पहले भी ऐसी खबरें आती थीं कि फलां अस्पताल ने पैसे ना होने की वजह से बीमार को बाहर निकाल दिया या किसी डॉक्टर ने मरीज का इलाज अपनी फीस मिलने में देर होने की वजह से नहीं किया। तब इसे डॉक्टर या अस्पताल के अमानवीय व्यवहार के रूप में प्रचारित किया जाता था, आज उसे नोटों की तंगी से जोड़ा जा रहा है,.........मीडिया रुपी मौलवी शहर के अंदेशे से एवेंई, दुबले होते जा रहे हैं
आजकल देश में जो एक ही मुद्दा छाया हुआ है उस पर तरह-तरह की बेबुनियाद, फिजूल, भ्रामक, भड़काऊ खबरें रोज ही उछाली जा रही हैं। ऐसा नहीं है कि लोग परेशान नहीं हैं, उन्हें दिक्कत नहीं हो रही पर उनकी सहनशीलता उन्हें साधुवाद का पात्र बनाती है। दूसरी ओर मीडिया रुपी मौलवी शहर के अंदेशे से एवेंई, दुबले होते जा रहे हैं।
आजकल देश में जो एक ही मुद्दा छाया हुआ है उस पर तरह-तरह की बेबुनियाद, फिजूल, भ्रामक, भड़काऊ खबरें रोज ही उछाली जा रही हैं। ऐसा नहीं है कि लोग परेशान नहीं हैं, उन्हें दिक्कत नहीं हो रही पर उनकी सहनशीलता उन्हें साधुवाद का पात्र बनाती है। दूसरी ओर मीडिया रुपी मौलवी शहर के अंदेशे से एवेंई, दुबले होते जा रहे हैं।
पहले भी ऐसी खबरें आती थीं कि फलां अस्पताल ने पैसे ना होने की वजह से बीमार को बाहर निकाल दिया या किसी डॉक्टर ने मरीज का इलाज अपनी फीस मिलने में देर होने की वजह से नहीं किया। तब इसे डॉक्टर या अस्पताल के अमानवीय व्यवहार के रूप में प्रचारित किया जाता था, आज उसे नोटों की तंगी से जोड़ा जा रहा है। यदि कोई चिकित्सालय या चिकित्सक ऐसा अमानवीय काम पैसों के ना मिलने की वजह से करते हैं तो उन पर कार्यवाही होनी चाहिए ना कि उसे नोटबंदी से जोड़ा जाना चाहिए !!
ऐसे भी खबरें उछाली गयीं हैं कि पैसों की कमी के कारण खाना न खरीद पाने की वजह से एक-दो लोग भूख से मर गए ! पहले तो ऐसा होना संभव नहीं है यदि ऐसा हुआ भी है तो इसकी सच्चाई का पता किसने लगाया ? हम इतने हृदयहीन नहीं हो गए हैं कि हमारे सामने कोई भूख से तड़प रहा हो और हम नोटों की लाइन में खड़े उसका तमाशा देखें। आज जगह-जगह से खबरें मिल रही हैं कि गली-मोहल्ले वाले कतार में खड़े लोगों को चाय-पानी-नाश्ता उपलब्ध करवा रहे है। सिख समाज तो निःस्वार्थ-भाव से वर्षों-वर्ष से भूखों को भोजन करवाता आ रहा है। कई मन्दिर और संस्थाएं जरूरतमंदों के लिए लंगर चलाते हैं। यदि पीड़ित व्यक्ति वहां ना भी सका हो तो आस-पास के लोगों से ही अपनी तकलीफ व्यक्त कर सकता था। अरे हमारे यहां तो जानवरों तक को भूखा रखना पाप समझा जाता है। किसी इंसान को कैसे ऐसी हालत में प्राण त्यागने दे सकता है ?
ऐसी ही एक स्थिति थकान की है, बुजुर्गों की है, उसमें भी आस-पास की सहायता आसानी से ली जा सकती है, अपने सामने-पीछे वाले को अपनी हालत बता, कतार से हट कर बैठा जा सकता है। इसमें बैंक वाले यदि टोकन के साथ समय भी इंगित कर दें तो और भी आसानी हो सकती है।
राजधानी के बड़े अखबार खोज-खोज कर ऐसे-ऐसे सरकार विरोधी डिजायनर "बंदों" से लेख लिखवा रहे हैं जिनकी एक सिटिंग का सिगरेट-शराब का खर्चा हजारों में होता है। कोई मोदी द्वारा देश को दसियों साल पीछे ले जाने की बात करता है तो कोई स्वाइपिंग मशीनों की कमी का रोना रोता है। वह यह नहीं बताता कि अब तक देश में नगदी में ही अधिकतम काम होता था, इसलिए जरुरत ही नहीं पड़ती थी अब ज्यादा उपलब्ध करवानी पड़ेंगी। विरोध कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी है बस इसीलिए कुछ भी उगला जा रहा है।
आज मीडिया को अपने पर "बिके हुए" का तमगा हटाने का मौका मिला है। आज वह चाहे तो अपने-आप को विश्वसनीय और निष्पक्ष सिद्ध करने का प्रयास कर सकता है। अपनी लुटी-पिटी साख वापस पा सकता है। उसे सिर्फ सच्चाई को लाना है बस।
ऐसे भी खबरें उछाली गयीं हैं कि पैसों की कमी के कारण खाना न खरीद पाने की वजह से एक-दो लोग भूख से मर गए ! पहले तो ऐसा होना संभव नहीं है यदि ऐसा हुआ भी है तो इसकी सच्चाई का पता किसने लगाया ? हम इतने हृदयहीन नहीं हो गए हैं कि हमारे सामने कोई भूख से तड़प रहा हो और हम नोटों की लाइन में खड़े उसका तमाशा देखें। आज जगह-जगह से खबरें मिल रही हैं कि गली-मोहल्ले वाले कतार में खड़े लोगों को चाय-पानी-नाश्ता उपलब्ध करवा रहे है। सिख समाज तो निःस्वार्थ-भाव से वर्षों-वर्ष से भूखों को भोजन करवाता आ रहा है। कई मन्दिर और संस्थाएं जरूरतमंदों के लिए लंगर चलाते हैं। यदि पीड़ित व्यक्ति वहां ना भी सका हो तो आस-पास के लोगों से ही अपनी तकलीफ व्यक्त कर सकता था। अरे हमारे यहां तो जानवरों तक को भूखा रखना पाप समझा जाता है। किसी इंसान को कैसे ऐसी हालत में प्राण त्यागने दे सकता है ?
ऐसी ही एक स्थिति थकान की है, बुजुर्गों की है, उसमें भी आस-पास की सहायता आसानी से ली जा सकती है, अपने सामने-पीछे वाले को अपनी हालत बता, कतार से हट कर बैठा जा सकता है। इसमें बैंक वाले यदि टोकन के साथ समय भी इंगित कर दें तो और भी आसानी हो सकती है।
राजधानी के बड़े अखबार खोज-खोज कर ऐसे-ऐसे सरकार विरोधी डिजायनर "बंदों" से लेख लिखवा रहे हैं जिनकी एक सिटिंग का सिगरेट-शराब का खर्चा हजारों में होता है। कोई मोदी द्वारा देश को दसियों साल पीछे ले जाने की बात करता है तो कोई स्वाइपिंग मशीनों की कमी का रोना रोता है। वह यह नहीं बताता कि अब तक देश में नगदी में ही अधिकतम काम होता था, इसलिए जरुरत ही नहीं पड़ती थी अब ज्यादा उपलब्ध करवानी पड़ेंगी। विरोध कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी है बस इसीलिए कुछ भी उगला जा रहा है।
आज मीडिया को अपने पर "बिके हुए" का तमगा हटाने का मौका मिला है। आज वह चाहे तो अपने-आप को विश्वसनीय और निष्पक्ष सिद्ध करने का प्रयास कर सकता है। अपनी लुटी-पिटी साख वापस पा सकता है। उसे सिर्फ सच्चाई को लाना है बस।
4 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 21 नवम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
यशोदा जी, आभार
अच्छी जानकारी व सटीक विचार आपने प्रस्तुत किया ..
एक नई दिशा !
धन्यवाद, रश्मि जी
एक टिप्पणी भेजें