीर अभी तक पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया था। कमजोरी के कारण रोएँ और पंख विहीन उसका विशाल, वृहदाकार, भारी-भरकम शरीर बड़ी मुश्किल से अपना भार संभाल पाता था। इसलिए वह एक प्रकार से इसी खोह में कैद हो कर रह गया था ! जिससे ना उसे बाहर की दुनिया की कोई खबर थी ना हीं दुनिया को उसकी ! लोग लगभग उसे भुला चुके थे। ऐसे में उसका पुत्र सुपार्श्व ही
अपने पिता की सेवा-सुश्रूषा, नित्य-कर्म व भोजन इत्यादि करवाया करता था। आज भी वह अभी ही गया था। भोजनोपरांत आए अलस से अभी सम्पाती की आँख लगी ही थी कि अचानक यह शोर-गुल शुरू हो गया। सम्पाती के डर के कारण सागर के इस ओर कोई नहीं आता था। किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि इधर आ यहां की शान्ति में खलल डाले या किसी तरह का कोई व्यवधान खड़ा करे ! आज किसका इतना दुःसाहस हो गया, जो यहां शोर मचा रहा है ! आराम में विघ्न पड़ने से उसका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। किसी तरह उठ कर खोह के मुहाने पर पहुंच उसने अपनी गर्दन बाहर निकाल देखा तो उसे विशाल सागर तट पर अनेक वानर विचरते नजर आए, उन्हीं के वार्तालाप से यह शोर उठ रहा था। पहले तो उसने सोचा कि अपनी हुंकार से उन्हें डरा कर भगा दे ! पर फिर उसे ख्याल आया कि भगवान ने तो घर बैठे उसके लिए लम्बे समय तक के भोजन का प्रबंध कर दिया है। यह ख्याल आते ही वह खोह के बाहर निकल उन्हें बंदी बनाने के बारे में विचार करने लगा।

इधर समुद्र तट पर आ पसरने वाला समूह कोई मामूली वानर दल नहीं था ! यह रावण द्वारा सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में, जामवंत, हनुमान तथा अंगद जैसे महावीरों के नेतृत्व में निकली वह वानर सेना की टुकड़ी थी, जो
हफ़्तों जंगलों, पहाड़ों, बियाबानों की ख़ाक छानने के बाद भी सीता माता का कोई सुराग न मिल पाने के कारण हताश-निराश, थकी-हारी यहां पहुंची थी। अपने अभियान की असफलता का सभी को अतीव दुःख तो था ही; साथ ही सुग्रीव द्वारा नाकामयाब हो कर लौटने पर दी गयी मृत्यु दण्ड की चेतावनी अलग परेशान कर रही थी। इसी समस्या पर हो रहा विचार-विमर्श वहां उठ रहे शोर-गुल का मुख्य कारण था। उसमें से किसी को भी आसन्न संकट का रत्ती भर अंदेशा नहीं था।

सम्पाती ने अपनी व्यूह रचना बना,  खोह के बाहर कदम रखा ही था कि वानर दधिमुख की निगाह उस पर जा पड़ी ! शरीर के अनुपात में पतली लम्बी गर्दन, भाले की तरह बड़ी सी नोकीली चोंच, भेद कर रख देने वाली डरावनी लाल आंखें, पंख विहीन वृहदाकार पक्षी जैसे जीव को देख उसकी तो बोलती ही बंद हो गयी। उसने किसी तरह सबका ध्यान उस ओर आकर्षित करवाया। पूरा दल सामने आई इस नई मुसीबत को देख तत्क्षण उठ खड़ा हुआ। सम्पाती
का भयंकर शरीर इतना विशाल था कि यदि वह उन पर गिर भी जाता तो पच्चीस-पचास वानर तो यूं ही कुचले जाते। उसने गर्जना कर कहा कि भागने की कोशिश बेकार है, वह किसी को भी छोड़ेगा नहीं, सभी को उसका आहार बनना पडेगा। उसकी मेघ-गर्जना जैसी आवाज सुन वानर सैनिक हनुमान जी के पीछे आ-आ कर इकट्ठे हो गए, सबको उन्हीं का सहारा था, जो बिना विचलित हुए उस पक्षी नुमा पहाड़ को अपनी तरफ लुढ़कता आता देख रहे थे। थकान से चूर होने के बावजूद अंगद और जामवंत ने आने वाली मुसीबत से दो-दो हाथ करने की तैयारी कर ली थी। 
अस्त होते सूर्य के लाल रंग से सागर जल व तट भी लाल नजर आने लगे थे, जैसे युद्ध के पूर्व ही धरा खून से लाल हो गयी हो। लपकते चले आ रहे सम्पाती ने मुंह आकाश की ओर उठा, प्रभू को धन्यवाद दिया जो उन्होंने घर बैठे ही उसके लिए कई दिनों के भोजन की व्यवस्था कर दी थी। उसकी यह बात सुन जामवंत जी हताशा से भरे स्वर में बोले कि भगवान् की माया भी विचित्र है, देखो, एक यह गिद्ध है जो हम थके-हारे, लाचार लोगों को अपना आहार बनाना चाहता है: दूसरा वह जटायू था जिसने एक लाचार स्त्री को बचाने के लिए अपनी जान दे दी ! सम्पाती ने जैसे ही जटायू का नाम सुना; वह वहीं थम गया ! उसने जामवंत जी की तरफ देख कर पूछा, तुम जटायू को कैसे जानते हो ? इस पर जामवंत जी ने उसे राम वन-गमन से लेकर सीता हरण तक की सारी बात बताई और यह भी बताया
कि जिन सीता मैया को हम खोज रहे हैं उन्हीं को रावण से बचाने के लिए जटायू ने अपनी जान दांव पर लगा दी थी।सारी बात सुनने के बाद सम्पाती वहीं निढाल हो बैठ गया ! ऐसा लगा जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं बची हो। उसकी आँखों से आंसू बहने लगे जो रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे ! उसका विलाप थम ही नहीं रहा था ! यह देख सारा समूह आश्चर्यचकित हो खड़ा रह गया। किसी को उस विशाल शरीर में आए इस अचानक परिवर्तन का  कारण समझ नहीं आ रहा था। तब हनुमान जी तथा जामवंत जी ने उसके पास जा उसे जल पिला कर दिलासा दे, समझाया, सांत्वना दी। कुछ देर बाद प्रकृतिस्थ होने पर उसने बताया कि मैं उसी जटायू का बड़ा भाई हूँ। इसके साथ ही उसने अपने बारे में सब कुछ बताते हुए उस सूर्य प्रयाण का भी जिक्र किया जिसके कारण उसका यह हाल हुआ और उसे यहां रहना पड़ रहा था। तभी उसे ऋषि द्वारा दिए गए उस आशीर्वाद का भी ख्याल आ गया जो उन्होंने उसकी चिकित्सा के दौरान दिया था कि जब इधर श्री राम का आगमन होगा और तुम उनके काम आओगे तो तुम्हारा शरीर पहले की तरह स्वस्थ, सुन्दर और बलशाली हो जाएगा। वर्षों के इन्तजार और कष्टों को सहने के बाद आज वह समय आ चुका था। 
सम्पाती कुछ संभल चुका था। उसने गहरी सांस ली, सबकी ओर देखा और पूछा कि बताएं, मैं आपकी क्या और कैसे सहायता कर सकता हूँ ? तब अंगद ने उसे बताया कि सीता माता का पता लगाने में वानर राज सुग्रीव द्वारा दी गयी अवधि समाप्ति की ओर है और हमें अब तक कोई सुराग नहीं मिल पाया है सो कृपा कर माता की खोज में हमारी सहायता करें ! यह सुन सम्पाती ने कहा कि मुझे गरुड़ जी के आशीर्वाद से सैंकड़ों योजन देखने की क्षमता प्राप्त है, यह काम तो मैं तुरंत कर सकता हूँ। उसने गरुड़ जी का ध्यान कर अपनी दिव्य-दृष्टि से सारी दिशाओं में देखना शुरू किया, कुछ देर के बाद ही उसके चेहरे पर चमक आ गयी, उसने बताया कि सीताजी यहां से सौ योजन दूर सागर के बीच स्थित लंका नगरी में एक वाटिका में रावण की कैद में हैं। उसने इन सब को वहाँ जाने लिए प्रोत्साहित भी किया। जैसे ही उसने यह बात बताई; पूरी वानर सेना ख़ुशी से उछल पड़ी। कार्य-सिद्धि जो हो गयी थी। 
राम कृपा नासहिं सब रोगा ! जैसे ही सम्पाती ने सीताजी का पता लगा, राम काज में सहयोग किया वैसे ही उसमें शक्ति का संचार होना आरंभ हो गया, उसके शरीर पर रोएँ उग आए और पंखों का आना भी शुरू हो गया। सम्पाती की आँखों से दो बूँद अश्रु उसके चेहरे पर ढलक गए !  

7 टिप्‍पणियां:

Digvijay Agrawal ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 19 अगस्त 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी, आपका और चर्चा मंच का हार्दिक आभार!

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

दिग्विजय जी,
हार्दिक धन्यवाद!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

सुशील जी,
हार्दिक धन्यवाद

Onkar ने कहा…

सुन्दर वर्णन

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

ओंकार जी,
सदा स्वागत है

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