गुरुवार, 21 सितंबर 2017

भाषा में मुहावरों का तड़का

हिंदी में तो मुहावरों की भरमार है। इसमें  मनुष्य के सर से लेकर पैर तक हर अंग के ऊपर एकाधिक मुहावरे बने हुए है। इसके अलावा खाने-पीने, आने-जाने, उठने-बैठने, सोने-जागने, रिश्ते-नातों, तीज-त्योहारों, हंसी-ख़ुशी, दुःख-तकलीफ, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, कथा-कहानियों, स्पष्ट-अस्पष्ट ध्वनियों, शारीरिक-प्राकृतिक या मनोवैज्ञानिक चेष्टाओं तक पर मुहावरे गढ़े गए हैं; और तो और हमने ऋषि-मुनियों-देवों तक को इनमे समाहित कर लिया है....

#हिन्दी_ब्लागिंग 
संसार की हर समृद्ध भाषा में मुहावरों का अपना एक अलग स्थान है। जिस तरह किसी पुरुष या नारी के व्यक्तित्व में थोड़े से साज-श्रृंगार व उचित परिधान से और निखार आ जाता है; या जिस तरह भोजन-व्यजंन, मिर्च-मसालों  के प्रयोग से और स्वादिष्ट हो जाते हैं; जिस तरह बाग़-बगीचे में फूलों की क्यारियां उसे और मनोहर बना देती हैं, उसी प्रकार किसी भी भाषा को मुहावरों का प्रयोग और रुचिकर बना देता है। उसमें एक गहराई, एक अलग प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसने कभी इनका प्रयोग किया-देखा-सुना ना हो !  

इसका प्रयोग कैसे और कब शुरू हुआ इसकी जानकारी मिलना बहुत मुश्किल है, पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य ने शारीरिक चेष्टाओं, अस्पष्ट ध्वनियों और बोलचाल की किसी शैली का अनुकरण या उसके आधार पर उसके सामान्य अर्थ से भिन्न कोई विशेष या विशिष्ट अर्थ देने वाले वाक्य, वाक्यांश या शब्द-समूह को मुहावरे का नाम दिया होगा। ऐसे वाक्य जन-साधारण के अनुभवों, अनुभूतियों, तजुर्बों से अस्तित्व में आते रहे होंगे। जिनमें व्यंग्य का पुट भी मिला होता था। इन्हें लोकोक्ति के नाम से भी जाना जाता है। इनके बिना तो भाषा की कल्पना भी मुश्किल लगती है।    

किसी भी भाषा में मुहावरों का प्रयोग भाषा को सुंदर, प्रभावशाली, संक्षिप्त तथा सरल बनाने के लिए किया जाता है। हिंदी में तो मुहावरों की भरमार है। इसमें  मनुष्य के सर से लेकर पैर तक हर अंग के ऊपर एकाधिक मुहावरे बने हुए है। इसके अलावा खाने-पीने, आने-जाने, उठने-बैठने, सोने-जागने, रिश्ते-नातों, तीज-त्योहारों, हंसी-ख़ुशी, दुःख-तकलीफ, जीव-जंतुओं, पशु-पक्षियों, कथा-कहानियों, स्पष्ट-अस्पष्ट ध्वनियों, शारीरिक-प्राकृतिक या मनोवैज्ञानिक चेष्टाओं तक पर मुहावरे गढे गए हैं; और तो और हमने ऋषि-मुनियों-देवों तक को इनमे समाहित कर लिया है। पर इसके साथ ही एक बात ध्यान देने की यह भी है कि मुहावरे किसी-न-किसी तरह के अनुभव पर आधारित होते हैं। इसलिए उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन या उलटफेर नहीं किया जाता है।जैसे गधे को बाप बनाना या अपना उल्लू सीधा करना; इनमें गधे की जगह बैल या उल्लू की जगह कौवा कर देने से उनका अनुभव-तत्व नष्ट हो जाता है और वह बात नहीं रह जाती। 

इनकी कुछ विशेषताएं भी हैं, जैसे - ये वाक्यांश होते हैं। मुहावरे का प्रयोग वाक्य के प्रसंग में ही होता है, अलग नहीं। मुहावरा अपना असली रूप कभी नही बदलता कार्टून चरित्रों की तरह ये सदैव एक-से रहते हैं, अर्थात उसे पर्यायवाची शब्दों में अनूदित नही किया जा सकता। इनका प्रयोग करते समय इनका शाब्दिक अर्थ न लेकर विशेष अर्थ लिया जाता है। इनके विशेष अर्थ भी कभी नहीं बदलते। ये लिंग, वचन और क्रिया के अनुसार वाक्यों में प्रयुक्त होते हैं; हाँ समय, समाज और देश की तरह नए-नए मुहावरे भी बनते रहते हैं। आज के मशीनी युग के मुहावरों और पुराने समय के मुहावरों तथा उनके प्रयोग में भी अंतर साफ़ दिखलाई पड़ता है 

उदाहरण के तौर पर आज कुछ मुहावरों को यहां आमंत्रित करते हैं, जो खान-पान संबंधित चीजों से अटे पड़े हैं। पता नहीं विशेषज्ञों से कोई पदार्थ छूटा भी है कि नहीं, देखिए ना, कहीं "खिचड़ी अलग पक रही है" तो "कहीं अकेला चना भाड़ फोड़ने की बेकार कोशिश में लगा हुआ है।" तो "कहीं लोहे के चने चबवा दिए जाते हैं।" फलों की बात करें तो यहां "आम के आम गुठली के भी दाम" मिलते हैं ! कहीं "खरबूजे को देख खरबूजा रंग बदल लेता है" तो "किसी के अंगूर ही खट्टे होते हैं।" किसी की "दाल नहीं गलती" तो "कहीं दाल में कुछ काला हो जाता है।" कहीं कोई "घर बैठा रोटियां तोड़ता है," तो "किसी की दांत काटी रोटी होती है" तो "किसी का आटा ही गीला हो जाता है।" कोई "मुंह में दही जमाए बैठ जाता है" तो "कोई अपने दही को खट्टा भी नहीं कहता।" सफलता के लिए किसी को "पापड बेलने पड़ जाते हैं" तो किसी का "हाल बेहाल हो जाता है" ऐसे में "ये मुंह और मसूर की दाल सुनना" पड़ता है। कुछ लोग "गुड़ खाते हैं पर गुलगुले से परहेज कर" "गुड़ का गोबर कर देते हैं।' कहीं कोई "ऊँट के मुंह में जीरा" देख "राई का पहाड़" और "तिल का ताड़ बना कर", "जले पर नमक छिड़कने" से भी बाज नहीं आता है। किसी के "दांत दूध के होते हैं" तो कुछ "दूध से नहाए होते हैं।" वहीँ कुछ लोग "दूध का दूध पानी का पानी" कर "छठी का दूध याद दिला" कर किसी को "नानी की याद दिलवा देते हैं।" हमारे यहां मिठाइयों से भी तरह-तरह की अजीबोगरीब उपमाएं रच दी गयी हैं ! जैसे किसी टेढ़े व्यक्ति को "जलेबी की तरह सीधा" बता कर उसकी असलियत बताई जाती है तो किसी मुश्किल काम को "टेढ़ी खीर" कहा जाता है ! किसी के अच्छे वचनों के लिए उसके "मुंह में घी शक्कर" भर दी जाती है तो किसी की सफलता पर उसके "दोनों हाथों में लड्डू।" थमा दिए जाते हैं। किसी की "पाँचों उंगलियां घी में होती हैं" तो किसी की "खिचड़ी में ही घी गिरता है।"  इसी कारण हम "खाते-पीते घर के लगते हैं।"   औरों की तो क्या कहें, हमारे यहां तो "अंधे भी रेवड़ियां बांट" कर "दाल-भात में मूसरचंद बन जाते हैं।" इन मुहावरों की दुनिया तो इतनी विशाल है जैसे "सुरसा का मुंह" कि इन पर "पूरा ग्रंथ लिखा जा सकता है।" यह भी कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि "मुहावरे अनंत मुहावरा कथा अनंता"। 

6 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-09-2017) को "खतरे में आज सारे तटबन्ध हो गये हैं" (चर्चा अंक 2735) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

शास्त्री जी,
स्नेह बना रहे।

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन पुण्यतिथि : मंसूर अली खान पटौदी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

कविता रावत ने कहा…

बहुत अच्छी प्रेरक प्रस्तुति

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

हर्ष जी,
आपका तथा ब्लॉग बुलेटिन का हार्दिक आभार

गगन शर्मा, कुछ अलग सा ने कहा…

कविता जी,
ब्लॉग पर आने का हार्दिक धन्यवाद

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