हमारे देश की अधिकतम आबादी वह है जो अपना खून-पसीना एक करने बावजूद अपनी आवश्यकता के सौ रुपये के बदले नब्बे रुपये ही कमा पाती है। उसके पास अपना उजला धन ही नहीं टिकता तो काले धन की बात ही कहां !
आठ नवम्बर को एक जलजला आया, यह प्राकृतिक नहीं मानव निर्मित था, पर इससे सारा देश हिल गया। सरकार की तरफ से इसे भ्रष्टाचार, काले धन और बाजार में छाई नकली मुद्रा से निजात पाने के लिए उठाया गया कदम बताया गया। आम भारतीय जो देश के हित के लिए किसी भी प्रकार की परेशानी-कठिनाई सहने को और त्याग करने को तैयार हो जाता है उसने अपने स्वभाव के अनुसार दसियों दिन तकलीफें झेलीं पर इस कठोर निर्णय का स्वागत ही किया। कारण साफ़ था, हमारे देश की अधिकतम आबादी वह है जो अपना खून-पसीना एक करने बावजूद अपनी आवश्यकता के सौ रुपये के बदले नब्बे रुपये ही कमा पाती है। उसके पास अपना उजला धन ही नहीं टिकता तो काले धन की बात ही कहां ! यह तबका वर्षों से मंत्री, संत्री, नेता, अभिनेता, इंजिनियर, ठेकेदार, फलाने-ढिमकाने के पास या फिर उनके द्वारा ठिकाने लगाए गए काले धन के बारे में सुनता आ रहा था। आज उसके मन में कहीं दबे ऐसे धन्ना-सेठों के प्रति आक्रोश को तसल्ली मिली। काले धन के देश के काम आने की बात सुन उसने परेशानियों को सहते हुए भी इस निर्णय का स्वागत किया। विरोध किया विपक्ष ने, जो उसे करना ही था ! सरकार के इस दांव से सदमें में गया भौंचक्का से विपक्ष ने अपना दायित्व निभाते हुए इस कदम के नुक्सान गिनाने शुरू कर दिए। उधर अलग-अलग खेमों में बंटा मीडिया, अपना-अपना राग अलापने लगा। हम, यह जानते हुए भी कि सामने टी वी पर जो कहा जा रहा है वह अर्द्ध-सत्य होता है, उसी को पूरा सत्य मानने लग गए हैं। सच कहा जाए तो हम कहीं अंदर से अपना-अपना पसंदीदा चैनल चुन चुके है जिस पर हम आँख मूँद कर विश्वास भी करने लगे हैं।
आठ नवम्बर को एक जलजला आया, यह प्राकृतिक नहीं मानव निर्मित था, पर इससे सारा देश हिल गया। सरकार की तरफ से इसे भ्रष्टाचार, काले धन और बाजार में छाई नकली मुद्रा से निजात पाने के लिए उठाया गया कदम बताया गया। आम भारतीय जो देश के हित के लिए किसी भी प्रकार की परेशानी-कठिनाई सहने को और त्याग करने को तैयार हो जाता है उसने अपने स्वभाव के अनुसार दसियों दिन तकलीफें झेलीं पर इस कठोर निर्णय का स्वागत ही किया। कारण साफ़ था, हमारे देश की अधिकतम आबादी वह है जो अपना खून-पसीना एक करने बावजूद अपनी आवश्यकता के सौ रुपये के बदले नब्बे रुपये ही कमा पाती है। उसके पास अपना उजला धन ही नहीं टिकता तो काले धन की बात ही कहां ! यह तबका वर्षों से मंत्री, संत्री, नेता, अभिनेता, इंजिनियर, ठेकेदार, फलाने-ढिमकाने के पास या फिर उनके द्वारा ठिकाने लगाए गए काले धन के बारे में सुनता आ रहा था। आज उसके मन में कहीं दबे ऐसे धन्ना-सेठों के प्रति आक्रोश को तसल्ली मिली। काले धन के देश के काम आने की बात सुन उसने परेशानियों को सहते हुए भी इस निर्णय का स्वागत किया। विरोध किया विपक्ष ने, जो उसे करना ही था ! सरकार के इस दांव से सदमें में गया भौंचक्का से विपक्ष ने अपना दायित्व निभाते हुए इस कदम के नुक्सान गिनाने शुरू कर दिए। उधर अलग-अलग खेमों में बंटा मीडिया, अपना-अपना राग अलापने लगा। हम, यह जानते हुए भी कि सामने टी वी पर जो कहा जा रहा है वह अर्द्ध-सत्य होता है, उसी को पूरा सत्य मानने लग गए हैं। सच कहा जाए तो हम कहीं अंदर से अपना-अपना पसंदीदा चैनल चुन चुके है जिस पर हम आँख मूँद कर विश्वास भी करने लगे हैं।
सरकार, विपक्ष और मीडिया सभी जानते हैं कि मुट्ठी भर लोग ही हैं जो इस नोटबंदी का कुछ न कुछ आकलन कर सकते हैं, पर बहुत बड़ी आबादी इस बारे में कुछ नहीं जानती उसे जो समझाया-बताया जा रहा है उसी पर विश्वास कर रही है, तो सब लगे हुए हैं राशन-पानी लेकर अपनी-अपनी बात सही साबित करने। विपक्ष यह बता रहा है कि इसी कदम से रुपया कमजोर हो रहा है, यह एक कारण हो सकता है, पर वह यह नहीं बताता कि इसका एक कारण अमेरिका में ट्रंप का राष्ट्रपति बनना भी है जिससे डॉलर मजबूत हुआ है और हमारे साथ-साथ एशिया के अन्य देशों यथा जापान, सिंगापुर, मलेशिया, दक्षिणी कोरिया व ताइवान की करेंसी में भी गिरावट आई है ! कोई स्वाइपिंग मशीनों की कमी को लें-दें में अड़चन बता रहा है पर यह नहीं कहता कि अब तक देश में नगदी में ही अधिकतम काम होता था, इसलिए जरुरत ही नहीं पड़ती थी अब आवश्यकता पड़ी है तो ज्यादा उपलब्ध करवाई जाएंगी। उधर सरकार आमजन को अपने पक्ष में देख आत्ममुग्धता की स्थिति में है और अपने कदम को एकदम सही मान कर चल रही है। शायद उसे गुमान भी नहीं है कि यदि उसके निर्णय से परेशानियों का दौर लम्बा खिंचा तो इसी समर्थन को गुस्से में तब्दील होने में देर नहीं लगेगी।
पहले भी ऐसा हो चुका है। 1975 से 1977 के बीच 21 माहीनों तक लगे आपातकाल का ख़ौफ़ ऐसा है कि उस दौरान जो दो-चार अच्छे काम हुए भी होंगे उन्हें कोई याद नहीं करना चाहता। वही हाल संजय गांधी द्वारा चलाए गए नसबंदी अभियान का हुआ। कौन नहीं जानता कि बढती आबादी हमारी सबसे बड़ी समस्या है जिसके सैलाब में हर छोटी-बड़ी योजना तबाह हो जाती है। उस समय यदि वह अभियान ढंग से चला होता, लोगों पर जबरदस्ती ना थोप ठीक से समझा कर लागू किया जाता, अपने अहम् की पूर्ती को छोड़ योजना की सफलता पर ध्यान दिया जाता तो आज हमारी जनसंख्या के बनिस्पत संसाधनों की मात्रा कहीं अधिक होती। पर जबरन लक्ष्य पूर्ती, अपनी काबिलियत साबित करने, आकाओं के गुस्से से बचने, अपनी नौकरी बचाने के लिए जिस तरह लाल फीताशाही ने अपने पद, अपनी हैसियत, अपने रसूख का दुरुपयोग किया उससे एक दूरदर्शी देश हित की योजना दुःस्वप्न में बदल कर रह गयी। डर है कि उसी तरह का हश्र इस निर्णय का भी ना हो। क्योंकि ऊपर दल बदलते हैं, मंत्री बदलते हैं पर अफसरशाही तो वही रहती है, और उसके काम करने का तरीका बदलने का दुःसाहस कुछ ही लोग कर पाते हैं जिनके सफल रहने से सबसे ज्यादा तकलीफ भी इसी सरकारी तबके को होती है। इन पर बेलगामी अर्थ का अनर्थ कर डालती है। इसी के साथ, किसी के बहकावे या अफवाहों से बचते हुए, हमें भी धैर्य रख सारी परिस्थियों पर नजर रखनी चाहिए और अपने जमीर, अपने विवेक का सहारा ले उचित-अनुचित में भेद करना चाहिए। समय की मांग भी यही है।
पहले भी ऐसा हो चुका है। 1975 से 1977 के बीच 21 माहीनों तक लगे आपातकाल का ख़ौफ़ ऐसा है कि उस दौरान जो दो-चार अच्छे काम हुए भी होंगे उन्हें कोई याद नहीं करना चाहता। वही हाल संजय गांधी द्वारा चलाए गए नसबंदी अभियान का हुआ। कौन नहीं जानता कि बढती आबादी हमारी सबसे बड़ी समस्या है जिसके सैलाब में हर छोटी-बड़ी योजना तबाह हो जाती है। उस समय यदि वह अभियान ढंग से चला होता, लोगों पर जबरदस्ती ना थोप ठीक से समझा कर लागू किया जाता, अपने अहम् की पूर्ती को छोड़ योजना की सफलता पर ध्यान दिया जाता तो आज हमारी जनसंख्या के बनिस्पत संसाधनों की मात्रा कहीं अधिक होती। पर जबरन लक्ष्य पूर्ती, अपनी काबिलियत साबित करने, आकाओं के गुस्से से बचने, अपनी नौकरी बचाने के लिए जिस तरह लाल फीताशाही ने अपने पद, अपनी हैसियत, अपने रसूख का दुरुपयोग किया उससे एक दूरदर्शी देश हित की योजना दुःस्वप्न में बदल कर रह गयी। डर है कि उसी तरह का हश्र इस निर्णय का भी ना हो। क्योंकि ऊपर दल बदलते हैं, मंत्री बदलते हैं पर अफसरशाही तो वही रहती है, और उसके काम करने का तरीका बदलने का दुःसाहस कुछ ही लोग कर पाते हैं जिनके सफल रहने से सबसे ज्यादा तकलीफ भी इसी सरकारी तबके को होती है। इन पर बेलगामी अर्थ का अनर्थ कर डालती है। इसी के साथ, किसी के बहकावे या अफवाहों से बचते हुए, हमें भी धैर्य रख सारी परिस्थियों पर नजर रखनी चाहिए और अपने जमीर, अपने विवेक का सहारा ले उचित-अनुचित में भेद करना चाहिए। समय की मांग भी यही है।
2 टिप्पणियां:
आपने लिखा....
मैंने पढ़ा....
हम चाहते हैं इसे सभ ही पढ़ें....
इस लिये आप की रचना दिनांक 01/12/2016 को पांच लिंकों का आनंद...
पर लिंक की गयी है...
आप भी इस प्रस्तुति में सादर आमंत्रित है।
कुलदीप जी, हार्दिक धन्यवाद
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